आर्टिकल 15 फिल्म के एक भयावह दृश्य में दलित समुदाय की दो लड़कियां पेड़ पर लटकती पाई गई हैं. भोर का वक्त है, हल्की रोशनी और हल्के अंधेरे में ये दृश्य बेहद खतरनाक लगता है.
फिल्म के एक दूसरे दृश्य में एसएसपी अयान रंजन अपने यहां काम करने वाली लड़की को अपने घर पर न पाकर बौखला जाता है और ढूंढ़ने निकल पड़ता है. घर से बाहर निकलते ही वो अपने भाई सिपाही निहाल सिंह के साथ आती हुई मिल जाती है. तब जाकर एसएसपी को चैन आता है और वो कहता है- इस शहर में पता नहीं क्या हो रहा है लड़कियों के साथ. ये लड़की जाट है, दलित नहीं है. यहां पर ये प्रश्न उठता है कि ये सिर्फ दलित औरतों के साथ अत्याचार हो रहा है, या फिर हर औरत के साथ? ये सिर्फ जाति के खिलाफ लड़ाई है या फिर जाति और जेंडर अपराध दोनों के खिलाफ?
यह भी पढ़ेंः ‘आर्टिकल 15’ के लेखक ने क्यों कहा- हमारी फ़िल्म जितनी जल्दी अप्रासंगिक हो जाए, उतना अच्छा है
फिल्म में एसएसपी अपने क्षेत्र में फैले जातिवाद के खिलाफ जंग छेड़ चुका है. ऊपर लिखे पहले दृश्य से दूसरे दृश्य तक आते-आते फिल्म एक नई समस्या को छूकर निकल जाती है. जेंडर क्राइम यानी लैंगिक अपराध. और आसान भाषा में औरतों के प्रति अपराध. फिल्म में दलित समुदाय की लड़कियों का रेप और मर्डर होता है. पुलिस के कुछ अधिकारी इस वजह से उसकी पड़ताल टालते हैं कि लड़कियां दलित हैं और मामला अपने आप शांत हो जाएगा. टीवी में दोनों लड़कियों की लटकते हुए फोटो आने के बाद उनको बापों को ऑनर किलिंग के नाम पर उठा लिया जाता है. पर एसएसपी जाति के दंश को समझ जाता है और सब कुछ बदलने निकल जाता है.
हमारे पुरुष प्रधान समाज की दिक्कत यहां सामने नजर आती है. फिल्म के अंत में आखिरकार एक सवर्ण एसएसपी दूसरे सवर्ण विलेन थानेदार को जेल पहुंचा देता है. इन दोनों के बीच में एक दलित सिपाही होता है जो सवर्ण एसएसपी की मदद करता है और विलेन थानेदार से डरता रहता है. जाति की इस लड़ाई में औरतें गुम हो जाती हैं. औरतों के बलात्कार और हत्या से शुरू हुई फिल्म पुरुषों की जाति पर अटक जाती है.
ये इस फिल्म का दोष नहीं है. फिल्म अपने हिसाब से बहुत अच्छी बनाई गई है. दोष है हमारे समाज की बनावट का. इसमें औरतें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में भी फिट नहीं बैठतीं. उनकी जगह और भी नीचे है. इतनी नीचे कि उसकी परिभाषा नहीं है, कोई कैटेगरी नहीं है.
यह भी पढ़ेंः आयुष्मान खुराना की फिल्म आर्टिकल 15 से जातिवाद को कोई खतरा नहीं है
अगर असल घटनाओं की बात करें तो 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया रेप कांड में विक्टिम सवर्ण थी और अपराधी कई जातियों के थे. इस फिल्म की कहानी का आधार है 2014 में बदायूं जिले में दो बहनों के रेप और मर्डर का मामला. इसमें कथित तौर पर यादव जाति यानी ओबीसी आरोपी थे और आरोपी पुलिस वाले भी ओबीसी थे. उस वक्त संयोग से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी यादव यानी ओबीसी थे. विक्टिम लड़कियां दलित थीं. कहने का मतलब ये कि अगर मामला औरतों का हो तो जाति का कोई मतलब नहीं रह जाता. जहां औरत अकेली मिली, उसके प्रति अपराध हो सकता है.
