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Sunday, 3 November, 2024
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सत्ता से संघर्ष और समाज से संवाद. बीजेपी के वर्चस्व की काट का यही सूत्र है

हो सकता है कि बीजेपी के पास आज विचारधार का वर्चस्व है लेकिन वर्चस्व विरोधी राजनीति के पास भी काफी गहरे सांस्कृतिक संसाधन हैं. अगर हम समझदारी और समर्पण के साथ काम करेंगे तो ज़रूर जीतेंगे.

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`यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी ने पेट में जोर का मुक्का मार दिया हो`– उत्तरप्रदेश के चुनावों के नतीजों के बाद मेरे पास कई संदेश आये. उनमें में एक में यही वाक्य लिखा था. आत्म-तुष्टी की जिन बेड़ियों में हमने अपने को कैद कर रखा है उन्हें तोड़ने और नये सिरे से सोच-विचार करने के ऐतबार से देखें तो शायद हमें ऐसे ही मुक्के की मार की जरूरत थी. यूपी और चार अन्य राज्यों में आये चुनाव-परिणामों के बाद किन्तु-परन्तु वाली किसी बहस की जगह ही नहीं बचती. पश्चिम बंगाल के चुनाव-परिणाम और किसान-आंदोलन की जीत के बाद चंद दिनों के लिए लगा था कि चलो, अब सांस को सांस लौटी है— लेकिन राहत का वो वक्त अब बीत चला है. साल 2024 के चुनावों तक जाने वाला रास्ता किसी भी दम मुश्किल ही था और विधानसभा चुनावों के इस ताजातरीन दौर के बाद वह पहले से भी ज्यादा मुश्किल हो चला है. अगर अभी के वक्त में हम कोई जुगत नहीं करते तो फिर यों समझिए कि भविष्य अंधकारमय है.

भविष्य के रास्ते की शुरुआत चार आर्य-सत्य से होती है.

पहली कड़वी सच्चाई यह कि: चुनाव में सिर्फ प्रतिस्पर्धी दल हारे हों, ऐसी बात नहीं. बात ये नहीं कि समाजवादी पार्टी चुनाव हारी है जबकि वो चुनाव जीत सकती थी या कि कांग्रेस की हार हुई है जबकि उसने कड़ाई से मुकाबला करना भी मुनासिब नहीं समझा या कि लगातार गिरावट के गढ्ढों में धंसती जा रही बहुजन समाज पार्टी हारी है या फिर पंजाब का पूरा सत्ता-प्रतिष्ठान ही मटियामेट हुआ है (और ठीक ही हुआ है). दरअसल, हम सबका इन चुनावों में कुछ न कुछ दांव पर लगा हुआ था. हम, जो भारत नाम के गणराज्य पर विश्वास रखते हैं— हम, जो भारत के संविधान की प्रस्तावना की कसम उठाने वाले लोग हैं यानी वे लोग जो बापू, बाबा साहेब और भगत सिंह की राह के मुसाफिर हैं— हम सबका इन चुनावों में कुछ न कुछ दांव पर लगा था और वह दांव हम हार गये हैं, हार हमारी भी हुई है. हार की इस सच्चाई के आगे इन बातों पर कान देने का कोई मतलब नहीं कि चुनावों में अनियमितता हुई या कि ईवीएम में गड़बड़ी हुई (अगर ऐसा हुआ हो तो भी जिस बड़े अन्तर से हार हुई है, उसकी व्याख्या ऐसी गड़बड़ियों से नहीं हो सकती). तो, अपने को किसी भुलावे में रखने की जरुरत नहीं कि: इस जगह जो हमारा वोट शेयर बढ़ गया है या फिर उस जगह तो सांप्रदायिक तेवर का एक राजनेता चुनाव हार गया है. सीधी और खड़ी बात यही है कि हम चुनावी मुकाबला हारे हैं और बुरी तरह हारे हैं.

