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रविवार, 15 जून, 2025
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दुनिया को सबसे पहले अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी दिखी, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल नहीं

क्या हम यह कह रहे हैं कि एक राष्ट्र के तौर पर हम अलग-अलग विचारों को नहीं संभाल सकते? कि हम असहमत होने के लिए बहुत कमज़ोर हैं? अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ समय और लहज़े के बारे में चेतावनी भी दी जाती है, तो क्या यह वाकई आज़ाद है?

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भारत सरकार ने दुनिया भर में यात्रा करने के लिए सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों का गठन किया है — 51 राजनीतिक नेताओं और आठ पूर्व राजदूतों का एक समूह, जो 25 देशों की यात्रा पर जा रहा है — जिसका उद्देश्य सीमा पार आतंकवाद पर ग्लोबल नैरेटिव का मुकाबला करना है, खासकर पाकिस्तान के संदर्भ में. यह भारत का विश्व मंच पर अपना पक्ष रखने का कदम है. कुछ लोगों ने इसे नैरेटिव वॉर भी कहा है.

लेकिन जब यह कोशिश सामने आ रही है, तब भी एक और नैरेटिव राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बन रहा है. अली खान महमूदाबाद नाम के प्रोफेसर को फेसबुक पोस्ट लिखने के लिए गिरफ्तार किया गया है और चाहे जितने भी प्रतिनिधिमंडल बनाए जाएं, यह ऐसी घटना है जो चुपचाप भारत को बाहर से कैसे देखा जाता है, इसका खाका पेश करती है.

फेसबुक पोस्ट को पढ़ते हुए मैं ईमानदारी से यह नहीं समझ पाई कि एफआईआर क्यों हुई. हां, ऐसी चीज़ें थीं जिनसे मैं भी असहमत थी — और ऐसी चीज़ें भी जिनसे मैं सहमत थी, लेकिन असहमति कोई अपराध नहीं है. इससे किस भावना को ठेस पहुंची? इसने किस राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचाया? इसने किस तरह से किसकी संवेदनाओं को ठेस पहुंचाई जिसके लिए कानूनी कार्रवाई उचित थी? यह कहना मुश्किल है.

विडंबना यह है कि दो में से एक एफआईआर हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष ने दर्ज कराई थी, जिन्होंने दावा किया था कि प्रोफेसर की टिप्पणियों ने महिला अधिकारियों का अपमान किया है, लेकिन जब उनसे नेशनल टेलीविजन पर इस बारे में पूछा गया तो वे स्पष्ट रूप से नहीं बता पाईं कि पोस्ट में दरअसल आपत्तिजनक था क्या. भाषा अपमानजनक नहीं थी. कोई अभद्र भाषा नहीं थी और यह सब, विजय शाह-एक मौजूदा मंत्री द्वारा कर्नल सोफिया कुरैशी को “आतंकवादियों की बहन” कहने के कुछ ही दिनों बाद हुआ. उस मामले में कोई एफआईआर नहीं हुई, कोई कार्रवाई नहीं हुई, कुछ भी नहीं. मैं यह नहीं कह रही हूं कि उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए. मैं हर आपत्तिजनक टिप्पणी के लिए एफआईआर में यकीन नहीं करती, लेकिन फिर भी, वह सार्वजनिक पद पर हैं और उनकी टिप्पणी स्पष्ट रूप से लक्षित और गैर-जिम्मेदाराना थी. इस बीच, एक प्रोफेसर कुछ ऐसा पोस्ट करता है जिससे आप सहमत हो सकते हैं या नहीं और वह जेल में चला जाता है. इस विरोधाभास को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है और समझाना और भी मुश्किल.

