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Thursday, 21 November, 2024
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राष्ट्र को कांशीराम का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिनके कारण बच गया लोकतंत्र

मान्यवर कांशीराम ने बामसेफ और बीएसपी ऐसे समय में बनाई जब वंचित जातियों का लोकतंत्र से मोहभंग हो रहा था. रिजर्व सीटों से चुने गए जनप्रतिनिधि बेकार साबित हुए थे. तब उन्होंने वंचित जातियों को शासक बनने का सपना दिखाया.

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भारतीय लोकतंत्र अपनी आजादी के 72 साल पूरे कर चुका है. 2019 का लोकसभा चुनाव, संविधान लिखे जाने के ठीक 70 साल बाद हो रहा है. भारत के साथ आजाद होने वाले कम ही देश ऐसे हैं, जहां लोकतंत्र इतना टिकाऊ साबित हुआ है. यहां अब भी सरकारें जनता ही चुनती है. इसका महत्व वे समझ सकते हैं, जिन देशों में लंबे समय तक सैनिक शासन या तानाशाहों का शासन रहा या जो देश हिंसा की वजह से बिखर गए.

लोकसभा चुनाव के समय में एक ऐसे नेता को क्यों याद करें, जिनकी मृत्यु 2006 में हो चुकी है और जो किसी भी बड़े पद पर कभी नहीं रहा. वह नेता, जिसकी बनाई पार्टी बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी के पिछली यानी 16वीं लोकसभा में एक भी सांसद नहीं थे और जिस उत्तर प्रदेश में उसका सबसे ज्यादा प्रभाव माना जाता है, वहां 403 सदस्यीय विधानसभा में उसके सिर्फ 19 विधायक हैं.

बीएसपी इस बार फिर से चुनाव मैदान में है और उसका सपा और राष्ट्रीय लोकदल से चुनावी तालमेल है. बीएसपी इस बार कैसा प्रदर्शन करती है, उस प्रश्न को भविष्य के लिए छोड़ देते हैं, क्योंकि यह सवाल इस लेख की विषय वस्तु नहीं है.

यहां मैं आपके सामने यह सिद्धांत प्रस्तुत करना चाहता हूं कि आज अगर भारतीय लोकतंत्र जिंदा है और चुनाव प्रक्रिया में लोगों की आस्था बनी हुई है, तो इसका सबसे ज्यादा श्रेय जिस एक व्यक्ति को जाता है, वो मान्यवर कांशीराम हैं. वे इस मायने में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर से सच्चे वारिस हैं, जिन्होंने एक समावेशी संविधान की ड्राफ्टिंग की थी.


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भारत एक नया और बनता हुआ राष्ट्र है. इसके निर्माण की बुनियाद में वे समझौते हैं जो राष्ट्र ने अपने नागरिकों से किए हैं. उन समझौतों में सबसे अहम समझौता राष्ट्र और यहां की वंचित जातियों और समुदायों के साथ हुआ. उनसे राष्ट्र ने ये वादा किया कि यहां उन्हें मानवीय गरिमा मिलेगी, सामनता, स्वतंत्रता और बंधुत्व मिलेगा और राष्ट्र की मुख्यधारा में उन्हें लाने के लिए विशेष अवसर का सिद्धांत और आरक्षण मिलेगा. ये आरक्षण, लोकसभा, विधानसभा, सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षा संस्थाओं में लागू होगा, ताकि वंचित जातियों को भी राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाया जा सके.

इसके लिए संविधान में प्रस्तावना के अलावा अनुच्छेद 15 (4), 16 (4), 46, 334, 335, 340, 341, 342 को शामिल किया गया. संविधान में वंचित समूहों की श्रेणी में अनुसूचित जाति, जनजाति और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को रखा गया. इसके अलावा धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं. ये देश की बहुसंख्यक आबादी है.

आजादी के बाद के शुरुआती दसेक साल तो सपने देखने और उम्मीदों की सवारी करने में बीत गए. लेकिन 1970 आते आते वंचित जातियों को और देश के पिछड़े इलाके के लोगों को लगने लगा कि राष्ट्र उन वादों को पूरा नहीं कर रहा है, जो उनके साथ किए गए थे. विकास और अवसरों के लाभ से कुछ समुदाय और इलाके बुरी तरह वंचित रह जा रहे थे. लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण के कारण एससी-एसटी के एमपी-एमएलए चुनकर आ तो रहे थे. लेकिन वे बिल्कुल बेकार साबित हुए क्योंकि उनका चुना जाना उनके चुनाव क्षेत्रों को गैर-दलितों या गैर-आदिवासियों पर निर्भर थे. ये पुना पैक्ट की लाचार संतानें थीं.

कुल मिलाकर ये राष्ट्रीय प्रोजेक्ट से वंचितों के मोहभंग का समय था.

