इन दिनों सारी चर्चाएं और राजनीतिक टीका-टिप्पणी 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के संभावित घटनाक्रम के इर्द-गिर्द ही केंद्रित है. इनमें नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, प्रशांत किशोर और ममता बनर्जी की सियासी व चुनावी जोड़-तोड़ ही मुख्य विषय होता है. लेकिन, 2024 को भूल जाइए, असली कहीं ज्यादा खास साल तो 2025 होगा जिस पर ध्यान देने की जरूरत है. मगर इस पर चर्चा कोई नहीं कर रहा. 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने 100 साल पूरे करेगा. इस मौके पर जो जश्न मनाया जाएगा और जो कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे उनके सामने 2024 का चुनाव फीका पड़ जाएगा. इसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के 100 साल पूरे होने जैसे अवसर के विपरीत नहीं माना जा सकता.
हम 2025 पर ध्यान इसलिए नहीं दे रहे हैं, क्योंकि देश का पूरा फोकस भाजपा, मोदी, अमित शाह पर ही लगा है; न कि आरएसएस पर. लेकिन मोदी के लिए आरएसएस वैसा ही है, जैसा शी जिनपिंग के लिए सीसीपी है. आरएसएस का सर्वोपरि लक्ष्य ‘देश के सोच’ को बदलना है. चुनावी ताकत इस लक्ष्य को हासिल करने में उपयोगी साबित होगी.
100 साल के आरएसएस के लिए भविष्य का दृष्टिकोण
अब 2025 से पहले और 2025 की विजय दशमी व 2026 के बीच आरएसएस जो कुछ करेगा वह भारत की भावी दो पीढ़ियों की सोच को बदल सकता है, और यह तय कर सकता है कि युवा वर्ग ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए समर्पित संगठन को किस तरह देखता है.
संघ के सभी समूहों के संस्थागत इतिहास, उनकी उपलब्धियों, लक्ष्यों और उनसे जुड़ी हस्तियों के बारे में सामग्री एकत्रित करने की कोशिश शुरू हो गई है. ऐसे समूहों की अनुमानित संख्या करीब 90 है, जिनमें धर्म, शिक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, और जनजातीय मामलों से जुड़े संगठन शामिल हैं. अगले पांच महीनों में संघ के विभिन्न संगठन भौगोलिक इकाइयों और संस्थात्मक आधार पर पूरे देश में बैठकें करेंगे. इन बैठकों में इस बात पर विचार किया जाएगा कि 2025 में आरएसएस का शताब्दी समारोह कैसे मनाया जाए. ये सारी जानकारियां अक्तूबर 2022 तक राष्ट्रीय इकाइयों को विचार करने के लिए उपलब्ध करा दी जाएंगी. हर एक संगठन को 2025 के लिए विकास का लक्ष्य दे दिया जाएगा. उदाहरण के लिए, आरएसएस आज करीब 52,000 शाखाएं चला रहा है. वह 2025 तक इनकी संख्या बढ़ाकर दोगुनी करने का लक्ष्य तय कर सकता है.
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नंबर से नैरेटिव तक
आरएसएस 2025 से पहले ‘देश में नई सोच’ कैसे लाने जा रहा है? कुछ अरसे से आरएसएस के भीतर यह सोच चल रही है कि हालांकि बहुमत उसके साथ है, लेकिन पूरे वैचारिक सोच पर उसकी पकड़ अभी भी नहीं स्थापित हुई है; कि जनमत निर्माताओं में उदारवादी या प्रगतिशील सोच वालों का ही वर्चस्व है और वे ही नागरिकता कानून (सीएए) से लेकर अनुच्छेद 370 और किसान आंदोलन से लेकर हाथरस जैसे कांडों के मामले में अंतरराष्ट्रीय सोच को आसानी से दिशा देने में सफल हो रहे हैं; कि हालांकि हिंदुत्ववादी समूह 2014 से दिल्ली की गद्दी से राज कर रहे हैं मगर वे जनमत का निर्माण करने वाले ‘सूत्रों’ में पैठ नहीं बना पाए हैं.
इसलिए, 2025 तक का सफर ‘नंबर से नैरेटिव तक’ का सफर होगा. और यह कहीं गहरा, दीर्घकालिक आइडियोलॉजिकल प्रोजेक्ट होगा.
