छत्तीसगढ़ के जंगलों में 4 अप्रैल को नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में 22 पुलिसकर्मियों की दुखद मौत ने इससे पहले हुए ऐसे हमलों की याद ताजा कर दी, जिनमें सबसे भयावह था 2010 में दंतेवाड़ा में हुआ हमला जिसमें 76 लोगों की जान गई थी.
पहले की तरह इस बार भी राजनीतिक और संस्थागत बयानबाजियों का दौर चला और बदला लेने का संकल्प लिया गया. ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस हमले की आधिकारिक जांच की जाएगी, राजनीतिक संरक्षण में कवरअप को अंजाम दिया जाएगा और अंतत: केवल निचले स्तर के अधिकारियों को खामियाजा भुगतना पड़ेगा. जीवन पहले की तरह जारी रहेगा, जब तक कि फिर कोई हादसा नहीं हो जाता और उसके बाद फिर इस चक्र को दोहराया जाएगा.
पुलिस नेतृत्व राजनेताओं को समाधान देने का वादा करता रहेगा बशर्ते उनकी संख्या लगातार बढ़ाई जाती हो और नई सीआरपीएफ बटालियनों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि इस काम में वित्तीय बाधाएं आने दी जाएंगी. काश कोई भारत के नेताओं को समझा पाता कि सीआरपीएफ की गुणात्मक कमियों को संख्या बढ़ाकर दूर नहीं किया जा सकता है.
बड़ी तस्वीर और सच्चाई ये है कि एक लंबे समय तक दक्षिण बस्तर का लगभग 4,000 वर्ग किलोमीटर का इलाका नक्सलियों के नियंत्रण में रहा था. हाल ही में एक साक्षात्कार में बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक ने कहा कि यह इलाका अब उतना बड़ा नहीं रह गया है लेकिन 1,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में अब भी नक्सली हावी हैं. सत्ता को इसकी पूरी जानकारी है. संसद और मीडिया ने इस पर चुप्पी साध रखी है.
इसके समानांतर ही इन दिनों चल रहा है मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह का मामला, जिन्होंने पद से हटाए जाने के बाद राज्य के तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख के खिलाफ अदालत में शिकायत दायर कर दी. सार्वजनिक रूप से अब तक उपलब्ध जानकारियों के अनुसार इस मामले में भ्रष्टाचार, आपराध और राजनीतिक हेराफेरी के घालमेल की भूमिका साफ नज़र आती है, जो राजनीतिक सत्ता और नौकरशाही की सांठगांठ से संबद्ध है. जो विवरण सामने आ रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि नेता-पुलिस सांठगांठ सर्वव्यापी रही है. एक सड़ांध मारते तंत्र की तस्वीर सामने आ रही है.
निसंदेह इन दोनों घटनाओं के अलग-अलग संदर्भ हैं. एक मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह के माहौल में गैरजरूरी जनहानि के बारे में है. दूसरा भ्रष्टाचार और खुद कानून के रखवालों द्वारा अपने वरिष्ठों के संरक्षण में संभावित हत्या का मामला है. ये दोनों घटनाएं भले ही असंबद्ध लगती हों लेकिन सरसरी निगाह डालने पर भी पता चल जाता है कि नाटक के पात्र वही हैं, बस उनके रूप और संदर्भ अलग-अलग हैं. दोनों घटनाएं पुलिस के राजनीतिकरण और उन पर सत्ता के नियंत्रण से संबंधित हैं और दोनों में कार्यपालिका और पुलिस में जवाबदेही की कमी की बात सामने आती है.
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बार-बार एक जैसी गलती
छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ पर हमले के मामले में, राजनेता खुद को और आम जनता को भ्रम में डाल रहे हैं कि सख्त कार्रवाई उनकी रणनीति का मुख्य आधार होना चाहिए. यह इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज करता है कि आदिवासी लोग भारत के सबसे पुराने निवासियों में से हैं. उनकी कई सामाजिक-आर्थिक शिकायतें वास्तविक हैं और उनके बुनियादी मानवाधिकारों का बार-बार उल्लंघन किया जाता रहा है. और उनके नक्सलियों के प्रभाव में आने की यही वजहें हैं.
इस मामले में राजनीतिक अक्षमता के साथ-साथ ऑपरेशन संचालन से संबंधित पुलिस नेतृत्व की भारी मूर्खता का योगदान रहा है जिन्होंने बड़े दस्तों के उपयोग पर भरोसा किया जिसमें सफलता के लिए जरूरी चौंकाने वाला तत्व नदारद होता है. कोई आश्चर्य नहीं कि सीआरपीएफ, जिसे कि शिकारी होना चाहिए, अक्सर शिकार बन जाता है.
केंद्र और राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व को पुलिस के राजनीतिकरण और अपराधीकरण के खिलाफ सुधारों को लागू करने, सत्ता पर संसदीय निगरानी को मज़बूत करने और कार्यपालिका पर राजनीतिक नियंत्रण को घटाने में नाकाम रहने तथा जनता के प्रति जवाबदेह ना होने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. ये स्थिति तब है जबकि निरंतर गलतियों का सिलसिला जारी है और कई अध्ययनों और रिपोर्टों में सुधारों की जरूरत बताई जा चुकी है. दंतेवाड़ा में 2010 में हुए हमले की जांच से संबंधित ई.एन राममोहन की रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है.
