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Tuesday, 19 November, 2024
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भारतीयों के दिलो-दिमाग को जीतने के विमर्श से कांग्रेस को अलग नहीं किया जा सकता: सलमान खुर्शीद

बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक, सबकी अपेक्षाओं का स्रोत हमारा संविधान ही है. जो इन अपेक्षाओं को न समझने का दिखावा करते हैं वे संवैधानिक नैतिकता की उपेक्षा करते हैं.

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क्या अब समझदारी का जमाना नहीं रहा? क्या हमने मानवता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता छोड़ दी है और बड़ी खुदगर्जी के साथ खुद को सीमित दायरे के संबंधों में समेट लिया है? कोई भी समाज तभी आधुनिक बनता है जब वह इस तथ्य को कबूल करता है कि अतीत को संपूर्णता में वापस नहीं लौटाया जा सकता और उसमें से बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर पुनर्विचार करना और बदलना जरूरी है. तकनीक और गज़ट का इस्तेमाल करते हुए दिमागी तौर पर आदिम युग में जीने से कोई आधुनिक नहीं बन सकता. हमारे सपनों और उम्मीदों का क्या हुआ? क्या हम किसी दूसरे व्यक्ति के दर्द और नुकसान को इसलिए महसूस नहीं करते कि वह हमसे किसी तरह नीचा है? क्या हम वास्तव में यह मानते हैं कि इंसाफ और निष्पक्षता केवल उसी में निहित है जिसे हम हासिल करने की इच्छा और आकांक्षा रखते हैं?

समय आ गया है कि हम साफगोई से बातें करें. समझदार लोग बार-बार यह सलाह देते रहे हैं कि बहुसंख्यकवाद की आक्रामकता के मौजूदा माहौल से जो असहमत हैं उनके खिलाफ या सत्ताधारियों की भीड़ की विकृत विश्वदृष्टि में न समाने वालों के खिलाफ उकसाऊ बयान देने वालों को संयमित जवाब देना चाहिए. इससे माहौल में और कड़वाहट घोलने से बचा जा सकता है, इसके साथ ही पराजित करने का बोध भी जुड़ा होता है. इसके बाद ‘अच्छी पुलिस, खराब पुलिस’ की नौटंकी चलती है.


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मानवता की जीत होगी

अफसोस की बात यह है कि सामान्य भले लोग अपनी पसंद के कारण मिलने वाले नतीजों की सोच कर अपना रुख तय करते हैं या नहीं करते हैं. यहां तक कि पुलिस एनकाउंटर या भीड़ द्वारा ‘लिंचिंग’ की घटनाओं को भी सामान्य आंकड़ों में शामिल कर दिया जाता है. अगर कोई काम बुरा है, तो हमें उसकी भ्रष्टता के बारे में निडर और निष्पक्ष होकर बोलने को तैयार रहना चाहिए. आज अगर कोई दर्द झेलता है तो वह घटना कल कभी-न-कभी हमें परेशान करेगी ही. और किसी वजह से नहीं, तो कम-से-कम इस वजह से ही हमें अपनी आवाज़ उठानी ही चाहिए. ऐसा करके हम न केवल खुद को बचाएंगे बल्कि हजारों और लोगों को भी बचाएंगे.

जब हम सत्ता को सच बताते हैं तब हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभी लोगों को सारे समय बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता. यह मान लेना पराजित मानसिकता का ही परिचय देता है कि अच्छे और समझदार लोगों की संख्या उन लोगों से कम है, जो देश की समस्याओं के लिए जिम्मेवार सरकार का समर्थन करते हैं. आंकड़े भी इस बात की पुष्टि नहीं करते.

इसके अलावा, बेमानी बातों पर ध्रुवीकरण की क्षमता समय और स्थान के लिहाज से सीमित ही होती है. कल जो नायक थे वे कल को खलनायक मान कर खारिज किए जा सकते हैं. उनकी क्षणिक महिमा आस्था के साथ (या उसके दुरुपयोग के साथ) जुड़ी हो सकती है. लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों को बहाल करने के अभियान को उस चीज में आस्था रखनी चाहिए जिसे अपनाने और आगे बढ़ाने के लिए इस राष्ट्र का जन्म हुआ था.

