नरेंद्र मोदी बेशक एक करिश्माई नेता हैं. कोरोनावायरस महामारी के दौरान भी उनका जादू कायम है. लेकिन सवाल है कि क्या उनका ये करिश्माई व्यक्तित्व महामारी से लड़ने, लोगों की तकलीफों को कम करने और देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में सफल होगा? क्योंकि ये वो कार्यभार हैं जो किसी करिश्माई व्यक्तित्व की नहीं, बल्कि एक तार्किक-विधिक कार्यप्रणाली और मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं की मांग करते हैं. क्या इस कार्यभार को पूरा करने के लिए नरेंद्र मोदी अपने व्यक्तित्व और नेतृत्व की शैली में बदलाव करेंगे और करिश्माई नेता से आगे बढ़कर एक ऐसे नेता बनेंगे जो व्यक्तिगत पसंद और नापसंद से हटकर, तय नियमों के मुताबिक, संस्थाओं के माध्यम से काम करे?
कोरोनावायरस के प्रकोप के दौरान देश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का जादू एक बार फिर देखा. जब उन्होंने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगाकर कहा कि शाम को बॉलकनी या घर से बाहर आकर कोरोना वारियर्स के लिए ताली और थाली बजाइए, तो लाखों लोगों ने ऐसा ही किया. फिर लॉकडाउन के बीच में जब उन्होंने एक दिन लोगों से 9 बजे 9 मिनट के लिए घरों की लाइट बुझाकर दीया-बाती-मोमबत्ती जलाने को कहा तो लोगों ने वह भी कर दिया. बल्कि कुछ लोग तो ज्यादा ही आगे बढ़कर मोदी की बातों को लागू करने में लग गए. लोगों ने ताली बजाने के साथ जुलूस भी निकाल लिया और कोरोना के खिलाफ नारे भी लगाए. दीया और मोमबत्ती के साथ पटाखे भी फोड़े गए और ऐसा लगा मानों गर्मियों में एक बार फिर से दीवाली मनाई गई.
नरेंद्र मोदी में अनुयायियों की आस्था
नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों के बीच भगवान जैसी छवि रखते हैं. उनके कहने पर लोग उठते-बैठते हैं. ये असंदिग्ध किस्म की आस्था है. लोगों का ऐसा समर्पण अपने समय में महात्मा गांधी, दूसरे विश्वयुद्ध से पहले के तानाशाहों और फिडेल कास्त्रों जैसे लोकप्रिय नेताओं को मिला था. मोदी के प्रति ऐसा भाव रखने वालों का विस्तार असीम है और इसमें कई जाति-वर्ग के लोग हैं. भारत का कोई भी नेता इस बात के लिए मोदी से जलन कर सकता है. अपनी इस ताकत के साथ मोदी चुनावों को पूरी तरह से अपने कंधे पर उठाकर लड़ते हैं और अब तक उन्हें लगभग लगातार सफलताएं मिली हैं. विपक्ष इस समय हाल के वर्षों के सबसे बुरे दौर में है.
कोरोना काल में करिश्माई नेता का होना
लेकिन कोरोनावायरस महामारी के दौर में दुनिया के कई करिश्माई नेता बौने नजर आ रहे हैं. उनमें सबसे बड़ा नाम डोनाल्ड ट्रंप का है, जिनकी कार्यशैली लगातार आलोचना के दायरे में है. बल्कि इस दौरान न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डेन ज्यादा कामयाब नेता बनकर उभरी हैं, जिनकी पहचान उनके व्यक्तित्व के करिश्मे का कारण नहीं, बल्कि संविधान के दायरे में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने और सहज मानवीय गुणों के कारण हैं.
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ये मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि ये महामारी बहुत सारे व्यतिक्रम पैदा कर रहे हैं और तय ढांचे और मापदंडों को नष्ट कर रही है. इसकी वजह से मानव सभ्यता ही नहीं, पूरे प्राणी जगत में बेहिसाब उथल-पुथल मची हुई है और इसका सामना भी असामान्य तौर तरीकों से ही मुमकिन है. सारे करिश्मे इसके सामने फेल हैं.
