आपातकाल की याद, उसकी 45वीं सालगिरह ! आपातकाल के खलनायक अपनी भूमिका निभाकर नेपथ्य में जा चुके हैं. अपनी करनी भोग चुके उन खलनायकों पर अब क्या कोड़े फटकारना ! बेशक, इमरजेंसी के खिलाफ इस देश ने बड़ी दिलेरी से लड़ाई की. लेकिन बहादुरी और हिम्मत के उन पिछले किस्सों को भी अब क्या दोहराना ! आपातकाल की 45वीं सालगिरह पर ये सब करना इस मौके को जाया करना होगा. गुजरे वक्त में हमने अधिनायकवाद से लोहा लिया तो आज जरुरत उस अनुभव की आंच में ये देखने की है कि हमारे अपने वक्त में लोकतंत्र का खात्मा किस तरह हो रहा है.
लोकतंत्र की दशा और दिशा के बारे में आपातकाल के कोण से सोचना हमारे चिन्तन को गति और ऊर्जा तो देता है लेकिन ये गुमराह करने वाला भी हो सकता है. फिर भी, इंदिरा गांधी के अधिनायकवाद से संघर्ष की यादें गहरी हैं, उन यादों को कुरेदना इस घड़ी अपनी ताकत का आह्वान करना भी हो सकता है.
आवाज देती याद
मुझे याद है, 1975 के 26 जून की वो सुबह ! अपने पिता का अवसन्न चेहरा! रेडियो पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल का ऐलान किया और अपने गांव में रेडियो पर इस ऐलान को सुनकर मेरे पिता के चेहरे पर दुख और क्रोध की काली छाया मंडराने लगी थी. तब मैं बमुश्किल 12 साल का था. उन दिनों में मेरी दिलचस्पी जेपी को जवाब देने में लगी इंदिरा गांधी में कम और इस बात में ज्यादा रहती थी कि गावस्कर ने पहले विश्वकप में 60 ओवरों में 36 रन बनाये तो आखिर कैसे बनाये ! लेकिन, आगे आने वाले 19 महीने मेरे लिए गहरी राजनीतिक शिक्षा के रहे. मिजाज से नरमपंथी और हरचंद कानून को मानकर चलने वाले मेरे पिता ने उन दिनों आपातकाल के विरोध के कुछ प्रतीकात्मक तौर-तरीके निकाल लिये थे. और, ये सब देखकर गांव में ज्यादातर लोग भय और हैरत में थे.
हमलोग देश में हो रही घटनाओं की सच्चाई जानने के लिए हर सांझ बीबीसी रेडियो सुनते थे. मुझे याद है, एक वाद-विवाद प्रतियोगिता हो रही थी और इस मौके की आड़ में मैंने अपने कस्बे में इमरजेंसी के खिलाफ एक भाव भरा भाषण दिया था. आखिर को 1977 में जब चुनावों की घोषणा हुई तो हमारे पूरे परिवार ने जनता पार्टी के पक्ष में अभियान में हिस्सा लिया. बमुश्किल 14 साल की उम्र रही होगी जब मैंने अपनी जिंदगी में पहली दफा किसी चुनावी रैली में भाषण दिया था ! और, मतगणना का वो दिन तो खैर मैं कभी भूल ही नहीं सकता जब इंदिरा इंदिरा गांधी की हार का जश्न मनाते लोगों के हुजूम के बीच मैं खड़ा था. वो क्षण चुनावों में मेरी दिलचस्पी और राजनीति से मेरे जुड़ाव का पहला क्षण था.
ऐसी लाखों छोटी-छोटी कहानियां हैं, इन कहानियों को वीरता और साहस से भरी कुछ बड़ी कथाओं के साथ पिरो दिया जाता है तो एकजुटता और साझेपन की एक महागाथा बनती है जिसमें दर्ज होता है कि इस देश के लोगों ने कभी अधिनायकवाद से डटकर लोहा लिया था. हो सकता है, यह महागाथा भी एक मिथक ही हो क्योंकि जमीन पर जो असली लड़ाई हुई वो कुछ खास दमदार ना थी. नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में लोकतंत्र की हिमायत में चले आंदोलनों की तुलना में उसे बहुत कमजोर माना जायेगा. फिर भी, इंदिरा गांधी के अधिनायकवाद से लड़ाई की वो घड़ी और उससे जुड़ी याद हमारे भीतर प्रेरणा का ज्वार जगाती है, ये बात तो माननी ही पड़ेगी.