मुंबई पुलिस कमिश्नर से संबंधित ताजा मामले से कानून के दायरे से बाहर के कामों में नेताओं और पुलिस नेतृत्व की सांठगांठ उजागर होती है. एनएन वोहरा की 1993 की रिपोर्ट और उसके बाद आई अन्य रिपोर्टों में अंडरवर्ल्ड, नेताओं और नौकरशाही के बीच सांठगांठ पर प्रकाश डाला गया है. लेकिन सुधार के लिए किसी भी प्रयास को आपराधिक न्याय प्रणाली से निपटना होगा, जिसमें खुद पुलिस भी शामिल है.
2003 में, आपराधिक न्याय प्रणाली की समीक्षा करते हुए, न्यायमूर्ति मलीमथ कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था: ‘देश की पुलिस प्रणाली पुरातन भारतीय पुलिस अधिनियम के तहत काम कर रही है जिसे 1861 में ब्रिटिश साम्राज्य के स्थायित्व के लिए बनाया गया था. अब संविधान, कानून और लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुसार काम करना पुलिस का दायित्व है. इसके अलावा, पुलिस को एक पेशेवर और सेवान्मुख संगठन होने की आवश्यकता है, जो अनुचित बाहरी प्रभावों से मुक्त और लोगों के प्रति जवाबदेह हो. इसके अलावा, ऐसा पुलिस बल होना आवश्यक है जो पेशेवर रूप से संचालित और राजनीतिक रूप से तटस्थ, गैरसत्तावादी, जनहितैषी हो और जिसमें पेशेवर दक्षता हो.’
वास्तव में, सभी राजनेताओं और पुलिस नेतृत्व को एक जैसा नहीं कहा जा सकता है. हालांकि, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं की संख्या बढी है और राजनीतिक नेतृत्व की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए चुनाव सुधारों की मांग की सभी दलों द्वारा जानबूझकर अनदेखी की गई है.
इसके अलावा, 15 साल पहले दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद पुलिस सुधारों को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव दिखता है. राजनीतिक नेता अधिकाधिक कानून के शासन के बजाय अपनी मर्जी से शासन करने का विकल्प चुन रहे हैं. आपराधिक न्याय प्रणाली के अनेक पुर्जों के ठीक से काम नहीं करने की मौजूदा स्थिति में स्पष्टतया कुछ राज्यों ने पुलिस को अवैध हत्याओं के जरिए ‘न्याय’ देने के लिए अधिकृत कर दिया है.
केंद्र और राज्यों दोनों में, खुफिया और जांच एजेंसियों में निहित शक्ति का दुरुपयोग कर राजनीतिक विरोधियों को बेअसर करने का काम- जो इंदिरा गांधी के काल में खूब प्रचलित था- फिर से जोरों पर है.
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मोदी को कदम उठाने की जरूरत
वर्तमान में, कोविड-19 के कारण भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुश्किलों का सामना कर रहा है और उम्मीद कर रहा है कि शासन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से उनकी रक्षा करेगी. बीतों वर्षों में शासन में उनका भरोसा खत्म हो चुका है. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उनका भरोसा बना हुआ है.
मुद्दे की बात ये है कि मोदी पर विश्वास को लोग सीधे एक भावना के रूप में अनुभव करते हैं. लेकिन सत्ता और उसके अंगों पर अविश्वास एक बुरी बदबू की तरह हटने का नाम नहीं ले रहा. ऐसा नहीं है कि जनता का एक हिस्सा भी इसके लिए दोषी नहीं हैं. वे अक्सर नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करते हैं. संभव है उन्होंने मुसीबत से अपना रास्ता निकालने की तरकीब सीख ली हो. लेकिन सत्ता आमतौर पर जिस तरह की मिसाल पेश कर रही है, शासन पर जनता के भरोसे में कमी को भारत के भविष्य के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है. वैसी स्थिति में देश अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल नहीं कर सकता जब निर्वाचित नेताओं की लगातार आपराधिक छवि बन रही हो, पुलिस अपने ढंग से न्याय प्रदान कर रही हो और न्यायपालिका अप्रभावी हो.
बाहरी दुश्मनों के खिलाफ चाहे कितनी भी रक्षा तैयारियां कर ली जाएं, राष्ट्र की इन स्वनिर्मित खतरों से रक्षा नहीं की जा सकती है. इस तरह के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं. और इस संबंध में अभी भी भारत नरेंद्र मोदी से उम्मीद लगा सकता है.
लेकिन ये तभी संभव है जब अत्यंत लोकप्रिय नेता मोदी भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले राष्ट्र को अधिक तरजीह दें. इसके लिए उन्हें दीर्घकालिक लाभ के हित में अल्पकालिक जोखिम उठाना पड़ेगा, बिना ये जाने कि इसका खुद उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए क्या असर होगा. इसके लिए अतिविश्वास की दरकार होगी. लेकिन बहुत से लोग नरेंद्र मोदी के कहे पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं. और यह उनके लिए उनका पसंदीदा अस्त्र सुदर्शन चक्र साबित हो सकता है. वह जो भी काम करते हैं, उसका बड़े पैमाने पर जनसमर्थन तय होता है. यदि वह चुनाव और आपराधिक न्याय प्रणाली जैसी भारत की बुनियादी व्यवस्थाओं में सुधार की एक विस्तृत प्रक्रिया की घोषणा करें, तो यह राष्ट्र के लिए खुद को सही रास्ते पर लाने का एक अच्छा मौका होगा. साथ ही, यह उनकी स्थायी विरासत भी साबित हो सकती है.
(लेखक तक्षशिला संस्थान बेंगलुरू में स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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