आज की दुनिया में विशाल कंपनियों और आम जन के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है. कंपनियों को प्रायः प्रतियोगी बाज़ार में मुनाफा कमाने वाली इकाइयों के रूप में देखा जाता रहा है, लेकिन आज की वास्तविकता कुछ ज्यादा जटिल हो चुकी है. किसी देश के कुल राजस्व के बराबर आमदनी करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेट घरानों ने अकूत ताकत, प्रभाव, और संसाधनों पर कब्ज़ा करके अपना वर्चस्व कायम कर लिया है. शक्ति के इस केन्द्रीकरण के कारण कॉर्पोरेट सामंतों और सामान्य नागरिकों के बीच खाई बढ़ गई है और आम लोगों की आवाज़ें अनसुनी रह जाती हैं और उनकी शिकायतों का निबटारा नहीं होता.
शक्ति का यह असंतुलन कई अहम रूपों में प्रकट होता है — बड़े व्यावसायिक घरानों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ गया है, कॉर्पोरेट संस्कृति दैनंदिन जीवन को प्रभावित कर रही है और कॉर्पोरेट घरानों की वित्तीय ताकत बढ़ गई है. इन सबका नतीजा यह है कि वह बाज़ारों, नीतियों और मीडिया के नैरेटिव को इस तरह प्रभावित करते हैं ताकि उनका वर्चस्व स्थापित हो. इसके कारण एक ऐसी व्यवस्था आकार लेती है जिसमें आम नागरिक हाशिये पर धकेल दिया जाता है, जबकि कॉर्पोरेट घराने अपनी मनमर्जी चलाते हैं और समतामूलक संवाद या सच्ची सार्वजनिक जवाबदेही के लिए कम गुंजाइश ही बच पाती है.
यह भी पढ़ें: अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले मिडिल-क्लास की आवाज बुलंद करने की ज़रूरत
ग्राहकों का कैसे शोषण करती हैं कंपनियां
कई कंपनियां ग्राहकों को संतुष्ट करने की जगह केवल अपना मुनाफा बढ़ाने के फेर में रहती हैं, जिससे लोगों को काफी परेशानी और हताशा होती है. उदाहरण के लिए ओला और ऊबर जैसी विशाल कंपनियां सप्लाई के अनुसार, दाम बढ़ाने या ड्राइवर द्वारा बुकिंग रद्द करने जैसे कदम उठाकर ग्राहकों को त्रस्त किया करती हैं, लेकिन ओला का यह मामला टैक्सी सर्विस और इलेक्ट्रिक स्कूटरों से भी आगे बढ़ गया है और उसकी सेवाओं के खिलाफ ग्राहकों की शिकायतों का अंबार लगा है. ‘मिंट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस कंपनी को हर महीने करीब 80,000, और किसी-किसी दिन तो छह से सात हज़ार तक शिकायतें मिलती हैं. इन शिकायतों के चलते इसके सर्विस सेंटर त्रस्त हैं और इस वजह से सेवाओं में देरी हो रही है और इसके कर्मचारियों तथा ग्राहकों में हताशा छा रही है. सर्विस के लिए घर से पिकअप करके वापस घर पहुंचाने वाली ‘ओला केयर प्लस’ पेड प्लान के तहत बुकिंग में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है और मरम्मत आदि के लिए 30 से 45 दिन तक इंतज़ार करना पड़ता है.
हताश ग्राहक ‘एक्स’ जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी शिकायतें दर्ज कर रहे हैं. मसलन नागपुर के अखिलेश धबर्दे ने लिखा है कि उन्होंने अपने स्कूटर स्टैंड के सेंसर की खराबी ठीक करवाने के लिए सर्विस सेंटर में भेजा मगर वह तीन महीने तक वहां पड़ा रहा. यही नहीं, उनके स्कूटर में बैटरी फेल, रेंज में कटौती, पहिए जाम होने आदि की समस्याएं भी पैदा हो गईं. इससे उजागर हुआ कि पेट्रोल वाले स्कूटर के मुकाबले बिजली वाले स्कूटर की क्षमता कितनी कमज़ोर है. नीरज गुप्ता को भी इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ा, उनका स्कूटर हैंडल के लॉक होने तथा दूसरी खराबियों के कारण डेढ़ महीने तक ठप रहा. गुप्ता की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो उन्होंने राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम का दरवाजा खटखटाया.
