1947 की बांबे(मुंबई) में एक आवाज गुंजती है, ‘हिंदी, हिंदू, हिंदूस्तान, मुसलमान जाओ पाकिस्तान’. बांबे(मुंबई) में रहने वाले लेखक सादत हसन मंटो इस बात पर आशचर्य करते हैं कि वह कैसे अपने ही शहर में अजनबी हो गए हैं. वह कौन लोग हैं जो यह सोचते हैं कि फिल्म स्टूडियो बांबे टाकिज में ज्यादातर मुसलमान हैं. जब वह मुसलमानों के इलाके से गुजरते हैं तो कौन उन्हें टोपी पहनने को मजबूर करता है. कौन है जो उन्हें मुसलमानों के कत्लेआम के लिए तैयार करता है.
वही लोग जो 70 साल बाद मुराद अली मोहम्मद की फिल्म “मुल्क” में दिवारो पर लिखते हैं “पाकिस्तान वापस जाओ. आतंकवादी.” या फिर वही लोग जो फिल्म केदारनाथ में कुम्हार मंसूर की मौजूदगी पर सावालिया निशान उठाते हैं. यद्यपि वह फिल्म में बताता है कि उसके परिवार वाले शिव मंदिर का दर्शन कराने के लिए सदियों से श्रद्धालुओं को अपने पीठ पर लादकर ले जाते रहे हैं.- ‘तीर्थ हमारी रगो में है’
इस साल मुबंइया सिनेमा ने हमें आईना दिखाया है और हम शून्य वहीं देखते हैं जहां हमारा दिल होना चाहिए. मुल्क, मंटो और केदारनाथ में मुसलमानों को भारत में हाशिए पर, डरा हुआ और अलग सा महसूस करने वाला दिखाया गया है. केदारनाथ के मंसूर की मां इसलिए डरी हैं क्योंकि वह एक पंडित की बेटी मक्कू के प्यार में पड़ गया है. वह अपनी मां को समझाने की कोशिश करते हुए कहता है, ‘ये काफिर है, कमीनी है, मक्कार है, मगर पूरा आसमान पी जाती है, क्या
करूं’?
ऐसे समय में जब असहिष्णुता के खिलाफ बोलने वाले फिल्मी सितारों को पाकिस्तान जाने की हिदायत दी जाती है, जब पाकिस्तानी कलाकारों को अपनी फिल्म में लेने पर निर्देशकों को जनता से माफी मांगनी पड़ती है और उन अभिनेताओं को सरकारी पुरस्कारों से नवाजा जाता है. जो अपनी फिल्मों का इस्तेमाल राष्टरवाद का मुखपत्र बनने में करते हैं, तब ऐसे समय में इन फिल्मों का आना बहुत महत्वपूर्ण है. ये फिल्में नफरत के माहौल में कला की संभावनाओं की एक झलक दिखाती है कि किस तरह से कला का प्रयोग करके नफरत के खिलाफ बोलते हुए समाज में भरे जहर को कम किया जा सकता है.
जैसा कि संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत के समय देखा गया कि एकतरफा और कथाओं में प्रचलित एक हिंदू और एक मुस्लिम के बीच केवल प्यार का सुझाव देने पर ही उन्मादी तत्वों ने दीपिका पादुकोण का सिर काटने की धमकी दे डाली, जगह-जगह प्रदर्शन किए और फिल्म का नाम बदलवा दिया.
क्या बंटवारे का जख्म अभी तक नहीं भरा है? या फिर वोटबैंक की राजनीति करने वाले नेताओं द्वारा समय समय पर दिया जा रहा यह घाव है.? मुल्क फिल्म के निर्देशक अनुभव सिन्हा का मानना है, ‘हर पांच-दस साल पर कोई न कोई आकर कहता है कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते हैं और हम उसे मान भी लेते हैं. हमें अलग करने वाली शीशे की दिवार को तोड़ना होगा. हमारे लिए यह कोई और नहीं करेगा.’ उनके पास इसके लिए एक आपत्तजनक सुझाव भी है, ‘एक बार मंदिर बना दो और फिर यह हिंदू और मुस्लिम के बीच अंतिम लड़ाई होनी चाहिए. इसके बाद कुछ नहीं. हमसे वादा करिए कि इसके बाद किसी और मंदिर के बारे में कोई बात नहीं करेंगे फिलम मुल्क के बाद उनके साथ दिल को छू लेने वाली जो चीज हुई वह थी एक मुस्लिम का उनका कहना, ‘बहुत बहुत धन्यवाद मुझे फिर से भारतीय होने का एहसास दिलाने के लिए’. यह फिल्म मुल्क की तरह है जिसमें मुराद अली मुहम्मद रोते हुए कहता है, ‘ कैसे करूं साबित मेरा प्यार मेरे मुल्क के लिए?’. यही चीज एसएसपी दानिश जावेद जो बीजेपी के बोलचाल वाली भाषा से देखें तो न ही एक “बुरे” मुस्लिम हैं और न ही “अच्छे” मुस्लिम, को भी चुभती है, केवल वो जो अपने समुदाय के उन लोगों से घृणा करता है जिन्होंने इसे आतंकवाद से जोड़कर लांछित कर दिया है.
