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Friday, 20 December, 2024
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2024 में मुसलमानों के वोट — वक्त आ गया है कि हम कम बुरे से समझौता करना बंद करें

अधिकांश मुस्लिम धर्मगुरु और प्रमुख हस्तियां पहले की तुलना में इस बार मतदान पर चुप रहीं. मेरा मानना ​​है कि इस चुप्पी का उद्देश्य ध्रुवीकरण से बचना था.

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2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से मुस्लिम और अल्पसंख्यक मुद्दों पर चर्चा करने का चलन जारी है. हाल के चुनावी चक्र के दौरान यह एक बार फिर सबसे आगे रहा.

ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम जन-मत भाजपा विरोधी भावनाओं से प्रभावित रहा है. हालांकि, इस बार काफी अटकलें थीं कि मुस्लिम समुदायों तक भाजपा की रणनीतिक पहुंच पारंपरिक मतदान समीकरणों को बाधित कर सकती है और अभूतपूर्व परिणाम ला सकती है.

इंडिया टुडे द्वारा राज्यवार मुस्लिम मतदाताओं के विश्लेषण के दौरान, यह स्पष्ट है कि कहीं भी 8 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिया. अधिकांश मुस्लिम वोट उन उम्मीदवारों को गए जिन्हें भाजपा के खिलाफ मजबूत प्रतियोगी के रूप में देखा गया था.

ये मुख्य रूप से इंडिया ब्लॉक से थे, पश्चिम बंगाल के उल्लेखनीय अपवाद के साथ, जहां अन्य दलों की तुलना में टीएमसी को तरजीह दी गई थी. इस पैटर्न से पता चलता है कि भाजपा की जन-पहुंच पहलों और कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद, भारतीय मुसलमान उसे स्वयं-घोषित दुश्मन मानते हैं और राष्ट्रीय स्तर पर इसका समर्थन करने में हिचकिचाते हैं.

2024 में मुसलमानों के वोट

यूपी स्थानीय निकाय चुनाव 2023 को इस प्रवृत्ति से अलग माना जा सकता है, जिसमें भाजपा ने 395 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनमें से 45 विजयी हुए. यह पार्टी के लिए एक विसंगति थी क्योंकि इसने लोकसभा चुनावों में इस प्रथा को नहीं दोहराया था.

इस साल के आम चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि मुसलमानों ने पार्टी द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को दिए गए टिकटों की संख्या के आधार पर वोट नहीं दिया. इसके बजाय, उन्होंने उस उम्मीदवार को वोट दिया जो उन्हें उनके सर्वोत्तम हित में नज़र आया. अधिकांश मुस्लिम मौलवी और प्रमुख हस्तियां मतदान के दौरान चुप रहीं, जबकि पहले ऐसा नहीं हुआ था. इस चुप्पी को कोई भी यह मान सकता है कि यह ध्रुवीकरण से बचने के लिए थी.

चुनाव परिणामों के बाद, सोशल मीडिया पर पोस्ट और न्यूज़ क्लिप्स की बाढ़ आ गई, जिसमें बताया गया कि योजनाओं के लाभ लेने के बावजूद मुस्लिम समुदाय ने वर्तमान सरकार को वोट नहीं दिया. मैं इस विचार का दृढ़ता से विरोध करती हूं कि मतदान बुनियादी सरकारी कार्यों से जुड़ा हुआ है — और यह कि मतदान न करने से कोई गद्दार हो जाता है, लेकिन झुंड मतदान भी चिंताजनक है. इससे ऐसी स्थिति बनती है जहां पार्टियां अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बजाय कथा और जनजातीयता पर अधिक निर्भर करती हैं.

हर व्यक्ति वोट देते समय अलग-अलग कारकों को प्राथमिकता देता है और यह सही भी है. मैं सामाजिक सुधारों और रोज़मर्रा के मुद्दों को प्राथमिकता देती हूं. दूसरे लोग गरिमा के लिए वोट कर सकते हैं, जिसे हर व्यक्ति अपने लिए तय कर सकता है. हालांकि, सवाल बना हुआ है : एक लोकतंत्र में जहां हर वोट मायने रखता है — और भारतीय मुस्लिम मतपत्र ने वास्तव में इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है — मुस्लिम वोट बैंक आखिरकार क्या हासिल करेगा?


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प्रगति और प्रतिनिधित्व

समुदाय के सदस्यों के साथ अपनी चर्चाओं के दौरान, मैंने कथित सुरक्षा के लिए खुद को केवल वोट बैंक तक सीमित करने के लंबे समय से चले आ रहे पैटर्न को सामने लाया. मैंने जोर देकर कहा कि हमें समुदाय के उत्थान, रोज़गार और ज़रूरी सुधारों जैसे लक्ष्यों के लिए अपना वोट देना चाहिए.

जबकि मुस्लिम समुदाय के कई लोगों का मानना ​​है कि उनके अमानवीयकरण से लड़ने के लिए भाजपा को हराना ज़रूरी है, इससे क्या वास्तविक बदलाव या प्रगति आएगी? भले ही हम मुस्लिम प्रतिनिधित्व के संदर्भ में बात करें, अन्य राजनीतिक दलों ने 2024 में टिकट बांटते समय बमुश्किल पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया है. तो हमें उनकी प्रशंसा क्यों करनी चाहिए?

एक पसमांदा मुस्लिम होने के नाते प्रगति मेरे लिए संसद में होने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिस पर वैसे भी पारंपरिक रूप से अशराफ मुसलमानों का नियंत्रण रहा है. मैं असल प्रगति चाहती हूं जो लैंगिक समानता और मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान को सुनिश्चित करे.

मुझे बताया गया कि जबकि अन्य राजनीतिक दलों ने भी कई मायनों में मुसलमानों को निराश किया है, इस समय अमानवीयकरण के खिलाफ हमारी लड़ाई सबसे ज़रूरी है. यह सबसे अच्छा विकल्प चुनने के बारे में नहीं है, बल्कि कम बुरा विकल्प चुनने के बारे में है.

निष्पक्ष रूप से कहें तो भारतीयों को अपने जीवन में किसी न किसी मोड़ पर कम बुरे को चुनने के लिए बाध्य होना पड़ता है. मुस्लिम समुदाय भी इस भावना का अपवाद नहीं है, जबकि हम सभी इस चुनाव को लोकतंत्र की बड़ी जीत के रूप में मना रहे हैं, मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि हम कम बुरे को अपनाने से आगे बढ़ें.

जब तक हम मजबूत संस्थानों और ऐसी व्यवस्था के निर्माण के लिए वोट नहीं देते जो केवल करिश्माई नेताओं को ही नहीं बल्कि सभी भारतीय नागरिकों को लाभ पहुंचाए, तब तक वास्तविक बदलाव आना मुश्किल है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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