जेएनयू में फीस बढोतरी को लेकर हुए प्रतिरोध को आईए, सुनीता की कहानी के सहारे समझने की कोशिश करते हैं. पल भर को मान लें कि सुनीता एक आम भारतीय लड़की है. वह एक जिला मुख्यालय से लगते गांव में रहती है. सुनीता के पिता एक आम भारतीय किसान हैं जिनके पास तकरीबन तीन एकड़ की खेती-बाड़ी की जमीन है ( भारत में भू-जोतों का औसत आकार 2.8 एकड़ है). सुनीता की मां परिवार के पालन-पोषण के काम में लगी रहती हैं और घर में पाली गई भैंसों की भी देखभाल करती हैं. यह कुल पांच जन का परिवार (भारत में परिवार-जन का औसत 4.45 सदस्यों का है) है जिसमें सुनीता की दादी और 10वीं कक्षा में पढ़ने वाला एक छोटा भाई भी शामिल है. सुनीता पढ़ाई-लिखाई में खूब तेज है और उसने अपने कॉलेज में बी.ए. की परीक्षा में शीर्ष मुकाम हासिल किया है. सुनीता ने अपने कॉलेज के जलसे में एक मैडम को देखा और उसी रोज से उसने तय कर लिया कि ‘मैडम’ ही की तरह उसे आईपीएस ऑफिसर बनना है. सुनीता अपने इस सपने को पूरा करने के लिए जेएनयू से एम.ए. करना चाहती है.
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सुनीता की यह कहानी कोई अपवाद नहीं और ना ही सुनीता कोई गैर-मामूली लड़की कही जायेगी. सुनीता उन लाखों भारतीयों में एक है जो अपने परिवार की पहली पीढ़ी के तौर पर उच्च शिक्षा की दुनिया में कदम रखना चाहती हैं और अपने आर्थिक-सामाजिक परिवेश के लिहाज से बहुधा गरीब, ग्रामीण तथा बड़े हद तक दलित, आदिवासी, मुस्लिम या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग सरीखे हाशिए के समुदाय से हैं. जरूरी नहीं कि उच्च शिक्षा हासिल करने की इस ललक का रिश्ता ज्ञानार्जन से उनके लगाव की देन हो. बात बस इतनी भर है कि सुनीता सरीखे विद्यार्थियों और उनके परिवार को देर-सबेर ये बात पता लग चुकी है कि अगर पढ़ाई की बी.ए.-एम.ए. सरीखी कोई डिग्री हासिल कर ली जाये तो फिर देश के मध्यवर्ग में शामिल होने का उनका सपना पूरा हो जायेगा. पिछले साल अपने देश में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद 3.74 करोड़ थी. इस तादाद में सालाना 6 लाख छात्रों की बढ़ोतरी हो रही है. हमारी इस कहानी की मुख्य किरदार सुनीता उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाली उन 11 फीसद विद्यार्थियों में एक है जो स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी कर इससे ऊंची शिक्षा के लिए आगे बढ़ पाते हैं और उम्मीद पालते हैं कि उस पढ़ाई के आधार पर उन्हें कोई ‘अच्छी’ मानी जाने वाली नौकरी मिल जायेगी.
तो फिर सुनीता को अपना सपना पूरा करने के लिए क्या करना होगा ? हमारे संविधान की प्रस्तावना में अवसरों की समानता की बात दर्ज है सो सुनीता को नागरिक होने के नाते संविधान का ये वादा हासिल है. सुनीता को अपने परिवार को हासिल साधन, अपने लिंग या वास-स्थान से निर्धारित होने वाली स्थितियों की फिक्र ना करते हुए अपनी काबिलियत के आधार पर ये उम्मीद पालनी चाहिए कि उच्च शिक्षा हासिल करने का उसका संकल्प पूरा हो जायेगा. लेकिन सचमुच क्या ऐसा हो पायेगा ?
फीस बढ़ोतरी का घर के बजट पर असर
हमारी कहानी की मुख्य किरदार सुनीता का परिवार गरीब तो है लेकिन ऐसा भी गरीब नहीं कि उसे बीपीएल यानि गरीबी रेखा से नीचे का परिवार माना जाये. सुनीता का परिवार गांव में एक सम्मानित किसान-परिवार माना जाता है. खेती-किसानी के अलावा उसके परिवार ने भैंस पाल रखी है जिससे परिवार का खर्चा चलाने के लिए जरूरी अतिरिक्त आमदनी हो जाती है. पिछले साल इस परिवार की मासिक आमदनी 9350 रुपये रही थी ( नेशनल सैंपल सर्वे का नया आकलन कहता है कि भारत के ग्रामीण अंचल में प्रति व्यक्ति प्रति माह औसत खर्च 1,446 रुपये का है. इस आंकड़ें को सुनीता के परिवार की सदस्य-संख्या 5 से गुणा करके आधार-वर्ष को ध्यान में रखते हुए मुद्रास्फीति के हिसाब से मेल में करके यहां दर्ज किया गया है). मान लीजिए कि इस साल सुनीता के परिवार की मासिक आमदनी बढ़कर 10,000 रुपये यानि 1.20 लाख रुपये सालाना हो जाती है.
