scorecardresearch
Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतवक्फ विधेयक 2024 दिखाता है कि अल्पसंख्यक का मतलब सिर्फ मुसलमान, सुन्नी और पुरुष नहीं है

वक्फ विधेयक 2024 दिखाता है कि अल्पसंख्यक का मतलब सिर्फ मुसलमान, सुन्नी और पुरुष नहीं है

यहां मुख्य बदलाव यह है कि राज्य को वक्फ बोर्डों के रेग्युलेशन में अधिक अधिकार प्राप्त होंगे और यहां तक ​​कि सरकार गैर-मुस्लिम सीईओ की नियुक्ति भी कर सकेगी.

Text Size:

जब मैं यह लेख लिख रही हूं, भारत सरकार वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 को पेश करने जा रही है, जो वक्फ अधिनियम 1995 में सुधार की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करेगा. पिछले कुछ वर्षों में, ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया सहित कई मुस्लिम संगठनों ने सुधार की मांग की है. सच्चर समिति के साथ काम करने वाले फाउंडेशन के संस्थापक भारतीय सिविल अधिकारी सैयद ज़फर महमूद ने इस अति ज़रूरी सुधार पर अपनी आवाज़ उठाई है.

कई दरगाह प्रमुखों ने भी प्रस्तावित विधेयक के लिए समर्थन व्यक्त किया है. सुधार के अलावा, वक्फ बोर्डों के भीतर भ्रष्टाचार का मुद्दा भी एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय रहा है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है. पिछले कुछ वर्षों में वक्फ संपत्तियों के दुरुपयोग और चोरी से संबंधित कई आरोप सामने आए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर महत्वपूर्ण तौर पर धन का नुकसान हुआ है और जनता के विश्वास में गिरावट आई है.

वक्फ बोर्ड कथित तौर पर भारत में तीसरे नबर की सबसे ज़्यादा ज़मीन रखने वाली संस्था है और इसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के सामाजिक-आर्थिक विकास और लाभ की दिशा में काम करना है. फिर यह पूछना उचित हो जाता है कि यह किसके हित में काम कर रहा है. राज्य द्वारा शुरू की गई इतनी सारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभार्थी होने के बावजूद भारतीय मुस्लिम समुदाय सामाजिक-आर्थिक रूप से अनुसूचित जातियों (एससी) से भी बदतर क्यों है? वक्फ बोर्डों में भ्रष्टाचार के कारण न केवल सुधार की आवश्यकता है, बल्कि समावेशिता (सभी को शामिल किए जाने) के सवाल पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है. यह निर्धारित करने के लिए कोई डेटा उपलब्ध नहीं है कि वक्फ बोर्डों में कितने पसमांदा मुसलमान शक्तिशाली पदों पर हैं या क्या महिलाओं का प्रतिनिधित्व है.

विधेयक में क्या हैं प्रावधान

प्रस्तावित विधेयक संरचनात्मक सुधार का प्रावधान करके समावेशिता और भ्रष्टाचार के मुद्दे को हल करता है. यह मुसलमानों में शिया, सुन्नी, बोहरा, आगाखानी और अन्य पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व की गारंटी देता है और बोहरा व आगा खानियों के लिए वक्फ का एक अलग बोर्ड बनाने की मांग करता है. यह, यह भी अनिवार्य करता है कि वक्फ बोर्ड के पैनल में दो महिला सदस्य हों जो संगठन के अंदर सुधारों के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम करें. प्रस्तावित विधेयक यह भी सुनिश्चित करता है कि “वक्फ-अल-औलाद” की स्थापना के परिणामस्वरूप महिला उत्तराधिकारियों सहित वाक़िफ़ के उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकार अधिकारों से इनकार नहीं किया जाएगा.

यह विधेयक वास्तव में यह स्वीकार करता है कि भारतीय मुसलमान एक समान ग्रुप नहीं हैं – मैं लंबे समय से इस पर बात करती रही हूं. भारत में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में, ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को मुस्लिम के बराबर माना जाता है, और ‘मुस्लिम’ को सुन्नी पुरुष मुस्लिम का पर्याय माना जाता है, जो दुर्भाग्य से समुदाय के भीतर अन्य महत्वपूर्ण आवाज़ों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता है. ज़मीन पर सकारात्मक बदलाव देखने के लिए सभी मुसलमानों को स्वीकार करना और उनके लिए जगह बनाना ज़रूरी है.