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झूठी तुलना
लेकिन याद रहे कि लोकतंत्र की दशा-दिशा की समझ के लिए आज की तारीख में आपातकाल के दौर को एक चश्मे के रुप में इस्तेमाल करना हमारी लिए गुमराही का भी सबब हो सकता है. ऐसा करने पर बहुत संभव है, हम गलत प्रश्न पूछने लग जायें कि : क्या एक बार फिर से इस देश पर इमरजेंसी आयद होने का अंदेशा है ? क्या हम एक अघोषित आपातकाल के दौर में रह रहे हैं ? क्या मौजूदा सरकार इमरजेंसी के वक्त की ही तरह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हरण कर लेगी, मीडिया पर सेंसरशिप लगायेगी और विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल देगी.?
इमरजेंसी के अनुभवों के आईने में लोकतंत्र के अवसान के अक्स को देखकर सोचने पर एक खतरा है, ऐसा करने पर हम इस झूठे यकीन में पड़ सकते हैं कि लोकतंत्र का स्थगन हर बार एक ही तरह से होगा. ‘अघोषित इमरजेंसी ’ मानकर चलने से ये बोध जगता है कि आपातकाल के दौर में जो अनुभव हुए थे कुछ वैसा ही अब भी चल रहा है, अन्तर बस इतना है कि जो कुछ चल रहा है वो भरपूर नजर नहीं आ रहा है और अपने असर में तनिक नरम है. लेकिन ये बात सच नहीं है. मोदी के शासन में 1975-77 का दौर अपने को दोहरा नहीं रहा. हमारा दौर इमरजेंसी के दौर की तुलना में बेहतर भले जान पड़े लेकिन असल में उस दौर से कहीं ज्यादा बुरा हो सकता है.
इमरजेंसी के बारे में हम इतना भर कह सकते हैं कि वो एक असामान्य स्थिति थी, रोजमर्रा के शासन के ढर्रे से बहुत अलग हटकर हुआ उस वक्त. आज का समय एकदम ही अलग है जब असामान्यता खुद में एक चलन बन चुकी है. इमरजेंसी आयद करने के लिए तो कानून का जरिया तलाशने की जरुरत थी लेकिन लोकतंत्र के मर्म को छलने और बदलने के लिए यह कत्तई जरुरी नहीं. आपातकाल की एक शुरुआत थी और इसी नाते, कम से कम कागजी तौर पर ही सही, उसके अंत की भी एक तारीख थी.
लेकिन, आज हम जिस शासन में रह रहे हैं उसकी शुरुआत का बिन्दु तो बिल्कुल स्पष्ट है लेकिन कोई नहीं जानता कि इसका अंत कब होगा. लगता नहीं, कि निकट भविष्य में इस अंधेरी रात को चुनौती देता लोकतांत्रिक विहान फूटेगा. हमारे देश में ‘लोकतंत्र पर कब्जा’ जमाने की घटना कब की हो चुकी है. हम, जो आज के वक्त की तुलना इमरजेंसी के दौर से करने में लगे हैं तो एक बात हमारी नजरों से ओझल हुई जा रही है कि संविधान के लागू होने के साथ इस देश में गणतंत्रात्रिक मुल्क होने का जो पहला अध्याय खुला था, वो कब का बंद हो चुका है.
मैं इसे ‘लोकतंत्र पर कब्जा’ का ही नाम दूंगा, इसे ‘लोकतंत्र पर अधिनायकवादी हमले’ या फिर ‘लोकतंत्र का संकट’ सरीखा नाम ना दूंगा. ऐसे जुमले इस्तेमाल करने से ये बोध बना रहता है कि कि लोकतंत्र पर कब्जा हुआ और कब्जा जमाने के लिए लोकतंत्र के औजार ही इस्तेमाल किये गये. जिस शय पर कब्जा जमाया गया है, उसका नाम लोकतंत्र है. और, कब्जा जमाने के लिए जिस तौर-तरीके का इस्तेमाल किया गया है वो भी लोकतांत्रिक ही जान पड़ता है. चाहें तो हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र के औपचारिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके लोकतंत्र के मर्म को बदलने का काम किया गया है.
