भारत में जितनी संख्या में और जितनी बर्बरता से यौन अपराध हो रहे हैं वह भारत का नाम बदनाम कर रहे हैं. समाचार देने वाले बड़े अंतर्रष्ट्रीय मंच यहां पर्यटकों के बलात्कार, महिलाओं के साथ हिंसा और उन्हें देर से या कभी न मिलने वाले इंसाफ की खबरें देते रहते हैं.
अभी पिछले महीने, विश्व धरोहर स्थल हंपी के पास रात में सैर कर रहीं दो महिलाओं और तीन पुरुषों के एक समूह, जिसमें एक अमेरिकी और दो भारतीय पर्यटक थे, के साथ क्रूर हिंसा की गई. इस समूह की दो महिलाओं में एक इज़रायली पर्यटक थीं और दूसरी उन्हें होम-स्टे की सुविधा देने वाली महिला थीं. कथित रूप से, उनसे पैसे मांगने आए तीन पुरुषों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया. इन महिलाओं के साथ जो लोग थे, उनके साथ मारपीट की गई और तुंगभद्र नहर में फेंक दिया गया जिससे एक की मौत हो गई.
उन सबके साथ जो किया गया केवल वही आतंकित नहीं करता बल्कि यह तथ्य भी दहशत में डालता है कि अंतर्रराष्ट्रीय धरोहर स्थल भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है. ऐसी ही एक घटना अकेले सैर करने आई एक ब्रिटिश महिला के साथ भी हुई, जिनका बलात्कार उस व्यक्ति ने किया जिसके साथ उनका परिचय इंस्टाग्राम पर हुआ था. इसी तरह, एक स्पेनी महिला ‘व्लोगर’ का झारखंड में समूहिक बलात्कार किया गया, जो अपने ब्राजीलियाई पति के साथ घूमने आई थीं. इस विडंबना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि यह ‘व्लोगर’ दंपती दुनिया के सबसे उपद्रवग्रस्त देशों से तो बचकर निकल गए, लेकिन उन्हें उस देश में अपमानित किया गया जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है.
भारत में केवल विदेशी पर्यटकों को यौन हिंसा का सामना नहीं करना पड़ता; अपने देश की महिलाओं के मामले में यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है. उदाहरण के लिए कुख्यात आरजी कर बलात्कार एवं हत्याकांड को लिया जा सकता है. आपको याद ही होगा कि अगस्त 2024 में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में 31 साल की पोस्ट-ग्रेजुएट मेडिकल इंटर्न का बलात्कार किया गया था. इस वारदात ने पूरे देश को क्रुद्ध कर दिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से दिए अपने भाषण में भी इस घटना का ज़िक्र किया था और “हर सरकार” से अपील की थी कि वह ऐसे मामलों को पूरी गंभीरता से लें. अब 2025 में आ जाइए, पीड़िता की मां आज भी इंसाफ की मांग कर रही हैं, मार्च में वह प्रधानमंत्री से मुलाकात करने की अपील कर रही थीं. “मेरी बेटी ने एक बड़ा सपना देखा था. हमने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी मौत इस तरह होगी. उसे गए सात महीने हो गए हैं, लेकिन न्याय कहां मिला?”
यह भी पढ़ें: स्पीड से पहले सेफ्टी—यही है भारतीय रेलवे की असली ज़रूरत
चुप्पी और माफी की संस्कृति
मूल संकट सिर्फ यह नहीं है कि ये अपराध बार-बार हो रहे हैं, बल्कि यह है कि व्यवस्था इन्हें रोकने या पीड़िता को न्याय दिलाने में विफल रहती है. 2012 के निर्भया बलात्कार कांड के बाद लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे. पहली बार ऐसा लगा था कि पूरा देश उठ खड़ा हुआ है. लोगों में गुस्सा था, एकता थी और यह उम्मीद जगी थी कि हालात बदलेंगे.
लेकिन करीब डेढ़ दशक बाद वह उम्मीद टूट चुकी है और हालात जस के तस हैं. अपराध उतना ही वीभत्स है, कभी-कभी तो उससे भी बुरा. कानून भले बदले हों, रवैया वही है. बलात्कारी बेखौफ हैं और न्याय-व्यवस्था पंगु बनी हुई है. भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के लिए सज़ा दिलाने की दर 2018-2022 से ही 27-28 प्रतिशत पर स्थिर है.
