जब मैंने 1984 में सिविल सेवा में प्रवेश किया, तब ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम/योजना (RLEGP) जैसे कार्यक्रम एक परिचित प्रशासनिक ढांचे में आते थे: रोज़गार को कल्याण के रूप में देखा जाता था, जिसे स्थानीय प्रशासन के जरिए लागू किया जाता था. योजना और भुगतान अक्सर उन्हीं सामाजिक ढांचों के जरिए होते थे, जिनकी वजह से ग्रामीण संकट पैदा हुआ था.
करीब दो दशक बाद, यूपीए काल में एक बड़ा बदलाव आया, जब संसद ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 पारित किया जो बाद में MGNREGA के नाम से जाना गया और “रोजगार” को एक विवेकाधीन लाभ से बदलकर कानूनी, मांग-आधारित अधिकार बना दिया, जो स्थानीय स्वशासन से जुड़ा था.
इस वक्त जो हो रहा है—विकसित भारत: रोजगार और आजीविका गारंटी मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025 (VB–G RAM G) की शुरुआत उसे सिर्फ सामान्य बदलाव के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे नए डिजाइन के रूप में देखा जाना चाहिए, जो मूल अधिकार को संवैधानिक और संघीय ढांचे के अनुरूप दोबारा संतुलित करता है.
1) संवैधानिक रूप से MGNREGA ने क्या बदला
MGNREGA की मूल नैतिक और कानूनी संरचना सीधी थी: अगर किसी ग्रामीण परिवार का कोई वयस्क सदस्य अकुशल काम मांगता है, तो सरकार को वह काम देना होगा—और प्रशासनिक व्यवस्था को उसी मांग के अनुसार खुद को व्यवस्थित करना होगा. भले ही क्रियान्वयन में कमियां रही हों, लेकिन इसकी बनावट अधिकार-आधारित थी: सरकार कर्तव्य निभाने वाली थी और मजदूर दावा करने वाला. यह गारंटी सिर्फ किसी योजना का लक्ष्य नहीं थी; यह एक ऐसा अधिकार था, जिसे नागरिक इस्तेमाल कर सकता था.
यह संरचना 73वें संविधान संशोधन के बाद ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं पर दिए गए जोर से मेल खाती थी. स्थानीय निकायों को काम चिन्हित करने, गांव के लिए उपयोगी परिसंपत्तियां बनाने और सामुदायिक स्तर की निगरानी के जरिए पारदर्शिता सुनिश्चित करने में केंद्रीय भूमिका दी गई थी. इसलिए MGNREGA सिर्फ रोजगार का साधन नहीं था; यह शासन का भी एक साधन था मजदूरी वाले काम के जरिए स्थानीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाला.
2) एनडीए का दशक: ‘तकनीकी सुधार’ जिन्होंने स्थानीय संरक्षण को सीमित किया
अगर यूपीए काल की पहचान कानूनी अधिकार था, तो एनडीए काल की पहचान भुगतान प्रणाली की इंजीनियरिंग और डिजिटलीकरण रही जिसे लीकेज, विवेकाधिकार और “बिचौलियों” के खिलाफ कदम के रूप में पेश किया गया. पुराने सरपंच/मेट-केंद्रित संरक्षण ढांचे को सीमित करने के लिए तीन बदलाव सबसे अहम रहे.
(a) खातों में सीधे भुगतान
मजदूरी तेज़ी से बैंक और पोस्ट ऑफिस खातों में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जाने लगी, जिससे नकद लेन-देन और स्थानीय नियंत्रण की गुंजाइश कम हुई.
(b) आधार से जुड़ी भुगतान व्यवस्था
भुगतान को आधार से जोड़ा गया, ताकि गलत दिशा में भुगतान, दोहरे खाते और लाभार्थी के “वित्तीय पते” में बार-बार बदलाव को रोका जा सके और यह सुनिश्चित हो कि मजदूरी एक ही सत्यापित खाते के जरिए सही मजदूर तक पहुंचे.
