बड़े हित में, एक प्रतिनिधिक नेतृत्व और छोटे समझौते लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ एक साथ आने में क्षेत्रीय दलों की मदद कर सकते हैं और इसमें कांग्रेस को भी साथ लेने की आवश्यकता है।
आज के राजनीतिक परिदृश्य में जहाँ कांग्रेस सिमट गयी है और भाजपा ने अपने पदचिन्हों का विस्तार किया है वहीं पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश के अलग-अलग हिस्सों में बहुत सारे क्षेत्रीय दल ऊपर उठ कर सामने आये हैं।
कांग्रेस अब भी कुछ राज्यों में एक प्रमुख ताकत है, जैसे कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात और अन्य। लेकिन कई राज्य हैं जहाँ सत्ता के मार्ग में क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस को प्रतिस्थापित कर दिया है। ये दल या तो सत्ता में हैं या फिर राज्यों में एक प्रमुख विपक्ष के रूप में।
ऐसी स्थिति में, क्या सूत्र होना चाहिए जिसपे अमल करके 2019 में भाजपा से लड़ने के लिए विपक्ष एक साथ आ सके। मेरे पास विपक्ष के लिए कुछ सुझाव हैं जिन्हें भाजपा को केंद्र से हटाने के लिए लागू किया जा सकता है।
1. कुछ क्षेत्रीय नेताओं के सुझाव के विपरीत, कि गठबंधन गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई हो, मेरा सूत्र यह है कि यह पूरी तरह गैर-भाजपाई होना चाहिए और कांग्रेस को साथ में लेना चाहिए।
2. प्रत्येक राज्य में सबसे प्रभावी राजनीतिक दल को कमान सौंपी जानी चाहिए। उदाहरण के लिए: उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती हैं और बिहार में लालू प्रसाद हैं। उन राज्यों में जहाँ कांग्रेस प्रमुख दल है, वहां कांग्रेस को कमान सौंपी जानी चाहिए।
3. एक बार स्वीकृति के बाद, छोटे सहयोगियों को जगह देने की जिम्मेदारी प्रमुख पार्टी की होनी चाहिए। उदाहरण के लिए: पश्चिम बंगाल में ममता को कांग्रेस के लिए जगह बनानी चाहिए, पंजाब और दिल्ली में काग्रेस, आम आदमी पार्टी को स्वीकार करे और मध्य प्रदेश में कांग्रेस, सपा और बसपा या अन्य जो भी वहां हों, को स्वीकार करे।प्रभुत्ववादी दल को राज्य में उपस्थिति के साथ गैर-प्रभावशाली सहयोगियों को समायोजित करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसे कि उत्तर प्रदेश में कैराना आरएलडी को देने के लिए मायावती और अखिलेश यादव एक साथ आये हैं। उत्तर प्रदेश में अन्य दल भी हैं जैसे कि अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी और ऐसे ही बिहार व अन्य राज्यों में भी हैं। यदि वे गठबंधन से जुड़ने के लिए तैयार हैं, तो उन्हें उनकी पहचान और हक़ मिलना चाहिए।
4. यहाँ एक सामूहिक नेतृत्व होना चाहिए, जिसे स्थापित करना मुश्किल नहीं है। सभी निर्वाचक दलों के प्रमुखों को एक सामूहिक नेतृत्व स्थापित करना चाहिए, जो इसके बाद से निर्णय ले सके। यहाँ सब समान होने चाहिए और अलग दर्जे का कोई नेता नहीं होना चाहिए।भाजपा की योजना 2019 को एकल-पुरुष-केन्द्रित चुनाव बनाना है, जैसा कि यह 2014 में भी था और वे बार बार वही सवाल उठाएंगे, “मोदी के विरुद्ध कौन”? विपक्ष को इस जाल में नहीं फसना चाहिए। मोदी मुद्दा नहीं हैं, मुद्दे मुद्दा हैं। मोदी को किसी भी बिंदु पर यह सन्देश देने का मौका नहीं मिलना चाहिए कि यह चुनाव ‘मोदी बनाम अन्य’ है। विपक्षी नेताओं को मोदी पर व्यक्तिगत हमलों या उनके किसी भी सन्दर्भ से दूर रहना चाहिए। यहाँ ईंधन की कीमतों जैसे बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर सामूहिक नेतृत्व लोगों के दिमाग पर प्रभाव डालने के लिए विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों का आयोजन कर सकता है।
5. कुछ समय के बाद, इस समूह के पास सूचना-साझाकरण और निर्वाचक व्यक्तियों के बीच बेहतर समन्वय के उद्देश्य से कार्यालय या सचिवालय होना चाहिए।