दूसरा सच, हम सिर्फ चुनाव हारे हों ऐसी बात नहीं, दरअसल, हम चुनाव से कुछ ज्यादा हार चुके हैं. जैसा कि, राजनीति विज्ञानी सुहास पलशीकर ने लिखा है— हमारे सामने कहीं ज्यादा बड़ी, गहरी और दमदार चुनौती है. हमारा सामना एक दबंग और दुर्निवार ताकत से है. भारतीय जनता पार्टी की चुनावी दबंगई आले दर्जे की संवाद-कुशलता, सांगठनिक कार्य, मीडिया पर कब्जा और धन-बल के सहारे कायम हुई है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी करिश्माई आभा इस दबंगई को जैसे अजेय बनाती है. इस राजनीतिक प्रभुत्व को राजसत्ता के अप्रत्याशित दुरुपयोग और गली-मुहल्लों में हुंकार भरने वाली अजब-गजब नामों वाले शरारती दस्तों का सहारा है—इन दोनों के सहारे सभी संस्थाओं को रेंगने के लिए मजबूर कर दिया गया है और विरोध की तमाम आवाजों पर ताला जड़ दिया गया है.

इससे भी बड़ी बात यह हुई है विचारधारा और संस्कृति के धरातल पर ऐसी दंबगई को लेकर एक स्वीकार-भाव है. भारतीय जनता पार्टी ने भारत की राजनीति के मुख्य सांस्कृतिक संसाधनों जैसे, राष्ट्रवाद, हिन्दू-धर्म और हमारी सांस्कृतिक विरासत को जैसे अपनी मुट्ठी में कर लिया है. राजनीति विज्ञानी प्रताप भानु मेहता ने जिसे `पूर्व-विश्वास` की संज्ञा दी है, बीजेपी को लेकर लोगों में पहले से कायम वह भरोसा बना ही है भारतीय राजनीति के सांस्कृतिक संसाधनों पर इस पार्टी के कब्जे के कारण. अपने ऊपर कायम लोगों के इस पूर्व-विश्वास के कारण ही यह पार्टी सूबों में चाहे कुशासन के कितने भी कृत्य करे लेकिन चुनावों में विजयी होकर निकलती है. सच्चाई ये है कि भारतीय जनता के एक बड़े हिस्से को यह पार्टी हमारे `गणराज्य` के खात्मे के अपने प्रोजेक्ट में हांक लेने में कामयाब हो गई है.


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क्या हमारे पास कोई विकल्प नहीं है?

बातों के हमारे इस सिलसिले का तीसरा आर्यसत्य यह कि हमारे पास कोई बना-बनाया विकल्प नहीं है. आज की तारीख में जो हालत है, उसे देखते हुए कांग्रेस यह दावा करने के कत्तई काबिल नहीं कि वही स्वाभाविक विकल्प है. बेशक, कांग्रेस के पास एक हद तक जनाधार है. दो राज्यों (राजस्थान और छत्तीसगढ़) में उसकी सरकार है और कांग्रेस, बीजेपी-विरोध (न कि गैर बीजेपीवाद) की राजनीति के प्रति निष्ठावान है. लेकिन इतना भर पर्याप्त नहीं है— इतनी भर पूंजी के सहारे देश की सबसे बुजुर्गवार राजनीतिक पार्टी कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी का एक मात्र राष्ट्रीय विकल्प नहीं बन सकती.