इस सब में जो बात सामने आई वह यह थी कि कई प्रभावशाली दक्षिणपंथी आवाज़ें-जो लोग स्पष्ट रूप से प्रोफेसर से असहमत थे-फिर भी खुद को अभिव्यक्त करने के उनके अधिकार के बचाव में बोले और यह मायने रखता है क्योंकि असहमति और आलोचना सामान्य है, यहां तक कि ज़रूरी भी, लेकिन चुप्पी की मांग करना पूरी तरह से अलग बात है. यह तथ्य कि उनके विरोध की अधिक संभावना वाली आवाज़ों ने नाराज़ होने के बजाय आज़ादी के बारे में बोलना चुना, यह दर्शाता है कि हम अभी भी उस सीमा को समझते हैं जिसे पार नहीं किया जाना चाहिए. यह समस्या को ठीक नहीं करता है, लेकिन यह हमें याद दिलाता है कि सभी ने बुनियादी बातों को नहीं छोड़ा है.


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असहमति

इस मामले में अभिव्यक्ति की आज़ादी और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के बारे में कुछ चर्चा हुई है. इस बातचीत की ज़रूरत है, लेकिन बात यह है कि इस पोस्ट ने कोई कानून नहीं तोड़ा है.

सुप्रीम कोर्ट ने अब उन्हें ज़मानत दे दी है, लेकिन शर्तों के साथ. उन्हें अपना पासपोर्ट सरेंडर करना पड़ा और अपने पोस्ट या ऑपरेशन सिंदूर के बारे में कुछ भी बोलने या लिखने से रोक दिया गया है. सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने उनके पोस्ट को ‘डॉग व्हिसलिंग’ बताया. जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “हां, सभी को बोलने की आज़ादी का अधिकार है…लेकिन क्या यह सब बात करने का वक्त है?” उन्होंने सवाल किया कि ऐसे समय में कोई “सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए” क्यों बोलेगा.

और यह मुझे हैरान करता है, क्या हम यह कह रहे हैं कि एक राष्ट्र के रूप में हम अलग-अलग विचारों को संभाल नहीं सकते? कि हम असहमत होने के लिए बहुत कमज़ोर हैं? अगर बोलने की आज़ादी के साथ समय और लहज़े के बारे में चेतावनी भी दी जाती है, तो क्या यह सच्ची आज़ादी है? या यह सिर्फ शांति के क्षणों में दी जाने वाली चीज़ है और जब यह असुविधाजनक लगे तो इसे वापस ले लिया जाता है?

यहीं से बेचैनी शुरू होती है. यह कहना कि अभिव्यक्ति की आज़ादी इस बारे में नहीं है कि आप क्या कहते हैं, बल्कि इस बारे में है कि आप कब कहते हैं और इसे कैसे माना जाता है. यह अब कानून के बारे में नहीं रह गया है. यह मूड के बारे में हो गया है. वक्त के बारे में. क्या सुविधाजनक है इसके बारे में और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए एक पतली लकीर है, खासकर जब इसे पार करने की कीमत जेल की कोठरी हो.

हिंदुस्तान के रूप में यह हमारी विरासत में है कि सच बोलने, अपने मन की बात कहने के लिए जगह हो. इस ज़मीन ने हमेशा अलग-अलग विचारों को जगह दी है, यहां तक ​​कि असहज विचारों को भी. मैंने ऐसी चीज़ें पढ़ी-सुनी हैं जिनसे मैं दृढ़ता से असहमत हूं, लेकिन फिर भी, मैंने हमेशा यह माना है कि हम, एक समाज के रूप में, बिना अलग हुए असहमत होने में सक्षम हैं कि हम हर मतभेद को अपराधी बनाने की ज़रूरत के बिना बात कर सकते हैं, बहस कर सकते हैं और सवाल कर सकते हैं.

मैं यही देश जानती हूं, जहां विचार टकराते हैं, लेकिन लोग फिर भी जगह साझा करते हैं, जहां सत्य को सही समय पर नहीं बताया जाता और विचार से डरने की ज़रूरत नहीं है. अगर हम इसे खो देते हैं, तो हम सिर्फ अभिव्यक्ति की आज़ादी ही नहीं खोते, बल्कि हम कुछ गहरा भी खो देते हैं — कुछ ऐसा जो किसी भी कानून या अदालती फैसले से कहीं अधिक समय से इस स्थान को एकजुट रखे हुए है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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