कानून का डर कहां है? अपराधियों को जब अपराध करने का कोई दंड नहीं मिलता तो उनका हौसला और बढ़ता है. हंपी बलात्कार कांड के बाद उसकी खबरें फीकी हो गईं, केवल बाद में की गईं कार्रवाइयों की कुछ रिपोर्ट छपी. क्या बलात्कारियों को पकड़ा गया, उन पर मुकदमा चला, उन्हें सज़ा मिली? लोगों को कुछ नहीं मालूम. इससे यही ज़ाहिर होता है कि भारत में न्याय एक गारंटीशुदा अधिकार नहीं बल्कि सिर्फ उम्मीद की एक फुसफुसाहट मात्र है.
सच को छिपाते आंकड़े
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की आंकड़ों के मुताबिक, 2021 में बलात्कार के 31,677 मामले दर्ज किए गए थी, यानी बलात्कार की रोज़ाना औसतन 86 घटनाएं हुईं, लेकिन यह तो केवल दर्ज किए गए मामलों का आंकड़ा था. सच कहीं ज्यादा भयावह है. पूर्व आईपीएस अफसर एस.आर. दारापुरी ने हाथरस में सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के चिंताजनक मामलों का ज़िक्र किया, जिनमें पुलिस ने पीड़िता के बयान तक नहीं दर्ज किए, सरकारी दस्तावेज़ में हेरफेर किया गया और पीड़िता के शव का देर रात में गुपचुप तरीके से अंतिम संस्कार करने की कोशिश की गई.
चौंकाने वाली बात है कि वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार के मामले भारत में अभी भी कानून की पहुंच से बाहर हैं. वैवाहिक रिश्ते से अलग, बिना सहमति के सेक्स को कानूनन बलात्कार माना गया है, लेकिन वैवाहिक रिश्ते में इसी तरह का व्यवहार कानून के दायरे में नहीं आता. अगर ऐसे मामले कानूनी दायरे में आ गए तो यौन हिंसा की दर कागज़ पर भी आसमान छूने लगेगी.
2018 में देश में यौन अपराध के 99 फीसदी मामले दर्ज नहीं किए जा रहे थे, खासकर पत्नी के साथ हिंसा के मामले. इस दावे की पुष्टि नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) से भी होती है जिसके मुताबिक, 30 फीसदी भारतीय महिलाएं अपने पति द्वारा शारीरिक और यौन हिंसा से पीड़ित थीं.
यह भी पढ़ें: KYC अत्याचार—मेरे पिता और बाकी लोगों को इस तरह तंग किया जा रहा है: कार्ती चिदंबरम
विकृत मानसिकता
आम धारणा के अनुसार, ज़रूरी नहीं कि बलात्कारी अंधेरे में छिपा कोई अजनबी ही हो. वह कोई रिश्तेदार, पड़ोसी, या परिचित भी हो सकता है. उनमें बहुसंख्या युवाओं की होती है, जो प्रायः कम पढ़े-लिखे होते हैं और उस समाज में पाले-बढ़े होते हैं जो महिलाओं को मनुष्य नहीं मानता.
शोधकर्ताओं ने जब आरोपित बलात्कारियों से पूछा कि क्या उन्होंने इससे पहले किसी को यौनाचार करने पर मजबूर किया था, तो उनमें से कई का जवाब ‘हां’ था, लेकिन उनसे जब यह पूछा गया कि उन्होंने इसके पहले किसी का बलात्कार किया था, तो उनका जवाब ‘ना’ था. उनकी मानसिक विकृति दहशत पैदा करती है. कई बलात्कारी अपनी करतूतों को लेकर कभी बुरा नहीं महसूस करते और इसमें पीड़िता की गलती बताते हैं या पीड़िता की इच्छा बताते हैं. इस तरह वह अपनी ज़िम्मेदारी से बचते हुए अपनी करतूतों को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं.
पीड़िता को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति गहरी है. उनका प्रायः यह कहना होता है कि ‘उसे रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए था’, ‘उसे इतने तंग कपड़े नहीं पहनने चाहिए थे’, वगैरह-वगैरह. इस तरह का आपराधिक और विकृत सोच आम है. यह हमारे समाज की हकीकत है, जिसमें महिलाओं को स्वतंत्र मनुष्य नहीं बल्कि ऐसी चीज़ समझा जाता है जिस पर नियंत्रण रखना ज़रूरी है, अन्यथा उनका उल्लंघन किया जाता है.
बलात्कार के इस पहलू की अक्सर अनदेखी की जाती है कि बलात्कारी ताकत, ज़ोर-जबरदस्ती और डर का इस्तेमाल करके पीड़िता के आत्मबल को तोड़ता है और उसे बेबस करता है या सहमत होने पर मजबूर करता है. पीड़िता को जो चोट पहुंचाई जाती है वह उसे गहरे भावनात्मक जख्म देती है, जो शरीर के घाव भरने के बाद भी लंबे समय तक हरे रहते हैं.
