कोविड के दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अर्थव्यवस्था पर ज़ोर देते रहे हैं और अब करीब एक साल से वे ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे पर ज़ोर दे रहे हैं. कुछ लोगों को यह खोखले आर्थिक राष्ट्रवाद का नारा लगता है; तो कुछ लोग इसे आयात का विकल्प ढूंढ़ने की संरक्षणवादी कोशिश मान कर इसका समर्थन कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि सरकार के नीतिगत कदमों से मैन्युफैक्चरिंग को मजबूती मिलेगी. उनका यह भी मानना है कि चूंकि कोरोनावायरस ने सप्लाई चेन को अस्त-व्यस्त कर दिया और चीन ने भारत के खिलाफ सैनिक आक्रामकता का कदम उठाया, इसलिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ ही हमारे लिए एकमात्र विकल्प रह गया है.
‘आत्मनिर्भर भारत’ नारे की सियासी कामयाबी पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की गई है. कई लोगों को आश्चर्य होता है कि 2016 की नोटबंदी के बाद से लगातार आर्थिक गिरावट जारी रहने के कारण आई मंदी के बावजूद मोदी की लोकप्रियता क्यों कायम है. इस सवाल के जवाब में आपको प्रायः ये कारण बताए जाएंगे— हिंदुत्व, प्रोपेगेंडा, मीडिया पर नियंत्रण, कमजोर विपक्ष, आदि-आदि. लेकिन एक बड़ा कारण है ‘आत्मनिर्भर भारत’ को लेकर मोदी और भाजपा की सियासी मुहिम.
कोविड और लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को भारी झटका दे दिया, तो मतदाताओं की ओर से सीधा सवाल यही उठेगा कि मोदी अर्थव्यवस्था के लिए क्या कर रहे हैं? पैसा कहां है? हम रोटी कैसे खरीदें? रोजगार और आर्थिक वृद्धि कब वापस हासिल होगी? मीडिया और जनता अभी कोविड से जूझ ही रही थी कि मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे के साथ अर्थव्यवस्था पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर दिया.
‘इंडिया टुडे’ के ताजा सर्वे ‘देश का मिज़ाज’ में भाग लेने वालों में 46 प्रतिशत लोगों ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ को ‘बहुत अच्छी पहल’ कहा है. यह लगभग उस वोट प्रतिशत (44) के बराबर है, जो भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को 2019 के लोकसभा चुनाव में हासिल हुआ था.
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‘आत्मनिर्भर भारत’ नारे के साथ मोदी ने अपनी सबसे बड़ी कमजोरी, अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए अपनी सबसे मजबूत राजनीतिक पूंजी, राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया. आश्चर्य की बात है कि अर्थव्यवस्था के सवाल पर सीधे राष्ट्रवाद का प्रयोग करने में उन्होंने इतनी देर लगा दी, जबकि दुनिया इस लहर में तभी से बहने लगी थी जब 2016 में डोनाल्ड ट्रंप ने वैश्वीकरण पर आम सहमति को भंग किया था.
‘विजन’ से ‘विजन’ तक
यह नारा कारगर होगा या नहीं, इसका कोई आर्थिक लाभ हासिल होगा या नहीं, यह और बात है मगर ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल की कामयाबी को उस ‘नशे’ के संदर्भ में समझा जा सकता है जिसे ‘विजन’ या ‘सपना’ कहा जाता है. यह उम्मीद जगाने का एक जरिया है. ‘सपना’ जनता के लिए अफीम है. उसे ‘सपना’ दिखाते रहिए और वह सोचती रहेगी कि आप उसे बेहतर मुकाम की तरफ ले जा रहे हैं. गाड़ी आगे बढ़ रही है, भले ही सफर लंबा और तकलीफदेह हो सकता है. दिल्ली दूर है मगर हम वहां पहुंचकर रहेंगे.
मोदी के सियासी सफर को ‘एक सपने से दूसरे सपने तक’ जारी रहने वाला सफर कहा जा सकता है. उन्होंने शुरुआत ‘अच्छे दिन’ के सपने से की थी. नोटबंदी नाकाम रही तो उन्होंने ‘न्यू इंडिया 2022’ का सपना दिखाया. इस बीच में ये इंडिया, वो इंडियानुमा कई नारे दिए गए, जो खारिज कर दिए गए. ‘देश का मिज़ाज’ जैसे नियमित सर्वेक्षणों में मोदी की सबसे नीची रेटिंग जनवरी 2019 में देखी गई. यह तब हुआ जब कृषि संकट के कारण भाजपा के छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे गढ़ उसके हाथ से फिसल गए. लेकिन इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में केवल बालाकोट ने नहीं बल्कि किसानों के खातों में सीधे नकदी डालने जैसे उपायों ने मोदी को शिखर पर पहुंचने में मदद की.