क्षेत्रीय विकल्प कुछ इलाकों में बेशक नजर आ रहे हैं लेकिन हिन्दीपट्टी में वे नदारद हैं. एक बात यह भी है कि इन क्षेत्रीय दलों की ताकत और संभावना का अभी की स्थिति में अनुमान लगा पाना संभव नहीं: त़ृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का गोवा में दाखिल होकर उभरने का सपना धूल-धूसरित हो चुका है. मुकाबला किसी दबंग सियासी ताकत से हो तो सिर्फ जातिगत समीकरण साधने से काम नहीं चल सकता— सामाजिक समीकरणों को साध लेने की अपनी जुगत पर समाजवादी पार्टी के हद से ज्यादा भरोसे के हश्र से ये साबित हो चुका है. अन्य क्षेत्रीय दलों की तुलना में आम आदमी पार्टी के दम-खम का अनुमान कहीं ज्यादा बेहतरी से लगाया जा सकता है. बेशक आम आदमी पार्टी बीजेपी का स्वाभाविक और राष्ट्रीय विकल्प होने का दावा कर रही है लेकिन पार्टी को अभी कई चुनौतियां पार करनी होंगी, तभी उसके इस दावे को गंभीरता से लेने की स्थिति बनेगी. आम आदमी पार्टी को अभी अपने सुशासन को दावे को उन राज्यों में सही साबित करके दिखाना होगा जो राजस्व के घाटे का शिकार हैं. पार्टी को दिखाना होगा कि उसे खेती-बाड़ी से जुड़ी नीतियों की परख और समझ है और यह भी जताना होगा कि पार्टी दिल्ली-दरबार के इशारे पर नहीं चल रही क्योंकि ये बात पंजाबियों को कभी रास नहीं आती. सबसे अहम बात ये कि पार्टी को अपनी सेक्युलर साख साबित करनी होगी, यह साबित करना होगा कि वह दबंग हो चली एक सियासी ताकत के विरोध में उतरी है न कि बीजेपी ने अपनी दबंगई का जो माहौल तैयार किया है, उसके छोड़न-छाड़न में अपना हिस्सा लेना भर उसका मकसद है.

बातों के हमारे सिलसिले का आखिरी यानी चौथा आर्य-सत्य सकारात्मक है: विकल्प की संभावनाएं मौजूद हैं, हमारे पास संभावनाओं का टोटा नहीं. सत्ताधारी पार्टी के कवच-कृपाण में दरारें पड़ चुकी हैं और इन्हीं दरारों से ध्यान भटकाने के लिए अब दावा किया जा रहा है कि साल 2024 के चुनावों का फैसला तो विधानसभाई चुनावों के इन नतीजों से हो चुका है. बीजेपी का प्रभुत्व अपने भौगोलिक विस्तार में कहीं ज्यादा सीमित, चुनावी ऐतबार से कहीं ज्यादा सुभेद्य और विचारधाराई तौर पर उससे कहीं ज्यादा कमजोर हैं जितना कि प्रतीत होता है. बात चाहे सीएए-विरोधी प्रदर्शनों की हो या फिर किसान-आंदोलन अथवा पश्चिम बंगाल के चुनावों की— विरोधी जब पूरे जोश, जज्बे और मजबूती से अड़ जाता है तो बीजेपी के पैर उखड़ने लगते हैं. भले बीजेपी आज विचारधाराई प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान हो लेकिन ऐसे प्रभुत्व की काट करने वाली राजनीति के लिए सांस्कृतिक संसाधन कोई कमी नहीं. हमारे साथ हमारी सभ्यता का ऊर्जा-स्रोत, आजादी के हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत और गले में किसी ताबीज़ की तरह पहनी जाने वाली वह किताब है जिसे भारतीय संविधान कहते हैं. अगर हम दृढ़-प्रतिज्ञ और होशियार रहे, तो हम जरूर जीतेंगे.

मौजूदा भारतीय राजनीति के इन चार आर्य-सत्य से प्रभुताई और दबंगई हासिल कर चुकी राजनीति की काट के लिए एक समाधान निकलता है. समाधान का वह सूत्र यों है: सत्ता से संघर्ष, समाज से संवाद. अगर इस दोधारी रणनीति की राह पर हम साहस, निष्ठा और कौशल से चले तो निश्चित ही भारत नाम के गणतंत्र को हम फिर से हासिल कर सकेंगे.