(c) ऐप-आधारित निगरानी और जियो-टैगिंग
डिजिटल हाजिरी और जियो-टैग किए गए काम के सबूत ने मस्टर, माप और भुगतान के बीच संबंध को कड़ा किया, जिससे हेरफेर की गुंजाइश कम हुई.
इन सुधारों ने वास्तव में पैसों के रास्ते से सरपंच-निर्भरता को काफी हद तक खत्म किया. लेकिन इसके साथ नई कमजोरियां भी पैदा हुईं: प्रमाणीकरण विफल होने से बाहर होना, सीडिंग की गलतियां, कनेक्टिविटी की कमी, या प्रशासनिक रूप से नाम हटाया जाना. इसलिए यह कहानी मिली-जुली है—एक तरफ भुगतान में विवेकाधिकार कम हुआ, दूसरी तरफ तकनीकी-प्रशासनिक नियंत्रण बढ़ गया
3) VB–G RAM G (2025): हेडलाइन के नीचे का संरचनात्मक बदलाव
नया बिल एक अपग्रेड के रूप में पेश किया जा रहा है: गारंटीड दिनों की संख्या 100 से बढ़ाकर 125 की जा रही है, लेकिन बड़े बदलाव यह संकेत देते हैं कि यह पूरी तरह मांग-आधारित गारंटी से हटकर एक तय मानकों और आवंटन पर आधारित ढांचे की ओर बढ़ रहा है, जिसमें लागत साझा करने का तरीका बदला गया है और खेती के मौसम में एक तय विराम भी जोड़ा गया है.
(i) “मांग पर अधिकार” से “तय सीमा के भीतर अधिकार” तक
मांग के अनुसार खुली केंद्रीय जिम्मेदारी की जगह अब मॉडल केंद्र द्वारा तय किए गए मानक आवंटनों पर निर्भर करता है, जहां कामकाज की ऊपरी सीमा मजदूर की मांग से नहीं, बल्कि आवंटन से तय होती है.
(ii) राज्य सिर्फ लागू करने वाले नहीं, बल्कि भुगतान करने वाले भी
प्रस्तावित केंद्र–राज्य फंडिंग ढांचा प्रोत्साहनों को बदल देता है. जब राज्यों को काम देने के लिए खुद भुगतान करना पड़ेगा, तो वे राशनिंग की ओर झुक सकते हैं. खासकर उन इलाकों में जहां काम की मांग संरचनात्मक रूप से ज्यादा है और वित्तीय स्थिति कमजोर है.
(iii) अनिवार्य मौसमी “विराम”
दो महीने का तय विराम MGNREGA की मूल अधिकार-आधारित सोच के खिलाफ जाता है. कानूनी गारंटी तब सबसे ज्यादा मायने रखती है, जब परिवारों को उसी समय काम की ज़रूरत हो; तय समय पर बंदी होने से यह सुरक्षा एक कैलेंडर से बंधी पेशकश बन जाती है.
(iv) नया नाम और कहानी पर नियंत्रण
एम. के. गांधी की पहले वाली राजनीतिक पहचान से प्रतीकात्मक दूरी सतही लग सकती है, लेकिन नाम अक्सर स्वामित्व का संकेत देते हैं—और स्वामित्व अक्सर डिजाइन में बदलाव से पहले आता है.
इन सभी बदलावों को साथ देखें तो कार्यक्रम का चरित्र बदलता दिखता है: खुली केंद्रीय जिम्मेदारी से समर्थित मांग-आधारित अधिकार से हटकर, मानकों, कैलेंडर और साझा वित्तीय जिम्मेदारी से बंधा एक प्रबंधित अधिकार.
4) गहरी विकेंद्रीकरण—या खोखलापन?
