यह चुनाव कितना कांटे की टक्कर वाला होने जा रहा है? अगर आप मोदी/भाजपा के समर्थक हैं तो इस सवाल पर आपका जवाब यह होगा कि अब तक ऐसा कोई चुनाव हुआ ही नहीं जिसका नतीजा पहले से मालूम रहा हो, और यह कि एनडीए 400 से ज्यादा सीटें जीतने वाली है. लेकिन अगर आप विपक्ष के समर्थक हैं, तो आप कहेंगे कि यह 2004 के चुनाव जैसा होने जा रहा है, जब अटल बिहारी वाजपेयी के एनडीए की जीत पक्की मानी जा रही थी मगर उसकी हार हुई.
चुनाव के पहले चरण का मतदान होने के साथ माहौल दिलचस्प रूप से गरम हो चला है. तमाम टीवी चैनलों पर ‘ओपीनियन पोल’ के नतीजे आ रहे हैं जिनकी सर्वेक्षण प्रक्रिया के बारे में आपको कुछ नहीं मालूम, और सब-के-सब एक ही नतीजा बता रहे हैं— भाजपा को इस बार 2019 से ज्यादा सीटें मिलेंगी. हाल के दिनों में सबसे सफल माने गए सर्वेक्षणकर्ता प्रदीप गुप्ता (ऐक्सिस माइ इंडिया) ने अभी तक कुछ नहीं कहा है. या शायद उन्होंने कुछ भविष्यवाणी की हो. हां, एक ट्वीट उन्होंने जरूर किया था और ‘मनीकंट्रोल’ से कहा था कि एनडीए को 13 राज्यों में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन यह ट्वीट तुरंत मिटा भी दिया गया. उन्होंने कोई दावा नहीं किया है कि उन्होंने कोई ‘ओपीनियन पोल’ किया है.
जब कोई चैंपियन सर्वेक्षणकर्ता दोनों पक्षों पर दांव लगा रहा हो तब एक पत्रकार किसी चुनाव को, ज्यादा-से-ज्यादा, ‘पढ़ने’ की कोशिश ही कर सकता है. क्या ऐसा हो सकता है कि दोनों पक्षों के दावे भी सही हों, और गुप्ता ने मिटा दिए गए अपने ट्वीट में जो कहा था वह भी सही हो?
भारत में किसी भी चुनाव, चाहे वह मोदी के उत्कर्ष के बीच क्यों न हुआ हो, का नतीजा विभिन्न राज्यों में हुए मुक़ाबलों के नतीजों से मिलकर ही बनता है. मैं कह चुका हूं कि गठबंधनों के 25 साल (1989-2004) के दौर में भारत में हुए आम चुनाव नौ सेट वाले टेनिस मैच की तरह हुए. जो खिलाड़ी पांच सेट जीता वह यह चुनावी ग्रैंड स्लैम जीत ले गया.
ये नौ ‘सेट’ हैं— उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (विभाजन से पहले), मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक और केरल. इनमें कुल 351 लोकसभा सीटों का फैसला होता था. जो पक्ष इनमें से पांच को जीतता वह 200 सीटों के आंकड़े के करीब पहुंच जाता, जो कि किसी गठबंधन के लिए 272 के बराबर था. यह गणित 2014 में खत्म हो गया.
इस बार के चुनाव के लिए हम इस गणित को बदल रहे हैं और इन छह राज्यों को इसमें गिन रहे हैं– महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, कर्नाटक, झारखंड, और ओडिशा. 193 लोकसभा सीटों का फैसला करने वाले इन राज्यों में जबरदस्त टक्कर है. ये तय कर देंगे कि 4 जून को भाजपा को कुल कितनी सीटें मिलेंगी. अगर उसे 225 से ज्यादा सीटें जीतनी हैं तो इन्हीं राज्यों को जीतना पड़ेगा.