इस लक्ष्य के मद्देनजर किताबों, स्कूली पाठ्यक्रम, फिल्मों, प्रदर्शनियों, वृत्तचित्रों के जरिए सामग्री तैयार की जाएगी और ‘स्वतंत्र’ बुद्धिजीवियों का एक परिवेश निर्मित किया जाएगा. ओटीटी पर भागवत की टिप्पणियां, और फिल्म उद्योग को उत्तर प्रदेश आने का आदित्यनाथ सरकार का निमंत्रण सांस्कृतिक परिवेश पर अपनी पकड़ बनाने के महत्व के एहसास का ही संकेत देता है.
ये परियोजनाएं आरएसएस के समर्थकों की कमेटियों की देख-रेख में लागू की जा रही हैं और इनके नतीजे अगले वर्ष मिलेंगे, जब देश आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा होगा. लाल किला के आसपास दो संग्रहालय बनाने की योजना है— एक सुभाष चंद्र बोस के लिए होगा और दूसरा कश्मीर के लिए. दूरदर्शन पर 75 कड़ियों वाले टीवी धारावाहिक ‘स्वराज’ के प्रसारण की भी तैयारी की जा रही है. लेकिन इसमें केवल उपनिवेशवादी सत्ता के खिलाफ उस संघर्ष को नहीं दिखाया जाएगा जिसमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक ने भूमिका निभाई थी, बल्कि अपनी सभ्यता की महानता, और विद्रोहों की कहानी भी दिखाई जाएगी. इसके अलावा एक और कदम होगा— इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन का.
मीडिया के संपादकों के साथ भागवत की मुलाक़ात की तो बहुत चर्चा की गई, लेकिन करीब दो महीने पहले दर्जन भर पुस्तक प्रकाशकों के साथ भागवत की बैठक पर बहुत लोगों का ध्यान नहीं गया. मकसद भारतीय इतिहास की ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित करने, और दबा दिए गए इतिहास तथा ऐतिहासिक हस्तियों को सामने लाने का है. इसके अलावा, दलितों के सोच को प्रभावित करने वाले 1000 शिक्षित व ‘चेतन’ व्यक्तियों (सोशल मीडिया नहीं) को इस तरह तैयार किया जा रहा है, ताकि भविष्य में हाथरस जैसे प्रकरण को लेकर भाजपा-विरोधी सोच जड़ न जमाए.
इमरजेंसी के दौर से 2025 तक
अपने 100 साल के इतिहास में आरएसएस, महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध लगने से लेकर 1951 में जनसंघ की स्थापना और फिर इमरजेंसी तक कई दौर से गुजर चुका है. 1975 से 1995 के बीच का दौर उसके तेजी से विकास का दौर रहा. 1998 में पहली बार इसके एक प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, और अब 2014 के बाद का दौर. पूर्व सरसंघचालक बालासाहब देवरस कहा करते थे, ‘गांधी की हत्या ने हमें 20 साल पीछे धकेल दिया, इमरजेंसी ने 20 साल आगे बढ़ा दिया.’
वास्तव में, आरएसएस के नेताओं को यह कहना अच्छा लगता है कि उनके दर्शन को अब गौण कहकर या भारत का एक वैकल्पिक बौद्धिक विमर्श बताकर खारिज नहीं किया जा सकता. लोगों के विचारों में अब धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है. काफी कुछ ‘कांग्रेस सिस्टम’ की तरह आरएसएस को भी अपना ‘सिस्टम’ बनाना पड़ेगा. सांस्कृतिक तथा बौद्धिक आधार को अब राजनीतिक सत्ता के साथ जुड़ना ही पड़ेगा. राजनीति जितना चुनाव जीतने का जरिया है, उतना ही बौद्धिकता और विमर्श पर हावी होने का उपक्रम भी है. लेकिन भारत में अधिकांश राजनीतिक टीका-टिप्पणी दलगत राजनीति और चुनावी मीन-मेख से बुरी तरह ग्रस्त है. हमारा ध्यान जबकि कहीं और है और हम अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं, वहीं आरएसएस अपना ‘भारत बदलो’ प्रोजेक्ट खामोशी से लागू कर रहा है.
विमर्श तय करने के इस पूरे उपक्रम का कुल लाभ बेशक भाजपा को भी मिलेगा. हालांकि आरएसएस खुद को ‘सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन’ कहता है, मगर देश के राजनीतिक ढांचे पर इसका असर पड़ना तो निश्चित ही है.
(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपीनियन और फीचर एडिटर है. उनका ट्विटर हैंडल @RamaNewDelhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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