कोविड-19 महामारी ने वैसे तो अनेक जीवन तबाह कर दिए हैं लेकिन हम कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक क्रांतिकारियों को भी खो रहे हैं. उनमें से एक हैं प्रसिद्ध लेखक-अभिनेता और लोक गायक विजय वैरागड़े, जो वीरा साथीदार के नाम से जाने जाते थे. जीवन भर जाति-विरोधी कार्यकर्ता रहे साथीदार ने, जो 13 अप्रैल को नागपुर में कोविड-19 का शिकार हो गए, अपनी ज़िंदगी के 40 साल थिएटर के ज़रिए जातिगत अन्याय से लड़ने और भारतीय जन नाट्य संघ के संयोजक की भूमिका में गुज़ार दिए.
लेकिन अक्टूबर 2020 में साथीदार ने भीमा कोरेगांव मामले में खुद को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की पूरक चार्जशीट में घिरा हुआ पाया जिसमें ऐसे कार्यकर्ताओं की सूची दी गई थी जिनपर एजेंसी ने ‘अर्बन नक्सल’ का ठप्पा लगा दिया था. इसके परिणाम स्वरूप साथीदार को लगातार परेशान किया गया.
साथीदार एक द्विमासिक पत्रिका विद्रोही निकालते थे, जिसका प्रकाशन उन्हें कई बार पैसे की कमी के चलते स्थगित करना पड़ा था. अपने प्रदर्शनों, लेखों और नुक्कड़ नाटकों के ज़रिए साथीदार ने जाति-वर्ग विरोध की एक समृद्ध विरासत खड़ी कर दी. उनका मानना था कि गीतों और नुक्कड़-नाटकों को ब्राह्मणवादी और पूंजिवादी ताकतों के खिलाफ हथियार बनाया जा सकता है.
इंडियन कल्चरल फोरम को दिए एक इंटरव्यू में साथीदार बताते हैं कि किस तरह, वो जातिवाद की परतों का अनुभव करते हुए बड़े हुए. वो याद करते हैं कि उनके बचपन में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने लोगों के भूमि अधिकारों की अपनी लड़ाई में समाजवादियों और कम्युनिस्टों का साथ लिया था. उन्हें वामनदादा कारदक, नागोराव पाटनकर, गोविंदराव माशिनकर और लक्षमण राजगुरु जैसे आंबेडकरवादी गायकों के गीतों ने भी प्रेरित किया था.
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कला के जरिए सक्रियतावाद
भारतीय दलित आंदोलन के बहुत से दिग्गजों ने पाया है कि सत्तारूढ़ जाति और वर्ग के आधिपत्य और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में सांस्कृतिक ज़ोर एक प्रमुख यंत्र हो सकता है. अपने विरोध के जरिए बहुत से सांस्कृतिक कलाकारों ने लोगों के जीवन में एक अहम भूमिका हासिल कर ली है और ब्रह्मण आधिपत्य की व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई को मज़बूत किया है. इससे दलितों तथा अन्य प्रताड़ित समुदायों को एक मजबूत सांस्कृतिक स्थान दिलाने में मदद मिली है ताकि वो जनमानस में जाति-विरोधी और वर्ग-विरोधी अंतरात्मा को जगा सकें.
उत्पीड़ित समुदायों के कार्यकर्ताओं और थिएटर की हस्तियों को सिनेमा के जरिए अपनी राजनीति करने का विरले ही मौका मिला है. वीरा साथीदार सबसे योग्य हस्तियों में एक थे लेकिन मार्क्सवादी-आंबेडकरवादी कार्यकर्ता, प्रमुख रूप से इसे एक ही बार अंजाम दे सके, जब उन्होंने चैतन्य तम्हाने की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म कोर्ट में नारायण कांबले की भूमिका निभाई.
2014 की इस फिल्म में भारत की न्याय प्रणाली की नाइंसाफियों और उत्पीड़ित समुदायों की दुर्दशा को उजागर किया गया है. कोर्ट में लोगों के उस प्रणालीगत शोषण को दर्शाया गया है जिससे दलित विरोध का गायक, नारायण कांबले टक्कर लेता है.