नरेंद्र मोदी के शासन का तरीका
करिश्माई नेताओं में कई गुण होते हैं. लेकिन कई समस्याएं भी होती हैं. उनकी सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि वे जिस ढांचे को संचालित करते हैं या जो ढांचा उनके लक्ष्यों को आगे बढ़ाता है, उसे तार्किक-विधायी मान्यता नहीं होती है. ऐसे नेता अक्सर मनमाने तरीके से, ढीला-ढाला तंत्र बनाते हैं और उसे मनमाने तरीके से तोड़ते मरोड़ते हैं. नरेंद्र मोदी को देखा जाए तो वे अपने बड़े फैसलों से पहले कैबिनेट या अपने पार्टी तंत्र के नेताओं या संसदीय दल की बैठक नहीं करते.
उनकी घोषणाओं में एक औचकपन होता है, जो ढेर सारे लोगों को फैसला लेने की प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाने की स्थिति में संभव नहीं है. वे अपने फैसलों से अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को भी चौंकाते हैं. कई बार वे फैसला कर लेने के बाद कैबिनेट की औपचारिक बैठक करते हैं. नोटबंदी के दौरान इस तरह के आरोप लग चुके हैं. लॉकडाउन की घोषणा करने से पहले उन्होंने मुख्यमंत्रियों से बात नहीं की, जबकि लॉकडाउन को लागू करने का काम दरअसल राज्य सरकारों को ही करना था. नोटबंदी या लॉकडाउन कोई अपवाद नहीं है. ये नरेंद्र मोदी की कार्यशैली है.
संस्थाओं के जरिए काम करना मोदी की शैली नहीं
कल्पना कीजिए अगर मोदी ने कोरोना की समस्याओं से निपटने के लिए एक सर्वदलीय सलाहकार समिति बनाई होती तो शायद उनकी बैठक में कोई नेता उन्हें ये बता देता कि बिना प्रवासी मजदूरों का इंतजाम किए लॉकडाउन करने की स्थिति में उसे लागू कराना संभव नहीं हो पाएगा. शायद कोई नेता अप्रिय होने का जोखिम उठाकर उन्हें बता देता कि जिस तरह से ये लॉकडाउन किया जा रहा है, उसका उलटा असर पड़ेगा. ये सुझाव उनके दल के सांसद भी दे सकते थे, क्योंकि नेता अक्सर जनता से ज्यादा जुड़े होते हैं.
नरेंद्र मोदी ऐसी सलाहों के लिए अपने पीएमओ और अफसरों पर निर्भर रहते हैं. एक नौकरशाह ने मुझे बताया कि उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि लॉकडाउन के बाद लाखों लोग अपने गांव जाने के लिए इस तरह पैदल या साइकिल लेकर निकल जाएंगे. दरअसल प्रवासी मजदूरों की आर्थिक और मानसिक स्थिति को समझ पाने के लिए जिस समझदारी की जरूरत थी, वह नरेंद्र मोदी के सलाहकारों के पास थी ही नहीं या फिर उनमें इस बात को प्रधानमंत्री तक पहुंचाने का साहस नहीं था. जनता की मानसिक स्थिति के साथ उनकी दूरी इस कदर है कि वे समझ नहीं पाए कि रात आठ बजे अगर ये घोषणा की जाएगी कि आज रात 12 बजे से लॉकडाउन होगा तो सारे लोग एक साथ राशन और जरूरी सामान लेने के लिए भागेंगे और सोशल डिस्टेंसिंग लॉकडाउन लागू होने से पहले ही फेल हो जाएगी.