इस समय देश मे कई तरह की उथल-पुथल एक साथ शुरू हो गई. कांग्रेसी सरकारें निराश कर रही थीं. कई राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें बन गईं. देश के कई हिस्सों में किसान, खेत मजदूर और आदिवासी नक्सल आंदोलन में शामिल हो गए, क्योंकि उन्हें लगा कि मौजूदा व्यवस्था में उनके लिए स्थान नहीं है. छात्र आंदोलन तेज हो रहे थे. रेलवे और कई संस्थानों में लंबी हड़तालें हुईं.


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इन तमाम असंतोष से निबटने के लिए सरकार एक तरफ तो दमन की नीति पर चल रही थी और दूसरी ओर गरीबी हटाओ को नारा दिया जा रहा था. निजी बैंकों का सरकारीकरण कर दिया गया, ताकि बैंक लोन ज्यादा लोगों को मिल सकें. बीमा उद्योग और कोयला खानों का भी सरकारीकरण कर दिया गया. पुराने राजाओं को मिलने वाला प्रिवि पर्स खत्म कर दिया गया. नेहरू समाजवाद ने बाईं ओर करवट लेकर व्यवस्था को बचाने की कोशिश की.

ये वही दौर था, जब सिनेमा के पर्दे पर चाकलेटी हीरो ने एंग्री यंग मैन के लिए जगह खाली कर दी. हिंसा और प्रतिहिंसा एक स्थापित विचार बन रहा था. कई लोगों को लगने लगा कि सरकार जब न्याय न दे, तो कानून अपने हाथ में ले लेना चाहिए.

ऐसे ही माहौल में पुणे के एक रक्षा अनुसंधान संस्थान में कार्यरत एक युवा कर्मचारी बाबा साहेब आंबेडकर की लिखी किताब एनिहिलेशन ऑफ कास्ट यानी जाति का विनाश पढ़ रहा था.

वो मान्यवर कांशीराम थे. पंजाब के एक साधारण गरीब परिवार में जन्मा एक बेहद मामूली युवा सरकारी कर्मचारी.

उन्होंने जातिवाद को भारत की सबसे बड़ी समस्या के रूप में चिन्हित किया और यह सूत्रीकरण दिया कि जब तक देश की वंचित जातियां- एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी- एकजुट होकर देश का शासन अपने हाथ में नहीं ले लेतीं, तब तक न इन जातियों का भला होगा और न ही देश का. यहीं से चलकर 1973 में वे सरकारी कर्मचारियों का संगठन बामसेफ बनाते हैं, जिसका 1978 में दिल्ली में एक महाधिवेशन होता है. आगे चलकर वे डीएस4 और फिर 1984 में बीएसपी की स्थापना करते हैं.

वे नारा देते हैं – वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा. वे ये भी कहते हैं कि आरक्षण से लिया एसपी-डीएम, वोट से लेंगे सीएम-पीएम. इन नारों को वंचित समूहों में जादुई असर होता है. देखते ही देखते यह पार्टी बड़ी होने लगती है. देश के कई राज्यों में दलित, ओबीसी और माइनॉरिटी इससे जुड़ने लगते हैं और यह वोट शेयर के मामले में देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है. 1993 में यूपी में इसकी मिलीजुली सरकार बनती है और 1995 में बीएसपी यूपी में अपना मुख्यमंत्री बना लेती है. 2009 के लोकसभा चुनाव में इसे 6 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिलते हैं और इसके 21 सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचते हैं. इससे पहले 2007 में यूपी में बीएसपी पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी होती है.

सवाल उठता है कि कांशीराम साहेब ने वंचितों को लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव के जरिए शासक बनने का सपना न दिखाया होता और इसे पूरा करने की दिशा में कदम न बढ़ाए होते, तो क्या होता. इसकी ओर बाबा साहेब ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में अपने आखिरी भाषण में इशारा किया है. उन्होंने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 को देश एक अंतर्विरोध के दौर में प्रवेश करेगा. यहां लोकतंत्र होगा. हर आदमी का एक वोट होगा. लेकिन हर आदमी बराबर नहीं होगा. उनके बीच गंभीर आर्थिक और सामाजिक असमानताएं होंगी. उन्होंने संविधान सभा को चेतावनी दी कि इन असमानताओं को अगर दूर न किया गया, तो वंचित लोग भारत के संवैधानिक ढांचे को उखाड़ कर फेंक देंगे.


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लेकिन इसी भाषण में बाबा साहेब ये भी कहते हैं कि लोकतंत्र को अगर बचाना है कि आंदोलनात्मक और संविधानेतर तौर तरीकों से परहेज करना होगा. उन्होंने कहा कि ये तरीका अराजकता (ग्रामर ऑफ एनार्की) की ओर जाएगा.

कांशीराम ने देश को उस अराजकता से बचाया, जिसमें भारतीय लोकतंत्र को निगल लेने का दम था. अगर ऐसे व्यक्ति को भारत रत्न नहीं दिया जा सकता, तो इसका मतलब है कि ये पुरस्कार पूरी तरह से निरर्थक हो चुका है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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