यहीं ग्राम पंचायतों की भूमिका निर्णायक बन जाती है. MGNREGA का वादा यह था कि स्थानीय संस्थाएं सिर्फ काम लागू नहीं करेंगी; वे स्थानीय जरूरतों के आधार पर कामों की योजना बनाएंगी और उन्हें प्राथमिकता देंगी. VB–G RAM G इसके उलट दिशा में जाता दिखता है: राष्ट्रीय स्तर पर तय प्राथमिकताओं, मानक आवंटनों और ऊपर से नीचे की सख्त प्रदर्शन-तर्क की ओर—भले ही वह परिसंपत्तियों और नतीजों की भाषा बोले. खतरा यह है कि जवाबदेही का रुख बदल जाए—नागरिकों द्वारा काम की मांग से हटकर, तय सीमा वाले ढांचे के भीतर लक्ष्यों और छतों की ओर.
5) क्या स्वीकार किया जाए, और क्या चुनौती दी जाए
भारत को भुगतान और निगरानी से जुड़े सुधारों की ज़रूरत थी. सीधे इलेक्ट्रॉनिक भुगतान, बेहतर ऑडिट ट्रेल और हाजिरी से जुड़ी तकनीकों ने छोटे स्तर के पुराने भ्रष्टाचार और संरक्षण के रास्तों को सीमित किया, जिससे स्थानीय स्तर पर यह तय करने की गुंजाइश कम हुई कि किसे कितने दिन का काम मिले, किसकी हाजिरी को आधिकारिक तौर पर काम किया हुआ माना जाए, या किसका भुगतान देर से किया जाए.
लेकिन जिस बात को चुनौती दी जानी चाहिए, वह यह है कि 2005 के अधिनियम के केंद्र में मौजूद संवैधानिक समझौते को कमजोर करने वाला कोई भी नया डिजाइन स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. अगर “गारंटी” मानकों से सीमित हो जाए, ऐसे तरीकों से सह-वित्तपोषित हो जाए जो राशनिंग को बढ़ावा दें, और डिजाइन के स्तर पर ही आंशिक रूप से रोक दी जाए, तो “125 दिन” सिर्फ दिखावटी बनकर रह सकते हैं—एक हेडलाइन ज्यादा और वास्तविक अधिकार कम, खासकर गरीब और ज्यादा मांग वाले इलाकों में.
6) विकेंद्रीकरण के रूप में पेश किया गया केंद्रीकरण
यही असली विरोधाभास है. पंचायतों को सशक्त बनाने की भाषा राजनीतिक रूप से बहुत आकर्षक है. लेकिन अगर केंद्र मानक सीमाएं तय करता है, अगर राज्यों को सह-भुगतान करने वाला बना दिया जाता है और उन्हें मांग सीमित करने के प्रोत्साहन मिलते हैं, और अगर रोजगार गारंटी को डिजाइन के स्तर पर ही रोका जाता है, तो सत्ता के निर्णायक औजार ऊपर की ओर चले जाते हैं, भले ही अमल विकेंद्रीकृत ही क्यों न दिखे. विकेंद्रीकरण अमल की भाषा बन जाता है; केंद्रीकरण नियंत्रण की हकीकत.
निष्कर्ष: आखिर में वही एक कसौटी मायने रखती है
किसी भी ग्रामीण रोजगार कानून की असली परीक्षा न तो ब्रांडिंग है, न डैशबोर्ड, और न ही दिनों की हेडलाइन संख्या. असली कसौटी यह है कि क्या मजदूर के पास सरकार से काम दिलवाने की क्षमता बनी रहती है—तुरंत, भरोसेमंद तरीके से और अधिकार के रूप में—या फिर सरकार, सीमाओं, विरामों और सह-वित्तपोषित बंदिशों से लैस होकर, काम को प्रबंधित करने, राशन करने और टालने में संरचनात्मक रूप से सक्षम हो जाती है. अगर VB–G RAM G दूसरा रास्ता अपनाता है, तो यह मूल रोजगार गारंटी का विस्तार नहीं, बल्कि उसकी संवैधानिक भावना से पीछे हटना होगा.
(के बी एस सिद्धू पंजाब के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और स्पेशल चीफ सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उनका एक्स हैंडल @kbssidhu1961 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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