इसके ठीक बाद मोदी ने 2024 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर के बराबर की बनाने का नया नारा देकर यह कोशिश शुरू कर दी कि लोग 2022 के लिए किया गया उनका वादा भूल जाएं. (2021 की लाभ वाली स्थिति में अमेरिकी डॉलर के हिसाब से भारत को परिभाषित करना ‘आत्मनिर्भरता’ का परिचायक नहीं माना जा सकता). वैसे, 5 खरब वाला सपना संभव नहीं ही था, भला हो कोविड का कि उसने इस सपने को भूलने का बहाना जुटा दिया. और तब हमें ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा थमाया गया.
सपनों की इस बारात की आप हंसी उड़ा सकते हैं, मगर राजनीति में यह चमत्कार कर देती है. एक समय, एक हस्ती ऐसी हुई थी जो सपने बेचने में इतनी कुशल थी कि उसे लोक संस्कृति में आज भी, उनके निधन के वर्षों बाद भी याद किया जाता है, उस हस्ती का नाम था ए.पी.जे. अब्दुल कलाम.
आपके जीवन की प्रेरणा
टॉक शो की मेजबान ओपरा विनफ्रे कई वर्षों से अमेरिकियों को प्रेरित करने वाले सपनों का खाका तैयार करने की सलाह देती रही हैं. वे चाहती हैं कि हर कोई अपने जीवन के लिए सपनों का एक बोर्ड तैयार करे और उस पर लिखा करे कि इस साल वह क्या हासिल करना चाहता है. इसके पीछे सोच यह है कि जब आप अपने सपने को लिखेंगे तब इससे आपको उसका खाका खींचने में मदद मिलेगी और आप उसे वास्तविकता के तौर पर महसूस करेंगे.
बराक ओबामा के लिए 2008 में चुनाव प्रचार करते हुए उनकी पत्नी मिशेल ने मतदाताओं को विश्वास दिला दिया था कि नये अश्वेत सीनेटर ही राष्ट्रपति बनने वाले हैं. एक रैली में मिशेल ने कहा था, ‘मैं चाहती हूं कि यहां से लौटने के बाद आप सब यही कल्पना करें कि बराक ओबामा राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे हैं.’ उस रैली में शामिल ओपरा विनफ्रे ने घर लौटने के बाद दो तस्वीरें अपने बोर्ड पर लगा दीं— एक ओबामा की और दूसरी उस गाउन की जिसे वे उनके शपथ ग्रहण समारोह में पहनेंगी.
गरीबी हटाओ
विपक्ष को मालूम होना चाहिए कि सपने की और पूर्व कल्पना की ताकत क्या होती है. उसे भाजपा को अगर मात देनी है तो उसे मतदाताओं को न केवल एक बेहतर विकल्प का सपना दिखाना होगा बल्कि उस सपने का खाका और एक सटीक नारा भी देना होगा. इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे में एक सपना दिखाया था. 2004 में कांग्रेस पार्टी ने मतदाताओं से पूछा था— ‘आम आदमी को क्या मिला?’ जाहिर है, यह ‘इंडिया शाइनिंग’ के बदले एक वैकल्पिक आर्थिक सपना पेश करने की कोशिश थी.
विपक्ष की ओर से ऐसा ही एक सपना रोजगार को लेकर पेश किया जा सकता है. नोटबंदी के बाद हुए तमाम सर्वे में रोजगार ही मोदी के दौर की सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभरा है. हाल ही में हमने देखा कि बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियां देने का वादा करके कैसी लहर पैदा कर दी थी.
राहुल गांधी का 2019 का नारा ‘चौकीदार चोर है’ भविष्य के लिए कोई सपना नहीं प्रस्तुत करता था, और भ्रष्टाचार जैसे अप्रासंगिक मुद्दे को निशाना बनाता था. उन्होंने और उनकी पार्टी ने न्यूनतम आय योजना के वादे के साथ ‘अब होगा न्याय’ जैसा दूरदर्शितापूर्ण नारा जरूर दिया लेकिन यह चुनाव से ठीक पहले दिया गया. इसकी विफलता से उन्हें यह सबक लेना चाहिए कि नारा आम चुनाव से ठीक एक महीना पहले नहीं बल्कि हर साल, हर सीजन में देने की जरूरत है.
यह बात इतनी साफ है, मगर विपक्ष यह नहीं कर पा रहा है. या हो सकता है कि वह हर दिन इसकी बात करता है और हम ही उसे सुन नहीं पा रहे हैं. उसे नारों में बात करनी चाहिए और सपनों का ‘विजन बोर्ड’ बनाना चाहिए. अगर उन्हें संवाद करने की कला नरेंद्र मोदी से सीखने का सुझाव पसंद नहीं है तो वे ओपरा विनफ्रे या ओबामा दंपति से सीख सकते हैं, शायद!
(लेखर दिप्रिंट के कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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