ग्रामीण बेंगलुरु निवासी लेक्चरर निशा सी. शेखर को अपने स्कूटर की सर्विस करवाने के लिए छह महीने तक इंतज़ार करने के बाद स्कूटर के साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई जिसमें उन्होंने हाथ में एक तख्ती ले रखी थी जिस पर लिखा था — ‘ओला स्कूटर कभी मत खरीदना’; यह फोटो उन्होंने सोशल मीडिया पर डाल दी, जो खूब वाइरल हुई, लेकिन उनकी समस्या तभी दूर की गई जब उन्होंने उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज की, लेकिन उन्होंने प्रोडक्ट में भरोसा खो देने के कारण रिफंड की मांग की है. एक नाटकीय उदाहरण सितंबर में सामने आया जब ओला के एक हताश ग्राहक ने कर्नाटक में एक डीलर के यहां आग ही लगा दी (इस तरह की कार्रवाई न तो जायज़ है, न इसका समर्थन किया जा सकता है). बहरहाल, यह ग्राहकों के बढ़ते असंतोष को ही उजागर करता है.
सर्विस और जवाबदेही के मामलों में इस तरह की विषमता के उदाहरण तमाम उद्योगों में व्यापक रूप से पाए हैं. टेलिकॉम कंपनियां गुप्त वसूली करती हैं और ग्राहकों को खराब सेवाएं देती हैं, जबकि तमाम ई-प्लेटफॉर्म सेवा उपलब्ध कराने में देरी और खराब किस्म के प्रोडक्ट देने के लिए आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं. बैंकों में ग्राहकों से गुप्त फीस वसूली जाती है और उन पर जटिल नीतियों का बोझ डाला जाता है. बीमा कंपनियों का भी यही हाल है, वह अस्पष्ट आधारों पर दावों को खारिज करती रहती हैं और इमरजेंसी में सहायता करने का आश्वासन देकर मोटी किश्तें वसूलती हैं, लेकिन ग्राहक जब लाभ पाने के लिए दावा करते है तब उन्हें निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि कंपनियां बारीक शब्दों में छपी शर्तों का हवाला देकर उन्हें पूरा भुगतान देने से मना कर देती हैं.
पुणे के अतुल ने अपनी परेशानी के बारे में मुझे बताया कि “मैं भी इससे भ्रष्ट सिस्टम का भुक्तभोगी हूं. कुछ साल पहले मेरा ‘सिबिल स्कोर’ मेरे पिता की बीमारी की वजह से प्रभावित हुआ. इंडियन बैंक के कर्मचारी रहे मेरे पिता ने सेवाएं दी मगर उन्हें कर्ज़ देने से मना कर दिया गया. उस दौर की वजह से आज तक मेरा क्रेडिट स्कोर प्रभावित है. जैसा कि आपने कहा, इस स्कोर की गणना में कोई पारदर्शिता नहीं है. अलग-अलग क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां अलग-अलग रेटिंग देती हैं. मेरा मानना है कि सरकार को करोड़ों भारतीयों की गोपनीय जानकारियां अपने अधीन रखनी चाहिए.” इसी तरह, तेलंगाना के डॉ. सी. राजकुमार ने बताया, “कोटक बैंक से लिया कर्ज़ मैंने अगस्त 2023 में चुका दिया, मुझे ‘एनओसी’ भी मिल गई. फिर भी मेरी ‘सिबिल’ रिपोर्ट दिखा रही है मेरा कर्ज़ बाकी है. मेरे जैसे डॉक्टर के साथ यह हो रहा है तो आम आदमी के साथ क्या होता होगा?”