अब जरा इस बात पर गौर करें कि जेएनयू (आप चाहें तो यहां हैदराबाद विश्वविद्यालय का भी उदाहरण ले सकते हैं) में एम.ए. की पढ़ाई के लिए सुनीता को क्या खर्च उठाने होंगे.
सुनीता का परिवार जैसा है उस श्रेणी का आम ग्रामीण परिवार अपने मासिक खर्चे का 50 फीसद भोजन पर खर्च करता है. कपड़े-लत्ते, घर में रोजमर्रा के बरताव के अन्य जरुरी सामानों, बिजली तथा आवागमन के साधन पर ऐसे परिवार की मासिक आमदनी का 30 प्रतिशत हिस्सा खर्च हो जाता है. ऐसे में परिवार के पास शिक्षा, दवाई तथा अन्य सेवाओं और किसी आकस्मिक खर्चे को पूरा करने के लिए सालाना मात्र 24,000 रुपये बचते हैं. सुनीता के परिवार को उसके छोटे भाई की पढ़ाई पर सालाना 3,600 रुपये खर्च करने होते हैं क्योंकि वह घर के पास के सरकारी स्कूल में पढ़ता है. परिवार चाहता है कि बेटा नजदीक के प्रायवेट स्कूल में पढ़े और प्रायवेट स्कूल में पढ़ाई करने पर उसकी पढ़ाई पर 7,800 रुपये सालाना का खर्चा आयेगा (आंकड़ा एनएसएसओ के परिवारों के मासिक खर्चे पर केंद्रित नई रिपोर्ट से है).
क्षण भर को मान लें कि आप सुनीता के माता-पिता हैं और फिर अपने घरेलू बजट की कल्पना करें. हम यहां मानकर चल रहे हैं कि आपको शिक्षा की लागत के बाबत आये सरकार के नये सर्वेक्षण की जानकारी है. इस सर्वेक्षण के मुताबिक सुनीता अगर अपने घर पर रहते हुए नजदीक के सरकारी कॉलेज से पढ़ाई करने का तय करती है तो उसकी पढ़ाई पर परिवार को 13,000 रुपये सालाना खर्च करने होंगे और मुकामी प्रायवेट कॉलेज से पढ़ाई करने का फैसला करती है तो सालाना खर्चा 17,000 रुपये का बैठेगा. अगर सुनीता बाहर जाकर पढ़ाई करें और हॉस्टल में ठहरे तो फिर यह खर्चा दोगुना बढ़ जायेगा.
इस हिसाब से जेएनयू में पढ़ाई का सालाना खर्चा 32,000 रुपये होता और किसी अन्य सरकारी विश्वविद्यालय में पढ़ने का सालाना खर्च तकरीबन 50,000 रुपये.
अब आप खुद ही देखें कि जेएनयू में हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करने वाले छात्र की फीस सालाना 32,000 रुपये से बढ़ाकर 56,000 रुपये कर देने पर सुनीता को जेएनयू भेजने के आपके फैसले पर किस तरह असर पड़ता है (आपके बजट पर अतिरिक्त 20 फीसद का भार बढ़ेगा)
स्कॉलरशिप भी पर्याप्त नहीं
और, यहां ध्यान रखें कि हम कोई गरीबी रेखा से नीचे के परिवार के बारे में बात नहीं कर रहे. सुनीता तो दरअसल भारत के गांवों में बस रहे सामान्य परिवारों की है और ये परिवार ग्रामीण भारत के 50 फीसद परिवारों से कहीं बेहतर स्थिति में हैं.