सिनेमा इस बात को दर्शा रहा है कि किस तरह चिन्हों का इस्तेमाल करके लोगों को बांटा जा रहा है और इस खाई से भयानक और कोई खाई नहीं है. मंटो फिल्म की निर्देशक नंदिता दास कहती हैं कि उन्होंने इस अलगाव के बीच चारों तरफ पनप रहे हिंसा और भेदभाव के जवाब में यह फिल्म बनाई है क्योंकि सबसे व्यंगातमक बात है कि मंटो अपने धार्मिक पहचान को सार्वजनिक करके नहीं चलते थे. वह कहते थे, ‘मैं कैसे अपने आप को एक भारतीय लेखक
कहूंगा जब मैं पूरे भारत के बारे में जानता ही नहीं हूं.? और पाकिस्तान को उससे भी कम. मैं चलता फिरता बंबईया हूं’. वह अपने आप को बंबईया लेखक मांगते थे और इसी कारण अपने इस प्यारे शहर को लाहौर छोड़ के जाना उन्हें अंदर से तोड़ दिया. बंटवारा उन्हें दिल से लग गया.
फिर भी इस डिब्बे में चाहे ऑफस्क्रीन हो या ऑनस्क्रीन मुस्लिमों को बार बार डाला जा रहा है. हमारे जटिल वास्तविकता और इतिहास के बाद भी एक साल में ही स्मारकों, सड़कों और शहरों को उनके आस्था के कारण टटोला जाता है.
जैसा कि निर्देशक अभिषेक कपूर बताते हैं, ‘केदारनाथ शिव और उनके बलिदान के बारे में है कि किस तरह वह सेवा भाव दिखाते हुए मानव के अस्तितव को बचाने के लिए विषपान भी कर लिए थे. यह एक धार्मिक नास्तिकतावाद है. चाहे वो केदारनाथ हो या फिर अमरनाथ, सच्चाई यही है कि हम हिंदू और मुस्लिम प्यार और भाईचारे से इस लोकतांत्रिक देश में रहते आए हैं.’
वह आगे कहते हैं, ‘हर हर महादेव कोई युद्ध का आह्वाहन नहीं है. यह तो एक विश्वास है कि शिव हम सबके अंदर रहते हैं चाहे वह कोई भी हो.’
और तब भी सच्चाई यही है कि केदारनाथ में जब मुक्कू का कट्टरवादी हिंदू मंगेतर मुस्लिम कुम्हार और दुकानदारों पर हमला करता है तो उन्हें डर के मारे यह जगह छोड़ कर भागनी पड़ती है. यही बात मुराद अली का कट्टरपंथी मुस्लिम भतीजा मुल्क में जोर देकर कहता है, ‘हमें लड़ कर अपनी जगह लेनी है’.
2008 में आई नंदिता दास की पहली फिल्म फिराक 2002 में अहमदाबाद में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों पर आधारित थी, लेकिन वह मंटो और फिराक को मुसलमानों को लेकर संक्रिण नजरिए से न देखते हुए इंसान के अनुभवों और रिश्तों की कहानी की तरह लेती हैं.
फिराक में हिंसा के बाद के जीवन की कहानी है. किस तरह उसके बाद चारों तरफ गुस्सा, निराशा, ग्लानि ही दिखाई देता है और किस तरह से लोग इन चीजों से निबटते हैं चाहे वो हिंदू हो या फिर मुस्लिम. मंटो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इंकार किए जाने वाले लेखक की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कहानी है. यह अपने आप से संघर्ष की कहानी है. यह कोई प्लान का हिस्सा नहीं है कि किसी एक समुदाय को संबोधित करना है लेकिन मुझे लगता है फिराक और मंटो में एक सामानता है क्योंकि दोनों ही फिल्में पहचान के संघर्ष की कहानी है. आपने इन बातों की गूंज मुल्क में सुनी होगी जब अली मोहम्मद की वकील और बहू आरती आतंकवाद के अर्थ को बड़ा बनाने के लिए दलितों और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार को शामिल करने के लिए कहती है.
इन तीनों ही फिल्मों में हिंदुओं और मुसलमानों को अलग अलग आग के गोले पर बैठा दिखाया गया है. मुल्क में एक डॉयलाग है जब पड़ोस की एक आंटी जी मुसलमानों के एक पार्टी में कहती हैं, ‘खाना नहीं खातें इनके यहां. नाचने गाने के लिए ठीक हैं”. अनुभव सिन्हा इस दृश्य से बनारस में बिताया अपना बचपन याद करने लगते हैं. वह कहते हैं कि उनके पापा का एक दोस्त था, अशरफ, जो कि अक्सर घर खाने आता था, लेकिन उसे हमेशा अलग प्लेट में खाना दिया जाता था जब तक कि वह 13 साल का नहीं हो गया और उसने इसको लेकर अपने पैरेंट्स से झगड़ नहीं लिया. वह कहते हैं, ‘यह अच्छी बात है कि मेरे पैरेंट्स मान गए लेकिन दुखद बात यह है कि अशरफ के अंकल इस बात को जानते थे और स्वीकार भी करते थे’.
यह दिलचस्प बात है कि मुल्क में आपसी विवाह किया हुआ एक कपल लंदन में रहता है जो कि एक बहुसांस्कृतिक शहर है और जहां उनसे लोग ज्यादा पूछताछ नहीं करते हैं.
एक ऐसा भी समय था जब हम मनमोहन देसाई द्वारा निर्देशित ऑनस्क्रीन डेमोक्रेसी के आईडिया से परिपूर्ण अमर, अकबर, एंथोनी जैसी फिल्मों को देख सकते थे, लेकिन अब तो हम केवल अपनी मंलिगताओं को ही बड़ा कर के मल्टीप्लेक्स की स्क्रीनों पर देखते हैं और हमें जरा सा भी ख्याल नहीं कि ऐसा करते हुए हम क्या हो गए हैं.
मंटो कह चुके हैं, ‘अगर आप मेरे इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि
जमाना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है.’ समय सच में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है.
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