देश की सर्वोच्च अदालत बार-बार कह रही है कि लोकतंत्र में असहमति का सम्मान होना चाहिए और असहमति की आवाज दबाई नहीं जा सकती है. लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए जरूरी है कि असहमति के स्वरों को समुचित महत्व दिया जाए लेकिन सवाल यह है कि इस असहमति के स्वर की सीमा क्या हो? असहमति की भी एक ‘लक्ष्मण रेखा’ निर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि असहमति व्यक्त करने के दौरान कोई भी इसे पार न करे.
राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस में चल रहे राजनीतिक घमासान और पार्टी के बागी विधायकों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने जोर देकर कहा है, ‘लोकतंत्र में असहमति के स्वर दबाए नहीं जा सकते.’
इससे पहले भी कई अवसरों पर शीर्ष अदालत लोकतंत्र में असहमति के स्वरों का सम्मान करने पर जोर देती रही है लेकिन उस समय ये टिप्पणियां भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में कई नागरिक अधिकारों के हिमायती कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जनता के मुखर आंदोलनों के संदर्भ में की गयी थीं.
नागरिकता संशोधन कानून, कोरोना महामारी से संघर्ष के तरीके, सीमा पर चीन के साथ तनाव जैसी स्थिति के आलोक में लोकतंत्र में असहमति की सीमा और इसकी ‘लक्ष्मण रेखा’ को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है. लेकिन राजनीतिक दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा अपनी ही सरकार के खिलाफ बगावत के मामले में स्थिति भिन्न हो सकती है.
जीवंत लोकतंत्र के लिए असहमति महत्वपूर्ण
यहां यह सवाल उठता है कि आखिर राजनीतिक पार्टियों के संसदीय दलों में सदस्यों की असहमति की क्या सीमा होनी चाहिए? क्या असहमति या असंतोष का सम्मान करते हुए निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ अपनी गतिविधियां जारी रखने की अनुमति दे दी जानी चाहिए?
जहां तक लोकतंत्र में असहमति के स्वर के सम्मान का सवाल है तो हाल के कुछ सालों में देश की सर्वोच्च अदालत के कई न्यायाधीशों ने इस विषय पर खुलकर अपनी राय व्यक्त की है.
कुछ न्यायाधीशों ने विभिन्न मामलों की सुनवाई के दौरान और अपनी व्यवस्था के माध्यम से जीवंत लोकतंत्र के लिए असहमति को महत्वपूर्ण बताया है तो कुछ न्यायाधीशों ने सार्वजनिक मंचों से देश में विपरीत विचारधारा के लिए बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त की है.
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इसमें संदेह नहीं है कि लोकतंत्र में असहमति का सम्मान होना चाहिए और आपातकाल जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हमेशा ही ऐसा होता रहा है. देश के नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान ने प्रदान कर रखा है और न्यायपालिका इस अधिकार की रक्षा भी करती आ रही है.
हमें यह ध्यान रखना होगा कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर इसे सीमित भी किया जा सकता है जबकि सांसद और विधायक पार्टी के संविधान के साथ ही दल बदल कानून से भी बंधे होते हैं.
न्यायालय ने अनेक फैसलों में कहा है कि असहमति देश में जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक है और अगर नागिरकों की गतिविधियां पुलिस की निगरानी के दायरे में रहेंगी तो देश जेल बन कर रह जाएगा जो किसी भी तरह से लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होगा.
लोकतंत्र में असहमति व्यक्त करने की एक ‘लक्ष्मण रेखा’ जरूरी है. अगर असहमति व्यक्त करने की लक्ष्मण रेखा नहीं होगी तो फिर राजनीततिक दलों में ‘नरम दल-गरम दल’ बनेंगे और इससे इतर जन-आंदोलनों में हिंसा, तोड़फोड़ और विघटनकारी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले तथ्य सक्रिय हो जायेंगे.