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कैसे खत्म होता है लोकतंत्र
यही संदेश है हाऊ डेमोक्रेसी डाइ’ज:ह्वाट हिस्ट्री रीविल्स अबाउट अवर फ्यूचर नाम की किताब का. हार्वर्ड के राजनीतिविज्ञानी दो प्रोफेसर, स्टीफन लेवित्स्की तथा डेनियल जिब्लेट द्वारा लिखित और साल 2018 में प्रकाशित इस बहुचर्चित किताब में बताया गया है कि हमारे अपने वक्त में लोकतंत्र का नाश कैसे लोकतांत्रिक तरीकों से हुआ है. किताब हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र का खात्मा यों ही बड़े बेआवाज, धीमे और ना नजर आने वाली टेक पर होता है. लोकतंत्र का यह खात्मा अक्सर लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये राजनेताओं के हाथों होता है और इस खात्मे के लिए लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल होता है. किताब में एक जगह आता है, ‘अधिनायकवाद की तरफ ले जाते चुनावी रास्ते का एक त्रासद विरोधाभास ये है कि लोकतंत्र के हत्यारे लोकतंत्र की ही संस्थाओं का इस्तेमाल करते हैं और बहुत महीनी से, धीरे-धीरे तथा विधि-सम्मत ढंग से लोकतंत्र की हत्या कर देते हैं.’
कोई सैन्य तख्तापलट नहीं होता, इमरजेंसी सरीखी कोई संवैधानिक सेंधमारी नहीं होती बल्कि अधिनायकवादी शासक रोजमर्रा के राजनीतिक व्याकरण को बदलकर लोकतंत्र का खात्मा कर डालते हैं. इसमें कुल तीन तरकीबें एक-एक कर आजमायी जाती हैं. जिनका जिम्मा फैसला सुनाने का होता है उन निर्णायकों को कब्जे में ले लिया जाता है, जिन खिलाड़ियों से मुकाबले का मैदान सजा होता है उन्हें एक किनारे खिसका दिया जाता है और फिर खेल के नियम नये सिरे से लिख दिये जाते हैं. ‘हाऊ डेमोक्रेसी डाइ’ज’ में फ्यूजीमोरी के शासन वाले पेरु, पुतिन के शासन वाले रुस, शावेज के शासन वाले वेनेजुएला, ऑर्बन के वक्त के हंगरी के साथ-साथ डोनाल्ड ट्रंप की हुक्मरानी वाले अमेरिका का भी उदाहरण लिया गया है और ये दिखाया गया है कि हमारे अपने वक्त में लोकतंत्र का दम किस तरह बेआवाज घुटा.
किताब में भारत का जिक्र नहीं आता लेकिन मोदी एवं शाह के वक्त के भारत के साथ किताब में दिये गये उदाहरणों का साम्य बैठाकर देखना मुश्किल नहीं. फैसला सुनाने वाले निर्णायकों पर कब्जा जमाने का काम, मिसाल के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) और केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) सरीखी जांच एजेंसियों को मुट्ठी में करना,(केंद्रीय सूचना आयोग) सीआईसी और सीएजी जैसी निगरानी की संस्थाओं को निष्फल और निष्प्रभावी करना और सर्वोच्च न्यायालय के जजों को अपने प्रभाव में करना, मोदी-शाह के शासन वाले भारत में कहीं और के मुकाबले ज्यादा आसानी और पूरेपन के साथ हुआ है. इन संस्थाओं को अपने आगे दंडवत करने में सरकार को खास मेहनत नहीं करनी पड़ी. डराने-धमकाने, पर कतरने, पद से बेदखल करने, लोभ-लालच देने या फिर सीधे-सीधे गिरेबान में हाथ डालकर अपने खीसे में धर लेने या फिर इन संस्थाओं को धूल-धूसरित करने जैसे धतकर्म सरकार को बहुत ज्यादा नहीं करने पड़े, बस जरा-जरा सी कोशिश हुई और इशारों-इशारों में संस्थाओं का काम तमाम हो गया.
