मुसलमानों का त्योहार बक़रीद (ईद-उल-अजहा) आने वाली है, और इसमें जानवरों की क़ुर्बानी करने की प्रथा पर बहस सोशल मीडिया पर एक बार फिर छिड़ गई है. हर साल की तरह इस साल भी जानवारों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता ईद-उल-अजहा में होने वाली क्रूरता और हिंसा के विरोध में आवाज उठा रहे हैं. इन सबके जवाब में मुसलमानों का कहना यह है कि भारत में नियमित मांसाहार करने वाले बहुमत में हैं और वैसे भी हर दिन जानवरों को काटा जा रहा है.
खूनी मंज़र
मांसाहार के लिए जानवरों की हत्या को लेकर कभी सवाल नहीं उठाए जाते. लेकिन उनकी हत्या के कारण बनने वाले खूनी मंजर को लेकर सवाल उठाया जाता है. जिन जगहों पर जिन जानवरों की हत्या कानूनी रूप से प्रतिबंधित है वहां भी इन जानवरों को खुलेआम बेचा जाता है और आम रास्तों पर उनकी हत्या की जाती है. उनके आंतरिक अंगों के टुकड़ों और खून से रास्ते पटे होते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि यह सब बेहद गंदा और घिनौना लगता है. यह एक जुर्म भी है, जो आम लोगों की संवेदनाओं, भलमनसाहत के खिलाफ अक्सर जानबूझकर किया जाता है.
भारतीय उपमहादेश में और दूसरे मुस्लिम तथा खासकर अरब देशों में बक़रीद जिस तरह मनाई जाती है उनमें बहुत फर्क है. दूसरे देशों में यह एक रस्म की तरह मनाई जाती है, जबकि यहां यह त्योहार के रूप में मनाई जाती है. वहां वह शांति के साथ ऐसे गुजर जाती है कि पता भी नहीं चलता, कुर्बानी वाले जानवर पर दौलत लूटाने का खुला प्रदर्शन नहीं किया जाता और क़ुर्बानी के बाद जानवर के अंग बिखरे नहीं होते जिससे लोगों को कोई असुविधा नहीं होती. इस काम के लिए बूचड़खाने बने होते हैं या जगह निर्धारित होती है. मांस के वितरण और कचरे के निबटारे की व्यवस्था होती है. भारत की तरह वे सड़कों-गलियों, छतों, बरामदों में क़ुर्बानी नहीं देते और कव्वों तथा आवारा कुत्तों के लिए कचरा खुले में नहीं छोड़ देते कि वे उसे और फैला दें.
भारत के मुसलमान ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बना सकते? जो लोग जानवरों की क़ुर्बानी पर लाखों खर्च करते हैं वे ऐसी सुविधाएं तो बना ही सकते हैं. बक़रीद को भारत में शायद दिखावे के आयोजन के रूप में मनाया जाता है. इतिहास की दृष्टि से देखें तो इस पर्व के साथ जुड़े सत्ता समेत वर्चस्व के संकेत हिंदुओं पर धौंस जमाने और मुस्लिम राज को मजबूती देने के सांस्कृतिक हथियार के तौर इस्तेमाल किए जाते रहे. भारत में मुस्लिम राज की शुरुआत से ही बक़रीद सियासत और ताकत का त्योहार रहा, जो हिंसा की हमेशा तैयारी का संदेश देता था.
आज भी लोगों को यह बात करते सुना जाता है कि किस जगह पर कितनी कुर्बानियां दी गईं और यह संख्या उस जगह पर मुसलमानों की हैसियत का जायजा देती है. जानवरों की क़ुर्बानी के साथ हिंसा और वर्चस्व का तत्व कितनी गहराई से जुड़ा है इसकी एक मिसाल मेरे एक व्यक्तिगत अनुभव से मिलती है. जब मैं बच्चा था तब मुझे क़ुर्बानी की क्रिया को देखने की हिदायत दी जाती थी क्योंकि इससे मेरा ‘दिल मजबूत होगा’. मेरा ख्याल है, यह हिंसा से बेअसर रहने का एक पाठ था.