अगर हम 1977 में बनी सरकार को पहली गैर-कांग्रेसी सरकार मानकर चलें तो उसके बाद से जन्मे मतदाताओं के लिए लोकसभा में बहुमत का विचार अनजाना ही होगा. इसलिए 2014 में मोदी की जीत को वे विपक्ष का सफाया मान सकते हैं, हालांकि मोदी 282 सीटों के साथ मामूली बहुमत ही पा सके थे. 1969 में कांग्रेस के ‘ओल्ड गार्ड्स’ से अलग होने के बाद इंदिरा गांधी तब की लोकसभा में प्रायः 350 का आंकड़ा तो हासिल करती ही थीं. इसलिए, 2014 को अगर सफाया माना जाएगा तो 2019 को ‘भू-स्खलन’ मानना पड़ेगा.
2019 में पुलवामा-बालाकोट के कारण राष्ट्रवादी भावनाओं के उभार ने भाजपा के वोट प्रतिशत में बड़ा (2014 के 31.34 प्रतिशत के मुक़ाबले 2019 में 37.7 प्रतिशत का) इजाफा तो किया लेकिन कुल सीटों की संख्या मात्र 20 बढ़कर 303 पर पहुंची. आप पूछेंगे, ‘मात्र’ क्यों? क्योंकि भारत में ‘भू-स्खलन’ पहले 350 सीटों के इर्दगिर्द आता था.
303 सीटों का आंकड़ा कहता है कि किसी एक नेता की इतनी जबरदस्त लोकप्रियता और आकर्षण के बावजूद भारत का चुनाव राज्य-दर-राज्य लड़ा जा रहा है. मोदी ने 12 राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, असम, उत्तराखंड, और हिमाचल प्रदेश) की 320 में से 278 सीटें जीत कर लगभग सफाया कर दिया लेकिन बाकी राज्यों में बड़ी जद्दोजहद के बावजूद कुल मिलाकर 25 सीटें ही जीत पाए. उनकी पार्टी ने पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन वहां के अग्रणी दलों से बहुत पीछे रही. इन 12 राज्यों में उसने जिन अप्रत्याशित अंतरों से दूसरे पक्ष का सफाया किया उसके कारण उस जीत को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया.
हमारे रिपोर्टर अमोघ रोहमेत्रा की रिपोर्ट काबिल-ए-गौर है. यह रिपोर्ट बताती है कि भाजपा ने 224 सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए. फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम में 50 फीसदी वोट के आंकड़े को ईसा मसीह के ‘पवित्र प्याले (Holy Grail)’ के समान माना जाता है. इसे हम और अच्छी तरह से तब समझ सकते हैं जब यह याद करें कि राजीव गांधी रेकॉर्ड 414 सीटें जीतने के बावजूद 48.12 फीसदी वोट ही हासिल कर पाए थे.
इससे दो निष्कर्ष निकलते हैं. एक यह कि इन 224 सीटों में भाजपा के वर्चस्व वाले 12 राज्यों की जो सीटें हैं उनमें से अधिकतर पर 2024 के दूसरे दावेदारों को कहीं ज्यादा तीखे मुक़ाबले का सामना करना पड़ेगा— बावजूद इसके कि विपक्ष ने गठबंधन किए हैं, कुछ जातियां नाराज हैं और पुलवामा जैसा कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं है. हरियाणा का ही उदाहरण लीजिए, जहां भाजपा के लिए कई प्रतिकूलताएं हैं, केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार के खिलाफ आक्रोश है. लेकिन याद कीजिए कि 2019 में भाजपा को वहां 58.21 फीसदी वोट मिले थे. विपक्ष में चाहे जितना भी जोश भर आया हो, उसके लिए चुनौती कड़ी है.
