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Saturday, 21 December, 2024
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अदालतों की आलोचना को समझने के लिए, तुषार मेहता और हरीश साल्वे को रिफ्रेशर कोर्स की जरूरत है

मेहता का कुछ संस्थाओं को वर्गीकृत करना, कि वो ‘समानांतर सरकारें चला रही हैं’, अधीनस्थ न्यायपालिका को एक संदेश है. एससी को उन्हें रोकना चाहिए था.

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दो दिलचस्प लेकिन चिंताजनक हालिया बयान, जो भारत में न्यायपालिका की सेहत को दर्शाते हैं, हमें उनपर ध्यान देने की ज़रूरत है. एक का ताल्लुक़ मौजूदा प्रधान पब्लिक प्रॉसीक्यूटर से है, तो दूसरे का एक पूर्व से.

कोविड-19 के प्रकोप के बाद प्रवासियों की दुर्दशा पर, सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच द्वारा सुनवाई के दौरान, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एक मूर्खता भरे प्रयास में, लाखों प्रवासी मज़दूरों की मुसीबतों को कवर कर रहे, पत्रकारों की तुलना गिद्धों से की. उन्होंने राज्य सरकारों की निष्क्रियता पर सवाल खड़े कर रहे हाईकोर्ट्स पर भी आरोप लगाया, कि वो ‘समानांतर सरकारें चला रहे हैं’.

बाद में उन्होंने गिद्ध वाले अपने बयान से पीछे हटने का प्रयास किया, और दावा किया कि वो पत्रकारों की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि एनजीओज़ और कार्यकर्ताओं जैसे “स्पीच योद्धाओं” की ओर इशारा कर रहे थे, जो प्रवासी मज़दूरों के कोई मदद नहीं कर रहे थे, और बस नरेंद्र मोदी सरकार की ‘उदासीनता’ के खिलाफ बयानबाज़ी कर रहे थे.


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न्यायपालिका की आलोचना

दूसरा उदाहरण सीनियर एडवोकेट और पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे का है, जिन्होंने ख़ुद से ही सलाह दे डाली, कि किसी का ये सुझाव कि ‘न्यायपालिका सरकार के अधीन है’ अदालतों की ‘वैध आलोचना’ के वर्ग में नहीं आता. उन्होंने ये भी कहा कि बहुत से लोग जो चुने नहीं गए हैं, वो समझते हैं कि अदालतों के ज़रिए, वो सरकार पर अपनी मर्ज़ी थोप सकते हैं.

मैं सोचता हूं कि उनकी ये टिप्पणी, कि ‘भारत की मौजूदा आर्थिक मंदी के लिए सुप्रीम कोर्ट ज़िम्मेदार है’ एक वैध आलोचना का पात्र है कि नहीं.

इस बात से कोई इनकार नहीं है, कि कुछ वकील उच्च न्यायपालिका को दबाव में लेने की कोशिश करते हैं, एहतियात के साथ मंशा की तरफ इशारा करके, या ये संकेत देते हुए, कि जो जज संवेदनशील मामलों में उन्हें राहत नहीं देते, वो सरकार के दबाव में थे.

लेकिन वैध आलोचना को परिभाषित करने की, साल्वे जैसे व्यक्ति की कोशिश, एक विडम्बना ही कही जा सकती है.

अदालतों और उनके फैसलों की आलोचना तब तक सही है, जब तक अदालतों के इरादों पर कोई आरोप न मढ़ा जाए. सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं ये अधिकार नागरिकों को दिया है, जिनके अधिकार उसे संरक्षित करने हैं.

साल्वे का ये विचार कि अनिर्वाचित लोग, अदालतों के ज़रिए सियासी नम्बर बना रहे हैं, कई सवाल खड़े करता है.

क्या वो भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रहमण्यम स्वामी जैसे लोगों की ओर इशारा कर रहे हैं, जिनके मामलों की एक लम्बी सूची है, और जिनका मक़सद सियासी नम्बर स्कोर करना है, या बीजेपी लीडर अश्विनी उपाध्याय, जो अलग अलग विषयों पर नियमित रूप से पीआईएल दाख़िल करते रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर राजनीतिक स्वभाव की होती हैं?

और, न्यायविद वीआर कृष्णा अय्यर या पीएन भगवती जैसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों का क्या, जिन्होंने पीआईएल के मामलों में कुछ एतिहासिक फैसले दिए हैं.


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एससी को मेहता के बयानो से क्यों चिंता होनी चाहिए

सॉलिसिटर जनरल के नाते तुषार मेहता बहुत व्यस्त रहे हैं, एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट में, मोदी सरकार या उसकी एजेंसियों के कामों का बचाव करने में, जो अकसर मनमाने दिखाई पड़ते हैं.

अदालतों ने अकसर सॉलिसिटर जनरल की इच्छाओं का कुछ ज़्यादा ही सम्मान किया है, और स्टेट मशीनरी से चोट खाए लोगों को राहत देने से इनकार किया है, जो अपने राजनीतिक स्वामियों के आदेश पर काम करती है.

ये दूसरी बात है कि उनकी दलीलों का, अकसर कोई क़ानूनी आधार नहीं होता.

लेकिन उनका कुछ संस्थाओं को वर्गीकृत करना, कि वो ‘समानांतर सरकारें चला रही हैं’, अधीनस्थ न्यायपालिका को एक संदेश है.