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नरेंद्र मोदी शासन में तार्किक-विधायी प्राधिकार की जो कमी है, उसे सलाहकारों और चंद नौकरशाहों के जरिए पूरा करने की कोशिश की जा रही है. ये सभी अपने नरेंद्र मोदी के चुने हुए लोग हैं और उनकी कृपा के आकांक्षी हैं. ये स्वतंत्र नौकरशाही नहीं है, जिसे ये डर न हो कि कोई उसका इस्तीफा ले लेगा. एक स्थापित तंत्र में मौजूद नौकरशाह का आम तौर पर ट्रांसफर तो हो सकता है, लेकिन उसकी नौकरी ले लेना एक कठिन काम है. यह उसे एक स्थायित्व देता है और उसमें सही बात कहने और करने का साहस भी देता है. बेशक इसका इस्तेमाल कम ही अफसर करते हैं.
दिशाहीन नौकरशाही पर निर्भरता
नौकरशाही इस समय इतनी दिशाहीन है कि हर विभाग और मंत्रालय अलग-अलग दिशाओं में और कई बार विपरीत दिशाओं में चल रहे हैं. राज्यों और केंद्र की नौकरशाही में भी तालमेल नहीं है क्योंकि शीर्ष पर यानि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के बीच नियमित बातचीत कम ही होती है, जबकि ये हर दूसरे दिन होनी चाहिए. स्थिति ये है कि केंद्र सरकार कोरोना को लेकर अब तक 4,000 से ज्यादा अधिसूचनाएं, आदेश और सर्कूलर जारी कर चुकी है. कई बार हड़बड़ी में जारी किए गए नोटिफिकेशन में कुछ छूट जाता है या कोई गलती रह जाती है तो उसके लिए स्पष्टीकरण जारी किया जाता है. ये घोषणाओं का ऐसा मकड़जाल है तो अक्सर फ्रैंज काफ्का के उपन्यासों और कहानियों में देखने को मिलता है, जहां फंसकर आदमी कुत्ते की मौत (लाइक अ डॉग, द ट्रायल कहानी का अंत इसी रूप में होता है) मरता है.
दरअसल, इस समय एक ऐसे तंत्र की कमी बहुत ज्यादा महसूस हो रही है, जिसमें संस्थाएं स्वायत्त लेकर एक लक्ष्य की दिशा में समान सुर-ताल के साथ काम करें. संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सीएजी, मीडिया, विभिन्न आयोग और रेगुलेटर और यहां तक कि सिविल सोसायटी की संस्थाएं अपने निर्धारित काम बिना राग और द्वेष के संपन्न करें. ऐसी स्थिति में ही लोकहित के मुद्दों पर अबाध विमर्श संभव है, जो किसी भी लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है.
भारत में क्या हो सकता है?
क्या भारत में ये संभव है? जाहिर है कि इस समय भारत में ये तमाम संस्थाएं अस्त-व्यस्त हैं. इन्हें ठीक करने के लिए हमें कामकाज की करिश्माई शैली नहीं, विधिसम्मत तरीके से काम करने वाली संस्थाएं चाहिए. करिश्माई नेता ऐसी संस्थाएं नहीं चाहते. इसलिए नहीं कि वे ऐसा नहीं कर सकते. बल्कि यदि वे ऐसा करते हैं, तो फिर उनका करिश्मा कायम नहीं रह पाएगा. संस्थाएं अपने दम के साथ काम करने लगे, तो काम नियम से होने लगेंगे. फिर करिश्माई नेता महाबली नहीं रह जाएगा.
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करिश्माई नेता सामान्य स्थितियों में संस्थाओं को कुचलकर या उन्हें पंगु बनाकर चलता है. लेकिन ये न भूलें कि कोरोना महामारी एक असामान्य स्थिति है. मोदी के पास इससे पहले ऐसा कोई कारण नहीं था कि वे संस्थाओं की और प्रक्रियाओं की परवाह करें. उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीती हैं. और ये सब उन्होंने करिश्माई व्यक्तित्व से हासिल किया है.
देखना होगा कि इस बार वे क्या करते हैं और परिस्थितियां उनसे क्या कुछ करा ले जाती हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है)