राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के अध्यक्ष शरद पवार तथा चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बीच सोमवार को हुई मुलाक़ात और मंगलवार को विपक्षी दलों की बैठक ने 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा विरोधी ‘तीसरे मोर्चे’ के गठन की चर्चाओं को एक बार फिर तेज कर दिया है. लेकिन, जिस तीसरे मोर्चे के गठन की बात की जा रही है उसकी अवधारणा में ही खोट है और उसकी सफलता संदिग्ध है. भारत में विपक्ष को एक ऐसे दमदार नेता की जरूरत है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को टक्कर दे और उन्हें शिकस्त दे सके, न कि किसी विचार या विचारधारा से प्रेरित किसी बेमानी हो चुके तीसरे अथवा वैकल्पिक मोर्चे की. बिना चेहरे के आपस में एक-दूसरे का हाथ हड़बड़ी में थाम कर भला कितनी दूर तक जा पाएंगे.
तीसरा मोर्चा कई कारणों से एक कमजोर ढांचा लगता है.एक तो यह कि इसके मूल में है मोदी विरोधी भ्रामक-सी भावना. दूसरा, यह इस तथ्य को भूल जाता है कि एकमात्र सच्ची अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस को अलग रखना अव्यावहारिक है. और तीसरा, वह मतदाताओं को उस चीज से वंचित कर सकता है जो उसे इन दिनों हासिल थी और वह चीज है स्थिरता.
तीसरा मोर्चा : सफलता संदिग्ध
तीसरे मोर्चे के विचार की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह शुद्ध रूप से मोदी विरोध-वाद पर आधारित है. इसके पीछे इस बात को लेकर कोई दृष्टि या आमराय नहीं है कि मोर्चे का नेतृत्व कौन करेगा और मोदी के खिलाफ किस अखिल भारतीय चेहरे को खड़ा किया जाएगा.
जिसे मोदी की हार कहा जा सकता है उसके दो ताजा उदाहरण हैं 2020 का दिल्ली विधानसभा चुनाव और 2021 का पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव. दोनों चुनावों में मोदी-अमित शाह के विजेता जोड़ी को परास्त किया बेहद लोकप्रिय जननेताओं अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने. केजरीवाल ने अपनी अनूठी राजनीति के बूते दिल्ली पर अपना कब्जा बनाए रखा, तो ममता ने जमीन से अपने जुड़ाव और बड़े जतन से तैयार किए गए जनाधार के बूते बंगाल में भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया.
इसकी तुलना मोदी का मुक़ाबला करने और मतदाताओं को अपने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ मुहिम से रिझाने की कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की कोशिशों से कीजिए जिनका कोई विशेष लाभ नहीं मिला है. इसकी वजह यह है कि गांधी परिवार के वारिस में व्यक्तिपूजा वाला वह आकर्षण नहीं है जो दौड़ में उन्हें मोदी से आगे ले जा सके.
यही वजह है कि तीसरा मोर्चा या कोई और मोर्चा एक छलावा लगता है. इसका नेतृत्व कौन करेगा? क्या प्रधानमंत्री पद का इसका कोई उम्मीदवार घोषित होगा? मोदी के मुक़ाबले में विपक्ष का चेहरा कौन बनेगा?
इस मोर्चे में कौन-कौन-सी पार्टियां शामिल होंगी? कल्पना के लिए मान लें कि केजरीवाल को चेहरा बनाया गया, तो क्या ममता मान जाएंगी, या अगर उद्धव ठाकरे चेहरा बने तो जगन रेड्डी मान जाएंगे? ये सारे ऐसे बेहद कठिन सवाल हैं जिनके जवाब जल्दी या आसानी से नहीं मिलते.
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इसके अलावा, तीसरे मोर्चे का मतलब है गैर-भाजपाई, गैर-कांग्रेसी मोर्चा. दो अखिल भारतीय दलों लोकसभा में 272 से ज्यादा सीटें जीतना सच से परे है. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 38 फीसदी वोट हासिल किए और कांग्रेस ने 20 प्रतिशत, गणित साफ है.
स्थिरता का सवाल
मोदी ने अपनी साफ-सुथरी और ‘मजबूत नेता’ वाली छवि के साथ फिर से ‘स्थिरता’ का दौर ला दिया. स्पष्ट बहुमत, आसानी से फैसले लेने की क्षमता, शासन पर पूरा नियंत्रण, और रोज-रोज के मामलों में सहयोगी दलों के साथ कोई खिचखिच नहीं- मोदी दौर की पहचान बन गए. कोविड महामारी से निबटने में कमजोरी को अलग रखें, तो प्रधानमंत्री के रूप में अपने सात सालों में मोदी ने दिखा दिया है कि वे ‘फैसले लेने वाले’ नेता हैं और विवादास्पद फैसले करने के लिए भी वे किसी के मोहताज नहीं हैं, चाहे यह नोटबंदी का फैसला हो या अनुच्छेद 370 को रद्द करने या ‘सर्जिकल’ हमले करने या बालाकोट हवाई हमले करने या कृषि कानून बनाने का. मतदाताओं को उन्होंने अपनी निर्णय क्षमता का कायल बनाया है.
दूसरी ओर, तीसरा मोर्चा 1990 के दशक की याद दिला देता है जब सरकारें अलग-अलग दलों की मनमानी के
कारण ताश के पत्तों की तरह गिरती रहती थीं. भारत ने स्थिर गठबंधन सरकारों का दौर नहीं देखा था. याद
कीजिए कि वाम मोर्चा अमेरिका के साथ परमाणु संधि के मसले पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से
किस तरह अलग हो गया था और अनिश्चिता तथा संशय का दौर झेलना पड़ा था.
बहुत पीछे जाने की भी जरूरत नहीं है. तरह-तरह के गुटों को जोड़कर बनाया गया गुट एक मुश्किल गठबंधन का किस तरह परिचय बन सकता है इसका सटीक उदाहरण महाराष्ट्र की वर्तमान ‘महा विकास आघाडी’ सरकार है, जो दृढ़ता की कमी उजागर करती है. कल्पना कीजिए कि बिना किसी घोषित नेता वाला, कई दलों को मिलाकर बना एक बड़ा राष्ट्रीय गठबंधन मतदाताओं को कितना अस्थिर और भ्रमित लग सकता है.
‘ज्यादा जोगी, मठ उजाड़’ वाली कहावत घिस चुकी है, लेकिन किसी वैकल्पिक मोर्चे के विचार के लिए फिट बैठती है. मोदी कोई साधारण रसोइया नहीं हैं, वे ‘शेफ द कूजीं’ हैं और काफी कुशल भी. उनका मुक़ाबला किसी लज़ीज़ व्यंजन पेश करके नहीं किया जा सकता, इसके लिए तो कोई दूसरा ‘शेफ द कूजीं’ चाहिए, जो वोटरों को यकीन दिला सके कि वह उन्हें उस व्यंजन का मजा भी देगा.
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