राजस्थान के मौजूदा संकट से उठ रहे सवाल
जहां तक सवाल दल बदल कानून के तहत बागी विधायकों को अयोग्य घोषित करने का है तो सामान्य समझ यही कहती है कि यह कानून विधानसभा के भीतर की कार्यवाही में पार्टी की व्हिप का पालन नहीं करने की स्थिति में लागू होता है. इसके अलावा, अगर किसी विधायक ने स्वेच्छा से पार्टी छोड़ दी हो या पार्टी ने उसे निष्कासित कर दिया हो तो ऐसे सदस्य के खिलाफ इस कानून के तहत कार्यवाही करने का सहारा लिया जा सकता है.
राजस्थान की राजनीति में उबाल लाने वाले बर्खास्त उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट और 18 अन्य बागी विधायकों ने अभी तक न तो पार्टी से त्याग पत्र दिए हैं और न ही उन्हें पार्टी से निष्कासित किया गया है. ऐसी स्थिति में सवाल यह उठ रहा है कि विधायक दल के अंदर पनप रहे असंतोष को खत्म करने के प्रयास में संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत अपनाई गयी अयोग्यता की कार्यवाही का सहारा लेने उचित है या नहीं?
असंतुष्ट विधायकों के खिलाफ दल बदल कानून के तहत अयोग्यता की कार्यवाही को लेकर उठे सवाल पर तो अब शीर्ष अदालत ही अपनी सुविचारित व्यवस्था देगी लेकिन जहां तक असहमति के स्वर के सम्मान का सवाल है तो न्यायालय को असहमति व्यक्त करने की सीमा को भी रेखांकित करना होगा.
राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस में चल रहे राजनीतिक घमासान पर न्यायालय की मौजूदा राय महत्वपूर्ण है लेकिन राजनीतिक दलों, विशेषकर इनके निर्वाचित सदस्यों के संदर्भ में अगर असमहति के स्वरों को अनियंत्रित तरीके से पनपने दिया गया तो क्या फिर नये सिरे से ‘आया राम-गया राम’ की संस्कृति को बल मिलने की संभावना को बल मिलेगा.
सचिन पायलट और कांग्रेस के 18 अन्य बागी विधायकों के विधायक दल की बैठकों में शामिल नहीं होने की वजह से पार्टी ने विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी से इनके खिलाफ शिकायत की थी. इसके बाद अध्यक्ष ने इन विधायकों को संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्यता की कार्यवाही के लिये नोटिस जारी किये थे. यही से इस मामले ने तूल पकड़ा और यह अदालत में पहुंच गया.
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शीर्ष अदालत भी महसूस करती है कि इन असंतुष्ट विधायकों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही शायद उचित नहीं है क्योंकि ये सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं और ऐसी स्थिति में उनके खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही करने के लिये अध्यक्ष के पास पर्याप्त वजह भी होनी चाहिए.
यही कारण है कि न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा, न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की तीन सदस्यीय पीठ को यह टिप्पणी करनी पड़ी, ‘लोकतंत्र में असहमति के स्वर दबाए नहीं जा सकते.’
‘आया राम-गया राम’ की संस्कृति पर काबू पाने के लिये ही राजीव गांधी के शासन काल में 1985 में पहली बार दल बदल कानून बनाया गया था और इसे संविधान की 10वीं अनुसूची में शामिल किया गया था.
ऐसी स्थिति में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों में असंतोष के स्वर उठने पर उन्हें दल बदल कानून का भय दिखाकर निर्वाचित प्रतिनिधियों को राजनीतिक दलों के कर्ताधर्ता अपने इशारों पर चलने के लिए बाध्य कर सकते हैं.
हमें ऐसे उपाय खोजने होंगे जिसमें लोकतंत्र में अपनी असहमति व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान भी हो और वैचारिक विरोध होने की स्थिति में कोई भी अहिंसा के मांर्ग की ‘लक्ष्मण रेखा’ भी नहीं लांघे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)