ठीक इसी तरह, मौजूदा सरकार ने मैदान के खिलाड़ियों, जैसे विपक्ष के नेतागण, मीडिया, सांस्कृतिक प्रतीक तथा व्यवसाय जगत के अग्रणी चेहरों को एक किनारे करने के लिए जो तरकीब अपनायी वो अपने-अपने देश में लोकतंत्र की हत्या करने वाले अधिनायकवादी राजनेताओं की आजमायी तरकीब से बहुत अलग नहीं है. तकरीबन सबक लेने जैसा है ये देखना कि कैसे इन राजनेताओं ने बगैर सेंसरशिप लगाये मीडिया को कैसे अपनी मुट्ठी में कर लिया. फ्यजीमोरी का दाहिना हाथ माना जाने वाला मोंटेसिनो मीडिया के बारे में ये कहता हुआ पाया गया कि: “ वो सब के सब, एक कतार में बंधकर खड़े हो जाते हैं. हर दिन साढ़े बारह बजे उनके साथ मेरी मीटिंग होती है … और हम तय करते हैं कि सांझ के समय क्या समाचार दिखाये जायेंगे .” क्या ठीक-ठीक यही बात आपको अपने देश में होती नहीं लगती?
मोदी सरकार ने बस एक ही चीज नहीं की या कह लें कि अब तक उसे ऐसा करने की जरुरत ना पड़ी. बात ये कि मोदी सरकार ने राजनीति के खेल के जो संवैधानिक नियम हैं, उन्हें अभी तक नहीं बदला. अभी तक चुनाव के नियम नहीं बदले हैं, ना ही चुनावों को स्थगित किया गया है. इस सरकार को अभी ऐसा करने की जरुरत नहीं पड़ी.
ये सरकार मतदाताओं के बीच इस कदर लोकप्रिय है, मीडिया और न्यायपालिका पर इस हद तक उसका असर है कि उसे ऐसा करने की जरुरत नहीं लगती. लेकिन ये मानकर मत चलिए कि सरकार ऐसा नहीं करेगी. ऊपर जिस किताब का जिक्र आया है उसके लेखकों का कहना है कि : ‘ लोकतंत्र की मौत जिस ढर्रे पर होती है उसकी एक बड़ी विडंबना ये है उसमें बहाना लोकतंत्र की हिफाजत का किया जाता है. आगे को सर्वतंत्र स्वतंत्र शासक में तब्दील होने वाले राजनेता अक्सर आर्थिक, प्राकृतिक आपदा और खासकर राष्ट्र की सुरक्षा के आगे उठ खड़ी होती चुनौतियों जैसे युद्ध, सशस्त्र विद्रोह, आतंकी हमले का इस्तेमाल अपने अलोकतांत्रिक कदमों को उचित ठहराने के लिए करते हैं.’
क्या आपको अब भी नहीं लगता कि किताब के लेखकों ने ये बातें 26 जून 2020 के भारत के लिए लिखी हैं ?
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
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योगेन्द्र यादव जी बिलकुल सही कह रहे हैं। लेकिन जो भी विरोध है वो बस गिने चुने प्लेटफॉर्मम्स पर ही है। जैसे, ट्वीटर पर लेकिन मात्र इतने से विरोध से इतना बड़ा जनमत कैसे बदले। ना जाने क्यूँ विपक्ष अपनी भूमिका भूले बैठा है। विपक्षी नेता ट्वीट कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। जब तक बडे स्तर पर विरोध और जन-जागरण नहीं होता, बदलाव मुश्किल है।
Opposotion hai kahan ?, saare nete thho BJP mein chale gaye hain, Opposition bachi hi nahi, aur congress ke yuvraj mein vo dum nahi hai ki vo loktanter ko bachha sake.