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Saturday, 21 December, 2024
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हार के 10 सबक: भाजपा इन्हें सीखने या 2019 हारने का विकल्प चुन सकती है

सबसे पहले, भाजपा को थोड़ा विनम्र होने और यह स्वीकार करने की ज़रूरत है कि उसके पास अब ऐसा कोई सुप्रीम लीडर नहीं है जो कि किसी को भी जिता सके.

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आम धारणा यही है कि सामान्यतया हारने वाला पराजय से सबक लेता है, ना कि जीत के नशे में चूर विजेता. हिंदी भाषी राज्यों में मिली इस तिहरी हार के भाजपा के लिए ये, अधिकतर कड़वे, 10 सबक हैं.

1. पार्टी प्रबंधन की इसकी हाईकमान शैली अब खंडित हो चुकी है. यह काम करे, इसके लिए नरेंद्र मोदी में राज्य के चुनावों को अपने दम पर प्रभावित करने की क्षमता होनी चाहिए. वह उत्तर प्रदेश के चुनावों तक ऐसा कर पा रहे थे. उनकी सीमाएं सर्वप्रथम कर्नाटक में ज़ाहिर हुईं, जहां सत्तारूढ़ दल के खिलाफ़ भाजपा को पर्याप्त सफलता नहीं मिली. हाल के चुनावों ने उनकी सीमाओं को और स्पष्ट कर दिया है. यदि आपके पास किसी को भी जिता सकने वाला सुप्रीम लीडर नहीं है, तो फिर आप सर्वशक्तिमान हाईकमान वाली व्यवस्था नहीं चला सकते. आपको शक्ति का विकेंद्रीकरण करना होगा.

2. कांग्रेस मुक्त भारत का सपना एक ऐसी बेढब फंतासी थी कि आरएसएस तक को उससे किनारा करना पड़ा. अब यह ख़त्म हो चुकी है. कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनावों में 44 के आंकड़े पर सिमट गई थी. पर उस दुर्गति में भी उसने भाजपा के 17 करोड़ मतों के विरुद्ध 10.7 करोड़ वोट हासिल किए थे. आप इतिहास में अपना सबसे बुरा प्रदर्शन करने के बावजूद 107 मिलियन वयस्कों के वोट हासिल करने वाली पार्टी को यों ही ख़त्म नहीं कर सकते. पिछले साल, भाजपा को कांग्रेसयुक्त गुजरात हासिल हुआ और अब हिंदी हृदय प्रदेश कांग्रेस की अगुआई में उसके सामने है. भाजपा कांग्रेस से छुटकारा नहीं पा सकती है.

3. भाजपा के विरोधी, और यहां तक कि उसके सहयोगी दल भी, ‘एजेंसियों’ के डर पर काबू पाते दिख रहे हैं. पहली बात, भाजपा ने इनका कुछ ज़्यादा ही और बुरी तरह इस्तेमाल किया. विगत में कांग्रेस ने भी इनका दुरुपयोग किया था, पर उसने इतनी कुशलता हासिल कर ली थी कि ये खुल्लम-खुल्ला नहीं लगे. अधिकांश मामले इतनी बुरी तरह गढ़े गए कि उन्हें ज़्यादा दूर नहीं खींचा जा सका. एजेंसियां अपने शिकारों को लीक की गई सूचनाओं और प्रतिकूल खबरों से तंग करती हैं. पर अब इनके दुष्प्रचार से कोई नहीं डरता क्योंकि आमतौर पर लोग ऐसी खबरों पर यकीन नहीं करते. क्रिश्चियन मिशेल अब आपको चुनावी फायदा नहीं पहुंचा सकता.

4. संस्थानों को दबाने का युग भी बीत चुका है. ताज़ा चुनावी परिणाम सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और आरबीआई में अप्रिय बगावतों के बीच आए हैं. इनसे मोदी सरकार और भाजपा की ‘कड़क’, जिनसे पंगा लेने की कोई न सोचे, छवि को भारी नुकसान पहुंचा है. वैसा माहौल अब नहीं रहा. शीर्ष संस्थान भयमुक्त होते जा रहे हैं. इन परिणामों से बचे खुचे डर को भी ख़त्म करने में मदद मिलेगी.