गाय को लेकर मूल सियासत
बक़रीद के साथ सियासत किस हद तक जुड़ी है, यह इसके नाम से ही जाहिर है. इसका असली नाम है ईद-उल-अजहा (अरबी बोली में) या ईद-उल-अज़हा (भारतीय बोली में). बक़रीद पूरी तरह से भारतीय नाम है. (इसमें जो ‘क़’ है वह अरबी के ‘क’ का उच्चारण है). बक़र का अरबी में अर्थ है गाय. क़ुरान में दूसरे और सबसे लंबे सूरा का शीर्षक है ‘अल-बक़रा’. इसलिए बक़रीद का अर्थ है गाय की ईद, वह त्योहार जिसमें गाय की क़ुर्बानी दी जाती है.
तो भारतीय उपमहादेश में इसका नाम बक़रीद कैसे हो गया?
मुस्लिम राज में मंदिरों के विध्वंस के अलावा गोवध को हिंदुओं का मनोबल हमेशा के लिए तोड़ने के उपाय के रूप में संस्थागत रूप दे दिया गया. जिन लोगों को मुसलमान बनाया गया उन्हें बार-बार गोमांस खाने के इम्तिहान से गुजरना पड़ता था. धर्म बदलने की यही अग्निपरीक्षा थी. इस्लाम कबूलने के लिए गोमांस खाने के अलावा दूसरा कुछ करने की जरूरत नहीं होती थी. गोमांस खाते ही वे सबसे बड़ी बाधा को पार कर लेते थे, अपनी जाति गंवा देते थे और अपने समाज से तमाम रिश्ते तोड़ लेते थे. वे हमेशा के लिए बहिष्कृत हो जाते थे और घर वापसी कभी नहीं कर सकते थे. इसलिए, धर्म बदलने वालों के बीच गोमांस खाने को एक आदत के रूप में प्रोत्साहित किया जाता था.
और गोमांस के उपभोग के प्रसार का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है कि बड़े पैमाने पर गोवध के लिए एक त्योहार ही शुरू कर दिया जाए और उसका नाम उस निरीह पशु के नाम पर रख दिया जाए. भारत के मुसलमानों में गोमांस को लेकर जितना आकर्षण है उतना किसी और देश के मुसलमानों में नहीं है, और कहीं भी गोवध इस्लामी त्योहार के अनुष्ठान का हिस्सा नहीं है.
यह विडंबना और भी तीखी है. इस्लाम में न तो गाय को कोई महत्व दिया गया है और न इसकी क़ुर्बानी को. लेकिन ईद-उल-अज़हा में क़ुर्बानी को मुसलमानों के लिए वैधानिक रूप से जरूरी, यानी एक फर्ज़ बताया गया है. हर एक धारा के इस्लामी कानून में इसे ‘सुन्नत’, यानी पैगंबर मुहम्मद की एक गैर-बाध्यकारी प्रथा माना गया है. इसे ‘नफ़्ल’ यानी स्वैच्छिक किस्म की प्रथा माना गया है. हनफी मत भी इसे केवल ‘वाजिब’ यानी फर्ज से नीचे के दर्जे की प्रथा मानता है. लेकिन यह वैधानिक तब बन जाती है जब कोई व्यक्ति मुख्य हज के साथ उमराह (कम महत्वपूर्ण हज) भी करता है.
क़ुर्बानी का नया रूप
दरअसल, सियासत ने ही क़ुर्बानी को हरेक ‘साहिब-ए-निसाब’ (वित्तीय रूप से सक्षम व्यक्ति) के लिए फर्ज़ बना दिया. लेकिन उस तरह की सियासत के दिन अब लद गए हैं तो इस्लाम को इससे मुक्त करने और आज के युग की नैतिकतावादी जरूरतों के हिसाब से नया रूप देने की जरूरत है.