दूसरा महत्वपूर्ण संशोधन, जो मुस्लिम आभिजात्य वर्ग के बीच बहस का बड़ा कारण है, वह 2013 का वह फ़ैसला था, जिसने वक्फ़ बोर्ड को संपत्ति को ‘वक्फ़ संपत्ति’ के रूप में नामित करने की शक्ति दे दी थी. ऐसी शक्ति के दुरुपयोग और वक्फ़ और सरकार के बीच विवादों के कई मामले सामने आए हैं; किसी भी संपत्ति को सिर्फ़ वक्फ़ की ज़मीन नहीं माना जा सकता. निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए ऐसे विवाद को कलेक्टर द्वारा सुलझाया जाएगा, न कि वक्फ़ ट्राब्यूनल द्वारा. यहां मुख्य बदलाव यह है कि राज्य को वक्फ़ बोर्डों के नियमन में ज़्यादा अधिकार होंगेॉ और यहां तक कि सरकार द्वारा गैर-मुस्लिम सीईओ नियुक्त करने की भी अनुमति होगी.

ये नियम बहुत ज़रूरी सुधार ला सकते हैं ताकि वक्फ बोर्ड आभिजात्य वर्ग के हितों की सेवा करने के बजाय उस उद्देश्य को पूरा कर सकें जिसके लिए उन्हें स्थापित किया गया था. जब वक्फ अधिनियम की शक्ति का दुरुपयोग गलत तरीके से संपत्ति पर दावा करने के लिए किया जाता है, तो यह मौजूदा कमियों को और गहरा करता है. इस दुरुपयोग का बोझ अक्सर गरीब मुसलमानों को उठाना पड़ता है, जिनका बहुत कम प्रभाव होता है और जिन्हें वक्फ बोर्ड से बहुत कम लाभ मिलता है. इसके अतिरिक्त, यह उन लोगों के खिलाफ अन्याय को बढ़ावा देता है जिनकी ज़मीनें गलत तरीके से ज़ब्त की जाती हैं, जिससे सिस्टम में भरोसा और कम होता जाता है.

बेतुके दावे

वक्फ बोर्ड के दावों के मामले सामने आते रहते हैं. लखनऊ में एक शिवालय को वक्फ संपत्ति के रूप में मान्यता दी गई. राज्य के अभिलेखों में शिवालय का उल्लेख 1862 से है और 1908 में शिया केंद्रीय वक्फ बोर्ड का गठन हुआ है, इसके बावजूद ये दावे किए गए. एक वक्फ बोर्ड ने ताजमहल पर भी दावा करने की कोशिश की: 2018 में, सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कहा कि हालांकि स्मारक सर्वशक्तिमान (ईश्वर) की संपत्ति है, लेकिन व्यावहारिक कारणों से इसे आधिकारिक तौर पर बोर्ड की संपत्ति के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए. इस ग्रुप ने तर्क दिया कि शाहजहां के वंशजों के हस्ताक्षरित आधिकारिक दस्तावेजों की अनुपस्थिति में भी स्मारक उनका है. इस दावे का भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने विरोध किया, जिसने तर्क दिया कि वक्फ बोर्ड को स्वामित्व देने से अन्य समस्याएं पैदा होंगी और लाल किला और फतेहपुर सीकरी के लिए इसी तरह के दावों को बढ़ावा मिलेगा. वक्फ ने तमिलनाडु के एक पूरे गांव पर भी अपना दावा किया, जिसमें 1,500 साल पुराना हिंदू मंदिर भी शामिल है. हरियाणा में गुरुद्वारे की जमीन वक्फ को हस्तांतरित कर दी गई.

ये वक्फ के कुछ बेतुके दावों के उदाहरण हैं. विवादों को सुलझाने के लिए एक निष्पक्ष व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है. भारत में किसी अन्य समुदाय के पास बिना किसी सरकारी रेग्युलेशन के पूजा-पाठ के लिए इतनी अधिक ज़मीनें उपलब्ध नहीं हैं. वास्तव में, मंदिरों को सरकार द्वारा नियंत्रित और रेग्युलेट किया जाता है. प्रस्तावित विधेयक संतुलन स्थापिक करने के लिए एक सिस्टम विकसित करेगा.

यह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, समावेशिता सुनिश्चित करने और लंबे समय से चले आ रहे विवादों को सुलझाने में फायदेमंद हो सकता है, जिससे अंततः हाशिए पर पड़े मुसलमानों सहित सभी को लाभ होगा. यह एक बहुत ज़रूरी सुधार की दिशा में पहला कदम है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम का एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

share & View comments