बलात्कार केवल वासना नहीं है, यह अपना वर्चस्व जताने का भी एक उपक्रम है जिसकी जड़ें अधिकार की नशीली संस्कृति में धंसी होती हैं जो व्यक्ति को उसकी स्वायत्तता से वंचित करती है. बलात्कारी पीड़िता पर अपना दबदबा जताता है और लिंग संबंधी घातक समीकरण और सामाजिक असमानताओं को मजबूती देता है.
अधिकार, नियंत्रण और पीड़ित को दोषी बताने की इस गहरी प्रवृत्ति से समाज जब तक नहीं निबटता, तब तक सच्चा न्याय और समानता महिलाओं की पहुंच से दूर ही रहेगी.
क्या-क्या बदलाव ज़रूरी
भारत में बलात्कार की समस्या केवल कानूनी विफलता का मामला नहीं, यह समाज, समाजीकरण और सामाजिक अनुकूलन की भी विफलता का मामला है. लंबे समय से प्रायः सारे परिवार अपने बेटों को अधिकार की संस्कृति में पालते रहे हैं, न कि सहानुभूति की संस्कृति में — ऐसी संस्कृति में जिसमें पुरुषों को महिला का सम्मान, उनकी सहमति, या स्त्री-पुरुष समानता की ज़रूरत का कोई एहसास नहीं होता. घर में इन बातों पर चुप्पी समाज में मिलीभगत का रूप ले लेती है. जब तक युवाओं को यह नहीं बताया जाता कि महिलाएं उनकी समकक्ष हैं जिन्हें समान अधिकार, समान एजेंसी, समान गरिमा हासिल है तब तक कोई कानून महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोक नहीं सकता.
कानून लिखे जा सकते हैं और सुधारे जा सकते हैं और सज़ा बढ़ाई जा सकती है, लेकिन जब तक यौन हिंसा, पीड़ित को दोषी बताने और अपराधी को बचाने की संस्कृति कायम रहेगी तब तक न्याय नहीं हो सकता. समाज की मानसिकता, जो पितृसत्ता, पीड़िता को ही शर्मसार करने, और इज्जत-आबरू की विषैली धारणाओं में जड़ जमाए होती है वह बलात्कार को न केवल एक संभावना बना देती है बल्कि वह खुद एक ऐसा कवच बन जाती है जिसे अक्सर मजबूती प्रदान की जाती है.
हर एक न्याय व्यवस्था की सफलता दो बातों पर निर्भर होती है — सज़ा की कठोरता और सज़ा दिलाने की संभावना पर. भारत में पहली बात पर ज़ोर दिया जाता है और अपराधी के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा की घोषणा की जाती है, लेकिन इस नीति का कोई फल नहीं निकला है. सच क्रूर है मगर स्पष्ट है : कि सज़ा का डर तभी कारगर होता है जब सज़ा मिलना मुमकिन लगता हो. भारत में इसकी संभावना अक्सर नहीं के बराबर होती है. इसके अलावा, विडंबना यह है कि जुर्माने में बढ़ोतरी पीड़िता को ऐसी घटनाओं की खबर देने से रोक सकती है, खासकर तब जब बलात्कारी रिश्तेदार या परिचित हो. दीर्घकालिक समाधान न केवल कड़े कानूनों में है, बल्कि मानसिकता परिवर्तन में है.
शिक्षा, जागरूकता और महिलाओं के सम्मानजनक सह-अस्तित्व के बारे में सही जागरूकता को पूर्व-शर्त बनाना ज़रूरी है. युवा महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में भी शिक्षित होने की ज़रूरत है. स्कूलों में लड़का-लड़की की समानता को सिद्धांत से ज्यादा जीने के मूल्यों के रूप में पढ़ाने की ज़रूरत है.
एक राष्ट्र के रूप में हमें इस महामारी का इलाज केवल अदालतों में नहीं बल्कि स्कूली कक्षाओं और घरों में, मीडिया में और सड़कों पर करना होगा क्योंकि जब तक ऐसा नहीं करेंगे, भारत में कोई महिला सुरक्षित नहीं रह पाएगी.
जिस राष्ट्र की आधी आत्मा भयग्रस्त रहेगी उसका कभी उत्कर्ष नहीं हो सकता. भारत जब तक अपनी महिलाओं पर शासन करना नहीं बल्कि उनकी रक्षा करना नहीं सीखेगा तब तक वह सही मायनों में आज़ाद नहीं हो पाएगा.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: भगदड़ जैसे हादसे और मौतें शहर के बुनियादी ढांचे की कमी को दिखाते हैं, सरकार सिर्फ जुबानी कार्रवाई न करे