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यही आंकड़े यह तो बताते हैं कि भाजपा ने इन 224 सीटों को एक झटके में जीत लिया, मगर देश के बाकी हिस्सों में, यानी बाकी 319 सीटों में से वह केवल 79 सीटें जीत पाई. बेशक उसने इन सभी सीटों पर उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था लेकिन मैं 224 सीटें छोड़कर बाकी सीटों की बात कर रहा हूं. इसका अर्थ यह हुआ कि बाकी सीटों पर बीजेपी का स्ट्राइक रेट या जीतने की दर लगभग एक चौथाई है. तो, अगर आप भाजपा समर्थक हैं तो इसी को आधार बनाकर चलिए और बेशक मानकर चलिए कि ये 224 सीटें फिर इस बार बीजेपी जीत लेगी. फिर हिसाब लगाइए कि आप 370 के आंकड़े तक कैसे पहुंचेंगे. इसके लिए भाजपा को बाकी 319 सीटों में से करीब आधी सीटें जीतनी पड़ेंगी.
असल लड़ाई यहीं पर है. एक पक्ष अधिकांश भारत पर काफी हावी दिखता है मगर बाकी जगहों पर उसके लिए मुक़ाबला तगड़ा है. नरेंद्र मोदी को अपना दबदबा बनाए रखने के लिए पहला लक्ष्य 303 के आंकड़े को फिर पार करना होगा.
यह हमें छह प्रमुख राज्यों पर नज़र रखने के विचार पर वापस लाता है. ये छह राज्य कुल 193 लोकसभा सीटों का फैसला करते हैं. इनमें से चार (कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड) उन 12 राज्यों में शामिल थे जिनमें मोदी ने 2019 में सफाया कर दिया था. अब इन चार राज्यों में मोदी के लिए नयी राजनीतिक चुनौतियां उभर आई हैं. बाकी दो राज्य (पश्चिम बंगाल और ओडिशा) उन्हें पहले ही तरह-तरह से चुनौती दे चुके हैं. इनके अलावा 100 और सीटें (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और केरल में) ऐसी हैं जो भाजपा की पहुंच से दूर ही हैं. 303 का आंकड़ा पार करने के लिए उसे इन छह राज्यों में और करीब 100 सीटें जीतनी पड़ेंगी.
हमने दो वजहों से इन छह राज्यों को चुना है. एक तो यह कि इनमें भाजपा अपनी ताकत रखती है. दूसरी वजह यह है कि इनमें से हर एक राज्य में मोदी का सामना अलग-अलग वास्तविकता से है. महाराष्ट्र और बिहार में उसके अग्रणी सहयोगी काफी कमजोर पड़ चुके हैं. शिवसेना टूट चुकी है, जदयू अपने विचारधारा-मुक्त और निस्तेज नेता के कारण बेदम नजर आ रहा है. मोदी के लिए दोहरी चुनौती यह है कि वे अपने नाम पर इन सबके लिए भी वोट जुटाएं.
झारखंड और कर्नाटक में सरकार उनके विरोधियों की है. इसके कारण संतुलन थोड़ा गड़बड़ाता है. ओडिशा में 2019 की तरह ‘फिक्स’ नहीं तो दोस्ताना मैच नहीं होने जा रहा है, जब विधानसभा देकर लोकसभा का सौदा किया गया था. नवीन पटनायक की चिंता यह होगी कि अगर वे कमजोर पड़े तो उन्हें अपना बुढ़ापा राजनीतिक पतन में गुजारना पड़ सकता है और अगर खुद को नहीं, तो अपनी मंडली को ‘एजेंसियों’ से बचाना पड़ सकता है.
इन तमाम वजहों से हम यह कह रहे हैं कि इस बार हमारे राजनीतिक भूगोल के बड़े हिस्से में मुक़ाबले का नतीजा भले साफ नजर आ रहा हो, मगर कुछ हिस्से में यह मुक़ाबला 2019 के मुक़ाबले से भी ज्यादा तीखा है. इसलिए, हमने अपनी सूची जिन छह राज्यों को शामिल किया है उन पर मोदी को नजर रखनी पड़ेगी, अगर वे 2019 के अपने आंकड़े को बेहतर करना चाहते हैं. और विपक्ष को भी इन पर नजर रखनी पड़ेगी, अगर वह मोदी को 272 के आंकड़े से नीचे रखना चाहता है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः 44 साल बाद, मोदी की भाजपा में केवल दो चीज़ें बदली, एक चीज़ है जो नहीं बदली