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आगे की राह आंदोलनों से निकलती है

पिछले आठ साल का इतिहास बताता है कि मौजूदा हुक्मरानों को असल टक्कर संसद में विपक्ष की बेंच पर बैठने वालों से नहीं बल्कि आंदोलनों से मिली है. इन सालों में हमने देखा है कि न्यायपालिका, नौकरशाही और विश्वविद्यालय सरीखे संस्थानों में अपनी स्वायत्त जगह बचाये रखने के लिए दैनंदिन तौर पर विरोध के स्वर उभरे हैं. जनविरोधी आर्थिक नीतियों के खिलाफ लगातार प्रदर्शन हुए हैं और बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर जब-तब जन-उभार देखने को मिला है. हमने सीएए-विरोधी और किसान-आंदोलन जैसे बेमिसाल आंदोलन भी देखे.

अभी तक देखने को यही मिला है कि इन आंदोलनों में एक-दूसरे से जुड़ाव नहीं रहा और मुख्यधारा की राजनीति से भी जुड़ाव का कोई सेतु नहीं बना. आर्थिक गैर-बराबरी के लगातार बढ़ते जाने, बेरोजगारी के संकट के निरंतर कायम रहने और महंगाई के लगातार ऊपर चढ़ते जाने की मौजूदा स्थिति में हम उम्मीद बांध सकते हैं कि प्रतिरोध के आंदोलनों में तेजी आयेगी. चुनौती इन आंदोलनों को समर्थन देने और उनमें एक साझा स्वप्न जगाये रखने की है ताकि ये आंदोलन, दबंगई की सुरसा सरीखी राजनीति की काट साबित हो सकें.

प्रभुत्वपरक राजनीति के प्रतिकार में उठ खड़े होने का मतलब यह नहीं कि हम उस जनता के ही विरोध में नजर आने लगें जहां से हमें ताकत मिलनी है. जनादेश के सम्मान का यह कत्तई मतलब नहीं कि हर चुनाव के नतीजे की प्रशंसा में हम यह कहते हुए ताली बजायें कि आखिरकार लोकतंत्र की जीत हुई है. हम चुनावों के मार्फत निकलने वाले जनादेश से झांकते खतरों के बारे में चुप्पी साध लेते हैं तो यह बड़ा गैर-जिम्मेदाराना और अलोकतांत्रिक बरताव माना जायेगा. लेकिन, जनादेश के सम्मान का एक मतलब यह जरूर होता है कि हम पूरे मनोयोग से उन कारणों और तर्कों को जानें और उनके साथ संवाद कायम करें जिनके वशीभूत होकर लोगों ने किसी पार्टी को वोट किया और उसे विजयी बनाया.

पांच राज्यों में हुए विधानसभाई चुनाव लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहे हैं, लेकिन मतदाता की मंशा ऐसी कत्तई न थी. इस बार चुनावों के दौरान अपने यूपी दौरे में हर वक्त मेरे सामने यही सच प्रकट हुआ. अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में अपने परिजन, दोस्त और ह्वाट्सएप्प ग्रुप्स के संवादों में हमारे साथ ऐसा वाकया पेश आता ही है. नफरत की राजनीति को मजबूत बनाने वाले लोग खुद भी नफरत से भरे हों—यह जरूरी नहीं. हमें सत्याग्रहियों की सेना यानी ट्रुथ-आर्मी बनानी होगी ताकि लोगों से उनकी बोली-बानी और मुहावरे में बात हो सके. झूठ का किला ऐसी तेजी से भरभरा के गिरेगा कि उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते.

अभी जब इस आलेख के समापनी सिरे पर पहुंचा हूं तो मुझे उसी साथी का एक और संदेश मिला है जिसने लिखा था कि चुनावों के नतीजे कुछ वैसे ही हैं मानो किसी ने पेट में जोर का मुक्का मार दिया हो. अबकी बार उस साथी ने लिखा है: ‘मैं नाउम्मीदी और हताशा के भंवर से उबर चुका हूं और अब दृढ़ संकल्प जागा है. अच्छा है जो हमें इस बात का भान है कि हमारे आगे चुनौतियां कितनी बड़ी हैं और, अच्छा है कि हमने झूठी आशाएं नहीं पालीं. अच्छा है कि तुम नाउम्मीद नहीं हो!.’

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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