अपने शोक संदेश में द न्यूयॉर्क टाइम्स ने साथीदार के हवाले से कहा है, ‘उसने (कांबले) एक कारखाने में काम किया है, मैंने एक कारखाने में काम किया है…वो लेख लिखता है, मैं भी लेख लिखता हूं. वो एक संपादक है, मैं भी एक संपादक हूं. वो एक यूनियन में काम करता है, मैं भी एक यूनियन में काम करता हूं. वो गीत गाता है, मैं भी गीत गाता हूं. वो जेल जाता है, मैं भी कई बार जेल गया हूं. उसके घर छापा पड़ता है, मेरे घर भी छापा पड़ता है. वो जो दिखा रहा है, वे मेरा जीवन है’. कोर्ट ने साथीदार को एक फिल्म लेखक और फिल्मकार बनने का सपना देखने के लिए भी प्रेरित किया.
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युवा कार्यकर्ताओं के लिए एक रोल मॉडल
स्कूल बीच में छोड़ देने वाले साथीदार, हमेशा एक कलाकार रहे जिन्होंने नागपुर के जोगी नगर में गरीबी में जीवन गुज़ारा, जिसे क़ुलियों का इलाका हमाल पट्टी भी कहा जाता था, जहां उन्होंने अधिकांश जीवन एक कारखाने में काम करते हुए बिताया. अपने शुरूआती वर्षों से ही साथीदार आंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित थे.
उनके जीवन के अनुभवों और सांस्कृतिक माहौल ने उनकी जाति-विरोधी और वर्ग-विरोधी चेतना को आकार दिया. उन्होंने नुक्कड़-नाटकों के जरिए अपना विरोध दर्ज कराना शुरू किया. उन्होंने अपनी कला के माध्यम से गोंधल, गौलन, तमाशा, लवानी, शायरी जैसे पारंपरिक सांस्कृतिक प्रदर्शनों में अपनी विशेष शैली से उत्पीड़न, गरीबी और आंबेडकरवादी विचारों को गूंथने की कोशिश की. उनकी सक्रियता मुख्य रूप से महाराष्ट्र में विदर्भ और उसके आसपास के क्षेत्र में रही.
साथीदार सिनेमा का संस्कृतिकरण होते देखना चाहते थे. मल्टीप्लेक्स कल्चर के घोर विरोधी साथीदार मानते थे कि मुख्यधारा के पूंजी-संचालित सिनेमा का उत्पीड़ित लोगों के जीवन की वास्तविकता से कोई जुड़ाव नहीं है, इसलिए उनका सपना था कि उसकी बजाय, जनता के सिनेमा को लोकप्रिय किया जाए.
वीरा साथीदार की विरासत हमारे लिए बहुत सारे सबक छोड़ गई है. अगर आप दबे-कुचले समाज में पैदा हुए हैं तो अपने लोगों और खुद के लिए लड़ने और सक्रिय रहने की भावना, आप में सहज रूप से आ जाती है. ये आपके जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन जाती है. विरोध की जो भी क्षमता आप विकसित करते हैं और जहां भी आपको उसे दिखाने का अवसर मिलता है, वहां आप उससे एक जाति-विहीन और वर्ग-विहीन समाज बनाने की कोशिश करते हैं.
मानव अधिकारों के रक्षक होने के नाते साथीदार जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे, जहां जाति बहुत बारीकी और व्यवस्थित तरीके से काम करती है. आंबेडकरवादी समुदाय काफी हद तक मार्क्सवादी-आंबेडकरवादी विचारों वाले किसी व्यक्ति की राजनीति को स्वीकार करने से हिचकता है लेकिन वीरा साथीदार बड़े विश्वास से और निरंतर आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी हलकों के बीच अपना रास्ता बनाता रहे.
कोर्ट फिल्म में हमने जो देखा है, वो साथीदार की एक वृहत छवि है, उत्पीड़ित समुदायों के लिए असली प्रेरणा लेने का तरीका ये है कि उनकी सूक्ष्म छवि को पढ़ें और समझें, जो उनके काम, उनके आंदोलन, विरोध प्रदर्शन और उनकी कला में है. इसका निर्णय भविष्य ही करेगा कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी साथीदार के जीवन और उनके काम को कैसे लेती है और कैसे याद रखती है.
(प्रशांत इंगोले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर में ह्युमैनिटीज़ और सोशल साइंसेज़ में डॉक्ट्रेट कर रहे हैं. उनके शोध-निबंध का विषय है ‘दृश्य और मौखिक माध्यम में दलितों का प्रतिनिधित्व और उनके प्रत्यक्ष अनुभव ’. व्यक्त विचार निजी हैं)
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