इसलिए पहला बदलाव तो यह किया जाए कि इसका बक़रीद नाम खत्म किया जाए या इसमें बड़ी काफ़ को उच्चारित करने वाला जो ‘क़’ है उसकी जगह छोटी काफ़ के ‘क’ का इस्तेमाल किया जाए. इससे इसका अर्थ बदल जाएगा और यह ‘बकरी का त्योहार’ बन जाएगा, जैसा कि गाय और बकरी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अक्षर की समानता की वजह से माना जाता है.
क़ुर्बानी की नई व्याख्या
शब्दार्थ विज्ञान और स्वर विज्ञान को छोड़ दें तो क़ुर्बानी की अवधारणा में भी सुधार की जरूरत महसूस की जाती रही है. इस्लामी परंपरा के मुताबिक, ईद-उल-अज़हा त्योहार दरअसल अल्लाह के हुक्म पर पैगंबर इब्राहिम द्वारा अपने बेटे की क़ुरबानी की तैयारी को याद करने के लिए मनाया जाता है. खुदाई मर्जी के आगे पूरे दिल से क़ुर्बानी किए जाने से खुश होकर अल्लाह ने उन्हें औलाद के कत्ल के गुनाह से बरी कर दिया और क़ुर्बानी के लिए उनके बेटे की जगह एक भेड़ को खड़ा कर दिया. यह कहानी बताती है कि इस मजहब में किस तरह से बदलाव आया और एक मनुष्य की क़ुर्बानी की जगह जानवर की क़ुरबानी दी जाने लगी.
अवधारणा के मुताबिक, क़ुर्बानी का अर्थ हत्या नहीं था. इसका अर्थ था अपनी सबसे मूल्यवान चीज—अपनी जिंदगी, बेटे की ज़िंदगी, या अपनी संपत्ति— अल्लाह को भेंट करना. कृषि प्रधान समाजों में पशु संपत्ति माने जाते थे. अलग-अलग भाषाओं में इसके जो शब्द इस्तेमाल किए जाते थे वे आर्थिक संकेत करते थे. मवेशी या पशुओं को धन माना जाता था. उत्तर भारत के किसान मवेशी को ‘माल’ कहते रहे हैं.
क़ुर्बानी के जो प्राचीन मूल्य थे वे हत्या या संपत्ति के विनाश में निहित नहीं थे, बल्कि अपनी संपत्ति को अपने लोगों में बांटकर खुदा की सेवा करने से जुड़े थे. अभावों से ग्रस्त समाज में खाद्य सामग्री का दान परमार्थ का प्रारंभिक रूप था. और मांस का दान मूल्यवान दान माना जाता था. इस तरह जानवर की क़ुरबानी को मान्यता मिली.
लेकिन आज जब कम ही लोग भूखे पेट सोते हैं, तब लोग किसी धनी पड़ोसी से मांस की चंद बोटियों के उपहार की अपेक्षा नहीं करते. ऐसे में इस तरह की प्रथा को क्या गरीबों को खाना खिलाने के नाम पर उचित ठहराया जा सकता है?
आज जब मवेशी मुख्य संपत्ति नहीं है, तब पशुओं की हत्या को क्या क़ुर्बानी माना जा सकता है, खासकर तब जब इस तरह की प्रथा के पीछे यह अवधारणा हो कि इसके तहत अमीर लोग अपने धन में से एक हिस्सा गरीबों के लिए निकालकर अलग रखें? क्या यह व्यक्ति को अल्लाह के करीब ले जाता है, जैसा कि ‘क़ुर्बानी’ शब्द का मतलब लगाया जाता है? यह शब्द अरबी के तीन अक्षरों क़, र, ब, से बना है जिसका अर्थ है करीबी.