5. संविधान एवं शासन में महत्वपूर्ण बदलावों को लागू करने के लिए संसद के दोनों सदनों को 2022 तक नियंत्रण में करने की फंतासी भी हवा हो गई है. दरअसल, राष्ट्रनिर्माताओं ने बहुमतवादी ज़्यादतियों को रोकने के लिए इतनी बुद्धिमानी से द्विसदनी व्यवस्था बनाई थी कि अब विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि 2019 का परिणाम चाहे कुछ भी हो, कोई एक दल सिद्धांत रूप में भी दोनों सदनों को अपने नियंत्रण में नहीं ले सकता. इसलिए मोदी और शाह की अगुआई वाली शक्तिमान भाजपा सहित हर किसी को बातचीत और लेनदेन की कला सीखने की ज़रूरत है.

6. भारतीय मतदाता 2018-19 में मोतीलाल या जवाहरलाल नेहरु, या इंदिरा और राजीव गांधी के खिलाफ़ वोट देना नहीं शुरू कर रहे. वे आपके पक्ष या विपक्ष में वोट डाल रहे हैं, किसी के दादाओं-परदादाओं के लिए नहीं. इसलिए, कृपया टाइम मशीन से बाहर आएं. 2019 की लड़ाई मौजूदा वक़्त में होगी, बीते युग में नहीं.

7. भाजपा का नारा है ‘मेरा देश बदल रहा है.’ संभवत: यह सच है. पर वोटरों के मामले में एक चीज़ जो नहीं बदल रही है वह है उन्हें नादान समझने वाले नेताओं के अहंकार और सुलभ नहीं रहने को लेकर उनकी नापसंदगी. मतदाताओं को अशालीन चुनाव प्रचार भी पसंद नहीं. इन चुनावों में शामिल मुख्यमंत्रियों में से शिवराज सिंह चौहान का प्रदर्शन सबसे बढ़िया रहना भी गैरआक्रामक, सुलभ और विनम्र नेतृत्व की ताक़त को ज़ाहिर करता है. विधवा-अली-बजरंगबली वाली भाषा में चुनाव अभियान चलाना बहुत बड़ी गलती थी, ख़ासकर इसलिए कि 2014 में आपको ज़बरदस्त जीत ‘विकास’ और ‘अच्छे दिन’ के सकारात्मक वायदों के कारण मिली थी.

8. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भारत के उन राज्यों के बीच सर्वाधिक ‘हिंदू’ राज्य हैं जहां कि भाजपा का सीधा मुक़ाबला कांग्रेस से है. इसका मतलब यह है कि इन राज्यों में मुस्लिम वोट राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले आधे से भी कम हैं. इसलिए, आप भले ही उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले राज्यों में बीच-बीच में ध्रुवीकरण की राजनीति कर सकते हैं, पर प्रधानत: हिंदू राज्यों के लोग उत्तर प्रदेश, केरल, कश्मीर, असम या पाकिस्तान के मुसलमानों के खिलाफ़ मतदान नहीं करेंगे. उन्हें खुद अपने भविष्य की चिंता है.

9. आप 2014 में राष्ट्रवाद और आर्थिक आशावाद के सहारे लंबे समय से जातियों में विभाजित हिंदू वोट को एकजुट करने में सफल रहे थे. उस फार्मूले का असर कुछ समय पहले ही क्षीण हो चुका था. अब, जाति-केंद्रित अहम पार्टियों के बीच अपने सहयोगियों की तलाश करें, उनके लिए जगह बनाएं, या अपने मूल समर्थकों के करीब पहुंचने की दोबारा कोशिश करें.

10. और आख़िर में, राहुल गांधी को मज़ाक के रूप में लेना बंद करें. इस बार के चुनाव एक राजनेता के रूप में उनके उदय का अवसर साबित हुए हैं. उन्होंने प्रयास किए और प्रतिबद्धता दिखाई. उनकी और उनके परिवार की आपकी आलोचना वंशवादी अहंकार और ‘विदेशी मूल’ को लेकर है. यह तभी तक काम आई जब तक वह उदासीन और बीच-बीच में गायब होते नज़र आए, जबकि आप माटी के सच्चे सपूत दिखे. युवा भारतीय मतदाताओं को जन्मसिद्ध अधिकार का भाव नापसंद है. पर इस बार के चुनाव अभियान में भूमिकाएं बदली दिखीं. राहुल अधिक विनम्र और सुलभ, कम हकदारी वाले, और अधिक सकारात्मक नज़र आए.


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भाजपा इन 10 सबकों को कैसे लेती है, उसी से 2019 का परिणाम तय होगा. एक बार फिर, आमतौर पर विजेता के जीत से सीखने की अपेक्षा हारने वाला अपने नुकसान से अधिक सबक लेता है. थोड़ी विनम्रता के साथ इसे मानें, या दंभपूर्वक इसकी अवहेलना करें – यह भाजपा को तय करना है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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