सुनीता को अपना सपना पूरा करने के लिए कुछ अतिरिक्त पाठ्यक्रम लेने, कोचिंग या फिर ट्यूशन करने की जरुरत होगी. इस पर भी खर्चा आयेगा लेकिन इस खर्चे को यहां हम नहीं जोड़ रहे. सुनीता बी.टेक या फिर बैचलर डिग्री इन आयुर्वेदिक मेडिसीन एंड सर्जरी मतलब बी.ए.एम.एस जैसे तकनीकी या फिर किसी पेशेवर पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की बात नहीं सोच रही. ऐसे पाठ्यक्रम में दाखिला लेने पर सुनीता को साधारण से इंस्टीट्यूट में भी सालाना 50000 रुपये चुकाने होंगे जिसमें हॉस्टल में रहने की फीस शामिल नहीं है. बहुत संभव है, आपने या फिर सुनीता के माता-पिता ने आम ढर्रे के प्रायवेट कॉलेजों के बारे में खास ना सुन रखा हो जहां बच्चों को पढ़ाने का खर्चा सालाना 2 लाख रुपये है और उन एलीट किस्म की प्रायवेट यूनिवर्सिटियों की बात तो खैर यहां छोड़ ही दें जहां बच्चों की पढ़ाई का खर्चा सालाना 8-10 लाख रुपये आता है.
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लेकिन अभी हमने छात्रवृत्तियों की बात तो सोची ही नहीं—उच्च शिक्षा के संस्थानों में विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप भी मिलती है. इसके लिए आपको नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल को खंगालना होगा. बेशक, सुनीता को केंद्र सरकार की तरफ से फराहम की जा रही स्कॉलरशिप मिल जायेगी. इस स्कॉलरशिप के सहारे सुनीता को 20,000 रुपये सालाना की रकम हासिल हो जायेगी. लेकिन यहां एक मुश्किल ये है कि स्कॉलरशिप पाने के लिए सुनीता को 12वीं की परीक्षा के वक्त ही आवेदन कर देना चाहिए था यानि वो स्कॉलरशिप के लिए आवेदन डालने के मामले में तीन साल पीछे हो गई है. और, यह भी ध्यान रखें कि ये स्कॉलरशिप हर साल मात्र 82 हजार छात्रों को हासिल होती है. भारत सरकार के सभी मंत्रालयों द्वारा उच्च शिक्षा को लक्ष्य कर स्कॉलरशिप के नाम पर दी जा रही राशि को आप एक साथ जोड़ दें तो ये रकम 1801 करोड़ रुपये की आती है. (हर साल उच्च शिक्षा को लक्ष्य कर तकरीबन 1.4 लाख स्कॉलरशिप दी जाती है जो केंद्र सरकार के शिक्षा के बजट का 2.6 फीसद है. साल 2014-15 में जितने छात्रों उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में दाखिला लिया उनमें से 2 फीसद से भी कम छात्रों को यह स्कॉलरशिप हासिल हुई. अगर स्कॉलरशिप के नाम पर दी जा रही इस राशि को आप साल 2014-15 में उच्च शिक्षाके पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले सभी छात्रों में बांटें तो प्रति छात्र सालाना मात्र 527 रुपये की राशि आयेगी. पूंजीवादी देश कहलाने वाले अमेरिका में प्रायवेट यूनिवर्सिटी जितनी रकम अपने छात्रों को स्कॉलरशिप के जरिये फराहम करती हैं उतनी भी रकम समाजवादी ढर्रे का लोकतंत्र कहलाने वाले भारत में छात्रों को नहीं मिलती.
तो फिर उपाय क्या है ?
सुनीता के माता-पिता को अगर देश की उच्च शिक्षा के बाबत नीति बनाने का मौका मिले तो उन्हें इसमें क्या विधान करना चाहिए ? मुझे पक्का यकीन है कि वे नीचे लिखी जा रही चार बातें जरुर ही करना चाहेंगे:
1. शिक्षा का खर्च इतना भर होना चाहिए कि सुनीता के परिवार सरीखा कोई भी परिवार बाआसानी यह भार उठा सके. अगर हम संविधान प्रदत्त इस वादे के प्रति सच्चे हैं कि हर एक नागरिक को अवसरों की समानता हासिल होगी तो फिर ट्यूशन फीस तथा अन्य शुल्क जहां तक संभव हो न्यूनतम रखे जाने चाहिए. निजी संस्थानों में जो फीस वसूली जाती है उसपर भी कारगर तरीके से अंकुश रखा जाये. उच्च शिक्षा को धनउगाही का धंधा ना बनाया जाये.
2. स्कॉलरशिप की संख्या तथा उसमें दी जाने वाली रकम में भारी इजाफा होना चाहिए. शीर्ष स्तर के कम से कम 10 फीसद विद्यार्थियों चाहे वे जिस भी समुदाय और जाति के हों तथा शैक्षिक रुप से वंचित समुदायों के कम से कम 25 फीसद विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप के रूप में इतनी रकम मिलनी चाहिए कि उससे ट्यूशन फीस तथा खाने-रहने का पूरा खर्चा चल जाये .