यह भी पढ़ें: भारत के लोग नहीं जानते उनका क्रेडिट स्कोर कैसे तय होता है, ‘सिबिल’ पर सरकारी निगरानी ज़रूरी
हताशा का चक्र
भारत में उपभोक्ता सुरक्षा मुख्यतः ‘उपभोक्ता सुरक्षा कानून, 2019’ के तहत दी जाती है, जिसमें उपभोक्ताओं के प्रमुख अधिकारों के अलावा उनकी सुरक्षा, सूचना, और अनुचित व्यापार आचरणों के मामले में न्याय दिलाने की व्यवस्था दर्ज़ है. इस कानून में उपभोक्ताओं की शिकायतों के निबटारे की जिला, राज्य, और राष्ट्रीय स्तरों पर फोरम की व्यवस्था की गई है. इसके साथ ही, भ्रामक विज्ञापन और असुरक्षित उत्पादों आदि के मसलों से निबटने के लिए केंद्रीय उपभोक्ता सुरक्षा प्राधिकरण (सीसीपीए) का गठन किया गया है.
इन व्यवस्थाओं के बावजूद, जन शिकायतों का निबटारा करने के लिए बनीं लोकपाल और अदालतों जैसी संस्थाएं आम जनता की पहुंच से दूर ही हैं. कई उपभोक्ताओं को इन संस्थाओं से काम कराने की प्रक्रिया ही नहीं मालूम होती, उन्हें यह नहीं पता होता कि शिकायत कहां दर्ज़ कराएं. जो अर्ज़ी दाखिल कर भी देते हैं वह खुद को नौकरशाही के जाल में उलझा हुआ पाते हैं, जहां मामला एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर में भेजा जाता रहता है और बात आगे नहीं बढ़ती.
लोग प्रशासन और नौकरशाही की जिन अड़चनों का सामना करते हैं वह भी इस विषमता को और बढ़ाता है. मसलन, भारत में नौकरशाही बाधाओं और घोर भ्रष्टाचार के कारण ज़मीन के सही स्वामित्व का पट्टा हासिल करने में पीढ़ियां लग जाती हैं.
राजनीतिक ताकत पर कब्ज़ा और जवाबदेही से छुटकारा
कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच जो शक्ति असंतुलन है उसे दूर करने के लिए व्यवस्था में सुधार और जनता के प्रति सहानुभूति रखने वाला प्रशासन चाहिए. सरकार नियमन और निगरानी के ढांचों को मजबूत करे ताकि शिकायत निबटारे की व्यवस्था तक लोगों की पहुंच आसान हो और उपभोक्ताओं के अधिकारों को मजबूती से लागू किया जाए. हर एक जिले में जन शिकायत दफ्तर खोलने से उपभोक्ताओं को विवादों का समाधान करवाने और न्याय पाने का एक प्रत्यक्ष एवं कार्यकुशल केंद्र उपलब्ध हो सकता है. इसके साथ ही, कॉर्पोरेट घरानों को पारदर्शिता, गुणवत्ता को प्राथमिकता देने तथा मुनाफे से ज्यादा जवाबदेही को तरजीह देने वाली नैतिक प्रक्रियाओं को अपनाना चाहिए. मुखर समूह और डिजिटल प्लेटफॉर्म भी उपभोक्ताओं की आवाज़ उठा सकते हैं और सामूहिक कार्रवाई तथा जागरूकता को बढ़ावा दे सकते हैं. लोगों को वित्तीय तथा कानूनी मामलों का जानकार बनाकर उनमें जटिल व्यवस्था से निबटने का आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है.
सबसे अहम तो यह है कि जनता के प्रति सहानुभूति रखने वाली संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए जिसमें नीतियों और प्रक्रियाओं को उपभोक्ताओं की समस्याओं की गहरी समझ के आधार पर तय किया जाए. महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था: ‘ग्राहक हमारे दरवाजे पर आया सबसे महत्वपूर्ण मेहमान होता है; वह हमारे ऊपर निर्भर नहीं होता बल्कि हम उसके ऊपर निर्भर होते हैं.’ ग्राहकों के साथ कदम मिलाकर चलते हुए ही हम एक ऐसा भविष्य बना सकते हैं जिसमें प्रगति और न्याय साथ-साथ चल सकते हैं.
डिस्क्लोजर : ओला के संस्थापक भाविश अग्रवाल दिप्रिंट के निवेशकों में से हैं. निवेशकों के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया यहां क्लिक करें.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ‘पैसा विदेशों में जाने से आई गिरावट’, अप्रैल-अक्टूबर 2024 में FDI पहुंचा 12 साल के निचले स्तर पर