लेकिन दलित समाज की औरतें सवर्ण समाज की औरतों की तरह सुरक्षित घेरे में नहीं रह पातीं. वो छोटे छोटे रोजगारों में लगी होती हैं इसलिए उनके शोषित होने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसा नहीं है कि सवर्ण समाज की औरत अगर बाहर निकले तो सुरक्षित है.
बता दें कि 90 के दशक में भंवरी देवी रेप कांड पर बना विशाखा कानून कॉर्पोरेट जगत की महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच बना है. कार्यस्थल पर हैरेसमेंट तो रोजमर्रा के अपराध हैं. अगर गांवों और कॉर्पोरेट से इतर छोटी जगहों पर नौकरियों की बात करें तो इनमें दलित समाज की औरतें ही कार्यस्थल पर ज्यादा मौजूद हैं. इसलिए इनके शोषण में औरत होने के अलावा जाति का एंगल भी आ जाता है. जाति का एंगल इसलिए कि दलित समाज इकट्ठा होकर ताकतवर जातियों का सामना और मार-पीट नहीं कर सकता.
2013 तक एनसीआरबी जाति और जेंडर पर अत्याचार के डाटा के रूप में दलित औरतों से हुए बलात्कार का ही डाटा देता था. 2014 से एनसीआरबी पर बलात्कार के अलावा, बलात्कार के प्रयास, अपहरण, छेड़खानी, जबर्दस्ती शादी, नंगा करना इत्यादि का डाटा भी उपलब्ध होने लगा. हालांकि 2016 के बाद एनसीआरबी पर कोई डाटा आया नहीं है. बलात्कार के डाटा के अलावा बाकी अपराधों के कैटेगरीज तो किसी भी जाति की औरत के लिए रोजमर्रा की जिंदगी है.
फिल्म में एसएसपी अपनी गर्लफ्रेंड से खुद को खोजने के बारे में बात करता है. खुद को खोजने की उसकी लड़ाई साथी पुरुषों से लड़ाई में तब्दील हो जाती है. वहीं क्रांतिकारी निषाद जाति के खिलाफ जंग छेड़ चुका है और उसका एनकाउंटर हो जाता है. वो कहता है, ‘मैं मर भी जाऊंगा तो कोई नया आ जाएगा मेरी जगह.’
यह भी पढ़ेंः कबीर सिंह: प्रेम नहीं, सामंती ‘मर्दाना कुंठा’ का बेशर्म मुज़ाहिरा है
पर औरतों के लिए ये बात कहीं नजर नहीं आती. उनकी राहों में फिर भी अंधेरा ही रह जाता है. फिल्म में पुरुष लड़ते हैं और पुरुष जीतते हैं, हारते हैं. औरतें पीड़ित होती हैं और पीड़ित का चेहरा लिए घूमती रहती हैं. उनके लिए कोई जगह नहीं होती. एसएसपी की गर्लफ्रेंड अपने बॉयफ्रेंड को हीरो बनने के लिए प्रेरित करती है. वो उसे सोशल मीडिया फेमिनिस्ट समझता है.
निषाद की गर्लफ्रेंड हमेशा दुखी रहती है, उसके लिए हलवा बनाकर लाती है. फिल्म के आखिरी दृश्य में एसएसपी विजयी होने के बाद अपनी पुरुष टीम के साथ एक जगह आराम करने बैठते हैं. खेतों के पास सड़क किनारे एक बुढ़िया रोटी सब्जी बेच रही होती है. एसएसपी बुढ़िया से सबको खिलाने का निवेदन करते हैं. और अंत में पूछ लेते हैं- कौन जात हो? उनके सारे साथी हंस पड़ते हैं. यहां से फिल्म एक नया प्रश्न छोड़ जाती है- किस जेंडर के हो? मेल या फीमेल?
आर्टिकल 15 सिर्फ जाति नहीं, लिंग के आधार पर भी भेद को मना करता है. पर अभी ऐसा लगता है कि लिंग के आधार पर भेद को दूर करने में कई साल लगेंगे.