मानवता ने दुनिया में अत्याचारियों को अंततः परास्त ही किया है और जो आज स्वाधीनता को कमजोर कर रहे हैं उनका भी वही हश्र होगा. लेकिन, सिर्फ बातों से हमारा मकसद पूरा नहीं होगा, चाहे वे कितनी अच्छी क्यों न हों. जरूरत स्वतंत्रता में अटूट आस्था और उसके लिए त्याग करने की तैयारी की है.

हैरत की बात है कि लोग धर्मनिरपेक्षता को घिसा-पिटा, बेअसर नारा मानते हैं, जो नयी पीढ़ी के लिए शायद ही कोई महत्व रखता है या जिसे इस कदर विकृत कर दिया गया है कि उसकी कोई पहचान नहीं रह गई है. लोकतंत्र में अल्पसंख्यक को अपनी पहचान बनाए रखने और समान ख्याल तथा इज्जत पाने का अधिकार है. संविधान ने जायज अपेक्षाओं की रेखाएं खींच दी है और जो लोग उन्हें मिटाना चाहते हैं या यह दिखावा करते हैं कि वे उन्हें पवित्र नहीं मानते, वे संवैधानिक नैतिकता के साथ धोखा करते हैं.


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धर्मनिरपेक्षता और सबके लिए इंसाफ

मुख्यतः पार्टी के राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए जब प्रतिकूल आवाज़ें सुनाई देती हों, तब हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी सभ्यता में मिलजुलकर रहने और सामुदायिक आयोजनों में सबकी हिस्सेदारी के कुछ अनूठे उदाहरण मौजूद हैं.

धर्मनिरपेक्षता की खोज अचानक 15 अगस्त 1947 की रात में नहीं की गई थी. यह हमारी विरासत का अभिन्न हिस्सा रही है. धर्मनिरपेक्षता की हमारी जो पहचान है उसे खारिज करने की कोशिश सफल नहीं हो सकती. कुछ पूर्वाग्रहों की खातिर उसे अलग से परिभाषित करने की कोशिश भी सच को हमेशा के लिए विकृत नहीं कर सकती. राष्ट्रवाद की कृत्रिम धारणाओं पर अंततः महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना की जीत होगी.

देशवासियों के दिलो-दिमाग को जीतने की तैयारी के लिए जिस राष्ट्रीय विमर्श की सख्त जरूरत है उसमें कांग्रेस के लिए भी एक भूमिका निश्चित है. इस मामले में जो इतिहास और समकालीन जमीनी हकीकत है उससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन मुक्ति सेना के ढांचे और इसके सेनापतियों के द्वारा दिखाए जाने वाले साहस के स्वरूप को तय करने की जरूरत है. और यह विमर्श तुरंत शुरू होना चाहिए.

नरेंद्र मोदी की सरकार को दी जाने वाली चुनौती की सफलता का काफी दारोमदार चुनावी गणित पर निर्भर होगा लेकिन यह सफलता अंततः इस विश्वास से ही हासिल होगी कि हमें एक वैकल्पिक राष्ट्रीय विजन की जरूरत है, जो काफी हद तक अतीत से उभरा हो मगर जिसे जनता के लिए स्थायी परिवर्तन के उद्देश्य से रचनात्मक नवाचार और संकल्प से ताकत मिलती हो.

अगर भाजपा सरकार ने स्वतंत्रता को हर पहलू से सीमित करने, एकता और सदभाव को कमजोर तथा विकृत करने, अहिंसा और सत्याग्रह के पालने में जन्मे शांतिप्रिय राष्ट्र के लोगों को देशभक्तों के भेष में आत्ममुग्ध प्रचारकों में बदल डालने, समता और मानवीय गरिमा के प्रति प्रतिबद्धता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों को ईर्ष्या तथा घृणा से भरी भीड़ में बदलने, सांस्कृतिक तथा आस्थागत विविधता को जबरन थोपी गई एकरूपता में बदलने की कोशिश की है, तो हम सबको आज़ादी और इंसाफ की जोरदार उद्घोषणा करनी चाहिए. केवल वही सभी नागरिकों के दिल में नये भारत के नये सवेरा का एहसास करा सकता है. और हमारा राष्ट्र आत्म महिमामंडन के ईंट-गारे के महत्वाकांक्षी ढांचे से उस वैचारिक ढांचे में तब्दील हो सकता है जो मानवतावाद, करुणा, सहिष्णुता, न्याय, संवेदनशीलता और साझेपन के आनंद पर टिका होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(सलमान खुर्शीद कांग्रेस नेता, वरिष्ठ वकील और लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @salman7khurshid है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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