गरीबी एक सापेक्षिक शब्द है. आज के दौर में इसका अर्थ भुखमरी नहीं है. विशेषाधिकार से वंचित लोगों को आज शायद अपनी बेटी की शिक्षा के लिए लैपटॉप की, या अपने बेटे के सपने को साकार करने के लिए कुछ पैसे की ज्यादा जरूरत है. उन्हें गर्मी के मौसम में सुकून से सोने के लिए एसी की शायद ज्यादा जरूरत है. ऐसे लोग किसी पड़ोसी से थोड़े से मांस पाने का इंतजार नहीं करते. गरीबी के पैमाने बदल गए हैं. इसलिए दान का अर्थ भी इस लिहाज से बदलना चाहिए कि कम भाग्यशाली लोगों को परेशानियों से मुक्त करने के लिए क्या क़ुर्बानी करने की जरूरत है.
करुणा: क़ुर्बानी का आधार
इसके साथ नैतिकता और दर्शन का प्रश्न जुड़ा है. क्या खुदा के नाम पर किसी का जीवन क़ुर्बान किया जा सकता है? जैन धर्म की तरह कुछ धर्मों में जीवन को पवित्र माना जाता है. इस्लाम में भी भोजन बनाने के लिए पशु की हत्या को सामान्य बात नहीं माना जाता. इसके लिए, सबसे दयालु, सबसे करुणामय अल्लाह की खास मंजूरी चाहिए. इसलिए जानवरों की हत्या की रस्म अल्लाह का नाम लेकर पूरी की जाती है. यह उसे हलाल (स्वीकार्य) बनाता है, वरना यह हराम (निषिद्ध) माना जाता है.
दार्शनिक कार्ल जेस्पर्स बताते हैं कि ईसा पूर्व 8वीं और 3री सदी में करुणा किस तरह धार्मिक नैतिकता का केंद्रीय सूत्र बन गई. उस काल में पूरी दुनिया में चिंतन के नये आयाम उभर रहे थे जिन्होंने धर्म और दर्शन को हमेशा के लिए बदल डाला.
जेस्पर्स ने उस दौर को ‘एक्सियल एज’ नाम दिया.
भारत में उस काल में वैदिक बलि की प्रथा पर जैन तथा बौद्ध धर्म जैसे श्रमणिक परंपराओं के विधर्मी दर्शन की ओर से हमले हो रहे थे. उन्होंने शांति, अहिंसा, और करुणा की एक नई संस्कृति को लोकप्रिय बनाया. वैदिक परंपरा फिर से तब मजबूत हुई जब उसने बलि की प्रथा को त्याग कर अहिंसा और निरामिषता को अपनाया.
आज हम एक और परिवर्तनकारी युग से गुजर रहे हैं. ‘वेगनिज़्म’, निरामिषता का विचार जड़ जमा रहा है. मुस्लिम समुदाय आम तौर पर इस प्रवृत्ति की अनदेखी करता रहा है. लेकिन इस्लाम को अगर प्रासंगिक बने रहना है तो उसे आज जो कुछ चल रहा है उस पर गौर करना होगा. जो दौर पशुओं के खिलाफ हिंसा को अस्वीकार कर रहा है, उसमें क़ुरबानी और बलि आदि आदिम और काल निरपेक्ष प्रथा ही मानी जाएगी.
इतिहास में, धर्मों ने मानव बलि से पशु बलि तक की यात्रा पूरी की. क्या अब उन्हें क़ुर्बानी का नया रूप नहीं गढ़ना चाहिए? क़ुर्बानी की यह प्रथा इस युग में भी जारी रही तो यही साबित होगा कि हम अभी आदिमयुग में ही जी रहे हैं.
क़ुरान में कहा गया है : “जिस जानवर की क़ुरबानी दी गई है उसका मांस या खून अल्लाह तक नहीं पहुंचता; तुम्हारी इबादत ही उस तक पहुंचती है”. (22:37)
इस्लाम अगर हिंसा का पंथ नहीं बनना चाहता, तो उसे क़ुर्बानी की प्रथा को खत्म करना ही होगा.
(इब्न खल्दुन भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नज़रिए से देखते हैं. उनका एक्स हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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