6. सभी के एक साथ आने के बाद भी सीट आवंटन सबसे मुश्किल काम होगा। इसके लिए सभी के पास उदार मस्तिष्क और समायोज्य भावना वाला दृष्टिकोण होना चाहिए। छोटे दलों को यह अहसास होना चाहिए कि 10 सीटों पर चुनाव लड़कर 5 सीटें जीतना ज्यादा बेहतर है बजाय इसके कि 50 पर लड़ें और एक भी न जीतें।
7. प्रत्येक सीट पर भाजपा के खिलाफ केवल एक ही प्रत्याशी होना चाहिए। लेकिन मान लीजिए, किसी भी कारण से, 543 में से 30 सीटों पर ऐसा करना संभव न हो, तो उन्हें 30 सीटों को खातिर शेष सीटों में गठबंधन तोड़ना नहीं चाहिए। यदि संभव हो, तो उन्हें इन 30 सीटों पर मित्रवत रूप से चुनाव लड़ लेना चाहिए।
8. क्षेत्रीय दलों को चुनाव पूर्व एक गठबंधन का गठन अवश्य करना चाहिए और यह कोई मुश्किल काम नहीं है। जैसे ममता बनर्जी को तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में कोई दिलचस्पी नहीं है वैसे ही इन दोनों राज्यों के क्षेत्रीय दलों को भी पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु में कोई दिलचस्पी नहीं है। अतः वे साथ आ सकते हैं और चुनाव पूर्व गठबंधन का निर्माण कर सकते हैं। कांग्रेस भी साथ में जुड़ सकती है यदि इसे इसकी आवश्यकता महसूस हो।
ऐसे चुनाव पूर्व गठबंधन का सुझाव देने के लिए मेरे पास एक कारण है। मान लीजिये कि 2019 चुनाव के बाद कर्नाटक जैसी स्थिति सामने आ जाती है, जहाँ एक बड़े बहुमत से चूकने के बावजूद भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी रहे। सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को बुलाये जाने की परंपरा केंद्र में बहुत मजबूत है, जैसा कि हमने 1996 में देखा था, जब भाजपा को बुलाया गया था। यदि चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं होता है तो राष्ट्रपति के पास पूरा अधिकार है कि वह भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाएं। मुझे यहाँ एक खतरा दिख रहा है कि मोदी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नहीं हैं।मान लीजिये राष्ट्रपति कहते हैं कि 15 दिनों के भीतर विश्वास मत हासिल करें। यदि लोकसभा बुलाई जाती है, जैसा कि पिछले संसद सत्र में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के साथ हुआ, और सदन में व्यवधान के कारण विश्वास प्रस्ताव नहीं आ पाता है तो विश्वास मत हासिल करने के लिए और 15 दिन का समय दिया जा सकता है।एक अन्य संभावना यह है कि सभापति यह घोषणा कर सकते हैं कि भाजपा ने ध्वनि मत से विश्वास मत हासिल कर लिया है। यह अतीत में हो चुका है और भविष्य में भी हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सदन की कार्यवाहियों के दौरान वहां जो कुछ भी होता है उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसलिए चुनाव पूर्व एक बड़े से बड़ा गठबंधन बनाया जाना चाहिए।
9. यह एक योजना आधारित गठबंधन होना चाहिए और पूरी तरह से अंकगणित पर आधारित नहीं होना चाहिए। दलों को अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों से ऊपर उठकर एक साथ आना चाहिए। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि देश को एक नई दिशा की आवश्यकता है और उस दिशा को योजना में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए। यह वह योजना है जो गठबंधन को एक साथ जोड़ कर रखेगी। अतीत में ऐसे गठबंधन सिर्फ इसलिए असफल रहे क्योंकि उनके पास कोई योजना नहीं थी। नेतृत्व के महत्वपूर्ण मसले पर निर्णय चुनाव के बाद लिया जा सकता है।यह फार्मूला विपक्ष को एक सार्थक गठबंधन बनाने में मदद कर सकता है जिसके दम पर भाजपा से लड़ा जा सकता है।
लेखक, एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री हैं और लम्बे समय तक भाजपा के सदस्य रहे हैं। वह इस वर्ष पार्टी छोड़ चुके हैं और अब राष्ट्र मंच नामक एक राजनीतिक कार्यवाही समूह का नेतृत्व करते हैं।