3. अन्य विद्यार्थियों के लिए तनिक उदार-नीति अपनाते हुए ‘पढ़ाई-कमाई एक साथ’ की योजना चलायी जानी चाहिए. इस योजना के तहत विद्यार्थी अपनी संस्था के भीतर ही हर हफ्ते अधिकतम 20 घंटे का काम करें और उन्हें इतनी रकम मिल जाये कि वे अपना मेस बिल चुका सकें.
4. फिलहाल छात्रों के लिए बैंक से कर्ज फराहम करने की जो योजनाएं चलायी जा रही हैं उनमें बुनियादी तौर पर सुधार करने की जरूरत है. सरकार को चाहिए कि वो छात्रों को दिये जा रहे कर्ज की जामीन बने और वसूले जा रहे सूद की दर 7 फीसद के आस-पास रखी जाये जितनी कि किसानों से किसान क्रेडिट कार्ड पर वसूली जाती है. कर्ज का भुगतान समय पर किया जा रहा है तो कुछ और रियायत दी जानी चाहिए.
सुधार के ये कदम ना तो नये हैं और ना ही क्रांतिकारी किस्म के. बीते वक्तों की संस्था योजना आयोग ने प्रोफेसर पंकज चंद्रा की अध्यक्षता में एक समिति बनायी थी. पंकज चंद्रा उन दिनों आईआईएम बंगलोर के निदेशक थे. इस समिति ने साल 2012 में कमोबेश ऐसे ही सुझाव दिये थे. लेकिन समिति के सुझावों पर आगे ना तो यूपीए सरकार ने गौर फरमाया और ना ही एनडीए की सरकार ने.
अगर आप सुनीता सरीखे विद्यार्थी के माता-पिता हैं तो फिर आपको जेएनयू के छात्रों का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने फीस बढ़ोत्तरी का मसला उठाया. साथ ही, आपको प्रार्थना करनी चाहिए कि उनके प्रतिरोध के नतीजे के तौर पर बात इतने भर पर ना सिमटकर रह जाये कि जेएनयू में हुई फीस बढोत्तरी वापस ले ली गई. आप ये बात तो जानते ही होंगे कि अक्सर सताये हुए लोग नहीं बल्कि समस्या की पहचान करके उसे सही जुमला और जामा पहनाने वाले भुक्तभोगी अपने वक्त के वास्तविक और अहम मसलों को मंजर-ए-आम पर कामयाबी के साथ लाते हैं. ‘मी टू’ प्रकरण में ऐसा ही हुआ था. फीस बढ़ोत्तरी को लेकर जेएनयू में जो प्रतिरोध हुआ उससे परे जाते हुए आपको मामलो को उसके तह में जाकर देखना होगा. उच्च शिक्षा पाने की ललक लोगों में विस्फोटक ढंग से बढ़ी है और ठीक ऐसे ही वक्त में उच्च शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि उसका खर्चा उठाये नहीं बन रहा. हमारी शिक्षा नीति को इस जरूरी मसले का समाधान निकालना चाहिए. समाधान मौजूद है लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नदारद.
आप इस लेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप सुनीता के माता-पिता नहीं हैं लेकिन क्या हमें सुनीता का माता-पिता बनकर नहीं सोचना चाहिए ?
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(लेखकराजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)
The Print is a biased platform who has the potential to speak rubbish in the democratic society and exercises the Freedom of Speech And Expression very efficiently to prove themselves right. Why only JNU we have other educational institutions where the Fee is much more than JNU,be in Lakhs but still students are studying those courses without any protest. JNU is not the place where only economically weaker are studying. Many students are paying more than JNU fee for just accomodation only in the same DELHI leave the other expenses maybe by selling their complete asset just to do something good for society. And believe me JNU is loosing its reputation and dignity because of these kinds of their students behaviour. The Print, Quint, NDTV and few more are there who can do anything to spread things to defame the govt. And seriously we Indian don’t take you people seriously. So be Serious before writing anything
सुनीता की पढ़ाई का खर्चा मैं उठने को तैयार हूं, और सुनीता के जैसे बाकी लड़की, कड़को की पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए लोगो को में सामने लयूंगा, लेकिन बदले में मुझे देशद्रोही, नशेडी, आवारा, बदचलन, नालायक किशम के छात्र/छात्रा जेल में देखने हैं।
सच्चाई के रास्ते पर चलने का दम हैं तो जवाब जरूर देना।
Viajy Kumar: ab tak kitno ko kiya hai support?
Faaltu ka lekh likha hai aapne………school ki education aur fee itni mehangi hai ispe sab ka dhyan hona chahiye………fir jnu me to uchh siksha k liye log jaate hai,fee to mehangi honi hi chahiye…….ye lekh rajniti se prerit hai…….