हाल के वर्षों में पेश किए गए बजटों के साथ समस्या यह रही है कि वे बहुत कुछ करते नहीं. बल्कि, इन वर्षों में जो वित्त मंत्री हुए उन्होंने बहुत कुछ करने की कोशिश की. ऐसा केवल कर राजस्व के, जिसका अनुमान पिछले साल (2018-19) में गलत साबित हुआ और इस बार भी ऐसा हो सकता है, मामले में नहीं बल्कि खर्चों के मामले में भी हुआ.
उदाहरण के लिए, इस साल केंद्र सरकार ने ‘स्कीमों’ और परियोजनाओं पर दो साल पहले किए गए खर्च से 48 प्रतिशत ज्यादा खर्च करना तय किया है. इसके लिए पैसा उपलब्ध हो तो भी क्या सरकार के तमाम विभाग इतने बड़े पैमाने पर खर्च कर पाएंगे? बात जब सकल कर राजस्व की आती है, हालांकि आंकड़ें घोषणा के मुताबिक नहीं आए हैं, तो तथ्य यह है कि जीडीपी में इस राजस्व का अनुपात मोदी सरकार के दो कार्यकालों के छह वर्षों में बढ़ता गया है. यह 2013-14 में 10.14 प्रतिशत से बढ़कर इस साल 11.72 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है. इस साल अगर राजस्व में 2 खरब की (यानी 8 प्रतिशत की) कमी आती है, जैसा कि कुछ जानकारों का अनुमान है, तब भी जीडीपी (जिसमें खुद कमी आएगी) में इसका अनुपात 2013-14 वाले स्तर से बेहतर रहेगा, बावजूद इसके कि जीएसटी से उगाही निराशाजनक रही.
दूसरे शब्दों में, जीएसटी के साथ तो समस्या है ही मगर असली समस्या यह है कि बजट काफी महत्वाकांक्षी बनाए जाते हैं. गौरतलब है कि राजस्व में ख़ासी वृद्धि करों से इतर इन दूसरे स्रोतों की वजह से आई है— सरकारी कंपनियों से अतिरिक्त लाभांश, सरकारी शेयरहोल्डिंग की बिक्री (जिनमें नकदी के मामले में अमीर सरकारी उपक्रम भी शामिल हैं क्योंकि दूसरों को बेचने के लिए समय नहीं मिला) से आय, लाइसेन्स फीस और स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल के एवज में प्राप्त आय, आदि. इसलिए अनुमान है कि इस साल करों से इतर स्रोतों से दो साल पहले हुई आय का 63 प्रतिशत अधिक हासिल होगा. बेशक, ऐसा होगा नहीं.
ओवर-बजटिंग का खामियाजा टेलिकॉम और सरकारी कंपनियों सरीखे सेक्टरों को भुगतना पड़ता है जिनका खून पहले ही निकाला जा चुका है. इनमें वे संगठन भी शामिल हैं जिनके प्रति सरकार की देनदारी बनती है मगर उन्हें पैसे नहीं मिलते (हिंदुस्तान एयरोनौटिक्स को याद कीजिए), या फिर भारतीय खाद्य निगम जैसे संगठनों को, जिन्हें जहां-तहां से उधार लेने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि सरकार उन्हें समय पर भुगतान नहीं करती और उन राज्यों को भी जिन्हें केंद्रीय करों में से उनका हिस्सा नियत समय पर नहीं मिलता. बहुत कुछ करने की कोशिश की कीमत होती है, और इसके लिए बड़ी अर्थव्यवस्था को केंद्र सरकार के मुक़ाबले ज्यादा देना पड़ता है क्योंकि केंद्र तो मनमानी करके उसे देश के सामने पेश किए जाने वाले फर्जी आंकड़ों में छुपाने की छूट ले लेता है.
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ओवर-बजटिंग खास तौर से आर्थिक सुस्ती के दौर में होती है, जिसका पूर्वानुमान सरकार लगा नहीं पाती या इसकी अपेक्षा नहीं करती. उदाहरण के लिए, यह समझ पाना मुश्किल है कि जब जुलाई में ही साफ लग रहा था कि सिस्टम लड़खड़ा रही है तब सरकार ने यह कैसे अनुमान लगा लिया कि इस साल जीडीपी में वास्तविक वृद्धि 7 प्रतिशत (और ‘नोमिनल’ वृद्धि 12 प्रतिशत) की होगी. यह बहाना नहीं चलेगा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष सरीखे संगठनों ने भी इतनी गंभीर आर्थिक सुस्ती का अनुमान नहीं लगाया था. हर कोई जानता है कि वैश्विक आर्थिक पूर्वानुमान में यह कोष प्रायः गलती किया करता है. इसका नतीजा यह है कि सरकारी सेक्टर ने अंतिम तिमाही में 15 प्रतिशत की वृद्धि की, जबकि बाकी अर्थव्यवस्था ने महज 3 प्रतिशत की वृद्धि की.
अब बहस चल रही है कि 2020-21 के बजट के लिए सरकार वित्तीय अनुशासन का ख्याल रखे या घाटे को भूल जाए और झोली का मुंह खोल दे? इस बहस को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. इसे जीडीपी के अनुपात में ऋण के स्तर के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए (जो बहुत बड़ा है और बड़ा ही होता जा रहा है). इस पर भी विचार किया जाए कि ऋण के ऊंचे स्तर का ब्याज दरों पर क्या असर पड़ेगा, जो पहले से ही ऊंची हैं. कहा जा सकता है कि ‘काउंटर-साइक्लिकल’ (प्रतिचक्रीय) वित्त नीति झोली का मुंह खोल देने के संकेत देती है, लेकिन सच यह है कि पिछले वित्तीय पाप अलग-अलग तरह से कीमत वसूलते रहते हैं. इस पाप से प्रायश्चित का, अर्थव्यवस्था से लोगों की अपेक्षाओं को घटाने, और बजट में बहुत कुछ करने से हाथ खींचने का अभी भी समय है.
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