सुप्रीम कोर्ट बेंच को उनसे अपना बयान वापस लेने के लिए कहना चाहिए था. दुर्भाग्य से, ऐसा कुछ नहीं हुआ.

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न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल खड़े करना, एक निर्लज्ज हमला था, उस शख़्स की ओर से, जिसका कोर्ट के भीतर भ्रामक बयानबाज़ियां करने का, एक इतिहास रहा है.

अदालत को, जैसा कि वो हर दूसरे वकील के साथ करती है, उनसे कहना चाहिए था कि अपने बयान को, केस से जुड़े क़ानूनी मुद्दों तक ही सीमित रखें. लेकिन, किसी कारणवश बेंच ने उन्हें नहीं रोका, और बिना ज़रूरत विरोधी वकील पर हमला करने का मौक़ा दिया, जिसमें प्रवासी मज़दूरों की मदद के लिए, कुछ अच्छा काम कर रहे लोगों की प्रामाणिकता पर, सवाल खड़े किए गए थे.

मेहता ने पत्रकारों को गिद्ध की तरह बताया या नहीं, इसका कोई मतलब नहीं है. भारत का सॉलिसिटर जनरल विरोधी वकील के पीछे पड़ जाता है, अपने राजनीतिक आक़ाओं के अलावा, हर किसी की मंशा पर सवाल उठाता है, और चतुराई के साथ, मामलों से जुड़े प्रमुख सार्थक मुद्दों से बच निकलता है.

चूंकि वो कोर्ट के सामने सरकार का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए ऐसे तमाम हमलों को, ख़ुद कोर्ट की संस्थागत ईमानदारी पर हमले के रूप में देखा जा सकता है.

साल्वे को क़ानून सीखने की ज़रूरत

एक नौसीखिया वकील भी जानता है कि अदालतों और उनके फैसलों की आलोचना करना ठीक है, बशर्ते कि आप उनकी: मंशा पर सवाल न उठाएं.

कई साल पहले एक नौजवान रिपोर्टर के नाते, पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट कवर करते हुए, मुझे अदालत से एक अवमानना नोटिस मिला था. एक आसीन जज के बारे में जानकारी की पुष्टि करने के आरोप में, मेरे ख़िलाफ अदालत की अवमानना की कार्यवाही शुरू की गई थी.

अपने जवाब में मैंने बहुत सम्मान के साथ कोर्ट से कहा, कि मैं अदालत की महिमा के सामने नत मस्तक हूं, लेकिन मैं बिना शर्त माफी नहीं मांगूंगा, क्योंकि मैंने कुछ ग़लत नहीं किया था, भले ही कोर्ट ने उसे कथित तौर पर अवमानना समझा.

कई सुनवाईयों के बाद, बेंच ने मुझे छोड़ दिया. लेकिन फैसला लिखने वाले जज, जस्टिस राजीवे भल्ला द्वारा उद्धृत लॉर्ड डेनिंग के शब्द मुझे हमेशा के लिए याद रह गए.

लॉर्ड डेनिंग ने कहा था, ‘मुझे एकायक ही कहने दीजिए, कि हम इस अधिकारक्षेत्र (कोर्ट की अवमानना) का इस्तेमाल, अपना ख़ुद का गौरव बढ़ाने के लिए कभी नहीं करेंगे. उसे बहुत ही विश्वसनीय बुनियादों पर खड़ा होना चाहिए. ना ही इसका इस्तेमाल हम उन्हें दबाने के लिए करेंगे, जो हमारे ख़िलाफ़ बोलते हैं. हम आलोचना से नहीं डरते, ना ही हम उससे नाराज़ होते हैं. चूंकि कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण है जो दांव पर लगा है. वो और कुछ नहीं, बल्कि बोलने की आज़ादी है.

साल्वे के लिए अच्छा होगा कि वो लॉर्ड डेनिंग के आगे के शब्द याद कर लें: “ये हर आदमी का अधिकार है, संसद के भीतर या उसके बाहर, प्रेस में या प्रसारण में, कि वो जनहित से जुड़े मुद्दों पर जायज़ टिप्पणी करे, चाहे वो टिप्पणी मुखर ही हो. जो लोग टिप्पणी करते हैं, वो ईमानदारी के साथ इस बात से निपट सकते हैं, कि इंसाफ़ की अदालत में क्या होता है. वो कह सकते हैं कि हम ग़लत हैं, और हमारे फैसलों में ख़ामियां हैं, भले ही उनके ख़िलाफ अपील हो सकती हो कि नहीं.”

1936 में, लॉर्ड एटकिन ने कहा: ‘इंसाफ अपने आप में एक तनहा गुण नहीं है; उसे आम लोगों की छान-बीन, और मुखर लेकिन सम्मानजनक टिप्पणियों को भुगतने देना चाहिए.’

बरसों बाद, 1964 में, 1964 के स्पेशल रेफरेंस नम्बर 1 में, लॉर्ड एटकिन की चेतावनी को याद करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘…बुद्धिमान जज कभी नहीं भूलते, कि उनके ऑफिस का गौरव और रुतबा बनाए रखने का, सबसे अच्छा तरीक़ा यही है, कि लोगों के सम्मान के योग्य बनें, अपने फैसलों की क्वालिटी से, अपनी निडरता से, अपने नज़रिए की ईमानदारी और निष्पक्षता से, अपने संयम, गौरव और शिष्टता के साथ, जो वो अपने न्यायिक आचरण में दिखाते हैं.’

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनका निजी विचार है)

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