भारत के कल्याणकारी राज्य की रीढ़ रहा वामपंथ अब धीरे-धीरे कमजोर पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल में, जहां वाम मोर्चा तीन दशकों से अधिक समय तक लगातार शासन कर रहा था, वहां उसके एक्टिविस्ट नींव पहचान आधारित राजनीति और जनसामान्य की निराशा के दोहरे असर से कमज़ोर पड़ गए हैं. त्रिपुरा में, पुनर्जीवित भाजपा ने वामपंथ के कल्याणकारी उपकरण अपनाए और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और केंद्रीकृत संरक्षण जोड़कर कम्युनिस्टों को सत्ता से हटा दिया.
केरल, जो वामपंथ का आखिरी मजबूत केंद्र रहा, अब राष्ट्रीय राजनीतिक धारा से अप्रभावित नहीं रहा. सीपीआई(एम) अभी भी चुनावी तौर पर अपनी पकड़ बनाए हुए है, लेकिन उसकी विचारधारात्मक धार धीरे-धीरे प्रशासनिक दायित्वों के दबाव में कमजोर पड़ रही है.
यह केवल चुनावी कमजोरी नहीं है, बल्कि बौद्धिक भी है. 2004 में वामपंथ के पास लोकसभा में 61 सीटें थीं; 2024 में यह संख्या मात्र दो रह गई. वामपक्षीय दलों से निकलने वाले नारे—जैसे सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा, महंगाई और संवैधानिक सुरक्षा—नैतिक रूप से महत्वपूर्ण लगे, लेकिन राजनीतिक रूप से नई दिशा में खो गए.
“मजदूरों का हक दो,” “जुमलों नहीं, रोज़गार दो” और “लोकतंत्र बचाओ, संविधान बचाओ”—ये नारे सही थे, लेकिन नई राजनीतिक भाषा, जिसमें महत्वाकांक्षी राष्ट्रवाद और पहचान प्रमुख है, उसमें उनका असर नहीं दिखा. पहले जो वामपंथ ज़मीन सुधार, ट्रेड यूनियन मजबूती और 2005 की MGNREGA जैसी परिवर्तनकारी नीतियों में एक प्रमुख शक्ति था, वह अब राष्ट्रीय स्तर पर सीमित प्रभाव रखने वाला रह गया है और नई भारत की आकांक्षाओं और दृष्टिकोण से संवाद करने में संघर्ष कर रहा है.
अंदरूनी मतभेद ने वामपंथ को कमज़ोर किया
वामपंथ के भीतर बार-बार होने वाले विरोधाभासों ने इसकी प्रासंगिकता के संकट को और बढ़ा दिया. इसके नेतृत्व में उच्च जाति के बौद्धिक प्रभुत्व के बने रहने ने वामपंथ की क्षमता को आंबेडकरवादी आलोचनाओं के साथ गंभीर संवाद करने से रोका. वहीं, नारीवाद के नारे अधिकतर घोषणा स्वरूप रहे, जबकि असली संदर्भ में महिलाएं घरेलू कामगार, देखभालकर्ता और बिना वेतन वाली गिग श्रमिक के रूप में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा हैं.
स्थानिक दृष्टि से भी वामपंथ कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है और इसकी भाषा मुख्य रूप से हिंदी भाषी प्रदेशों तक पहुंचती है, जहां राष्ट्रीय सत्ता तय होती है. इसलिए इसका संकट केवल संगठनात्मक नहीं, बल्कि ज्ञान संबंधी (एपिस्टेमिक) भी है: यह स्थायी सामाजिक मांगों को ऐसे नैरेटिव और संस्थागत कार्यक्रम में बदलने में असमर्थ रहा जो अस्थिर मतदाता के लिए उपयुक्त हो.
भारत के युवा मतदाता, जो असुरक्षित रोज़गार और डिजिटल आकांक्षाओं से आकार पाए हैं, “प्रोलेटेरियट” या “बुर्जुआ” जैसे शब्दों में बहुत अर्थ नहीं देखते. औद्योगिक श्रम और राज्य-प्रधान पुनर्वितरण पर आधारित वामपंथ की ऐतिहासिक भाषा नई वास्तविकता को पकड़ने में संघर्ष कर रही है.
इसके अलावा, “साम्यवाद” या यहां तक कि “समाजवाद” जैसे शब्द अब युवा पीढ़ी के साथ नहीं गूंजते, जो इन शब्दों को या तो नौकरशाही की सुस्ती या विदेशों में असफल राज्य प्रयोगों से जोड़ती है.
लेफ्ट के क्षेत्र में राइट विंग पॉपुलिज़्म की भरपाई
गौर करने वाली बात यह है कि वामपंथ के खालीपन को राइट विंग पॉपुलिज़्म ने भर लिया है. मोदी सरकार ने, जैसे अन्य पॉपुलिस्ट सरकारों ने किया, अधिकारों के बिना कल्याण का तरीका मास्टर किया है. प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY), आयुष्मान भारत और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जैसी योजनाओं को नागरिकों के हक के रूप में नहीं, बल्कि उपहार के तौर पर पेश किया गया.
यह वैश्विक ट्रेंड से मेल खाता है—डॉनल्ड ट्रंप के स्टिमुलस चेक, जैर बोल्सोनारो के पारिवारिक भत्ते, विक्टर ऑर्बान का “इलीबेरल वेलफेयर स्टेट.” लेफ्ट-हैंड ने पुनर्वितरण की भाषा अपनाई है, लेकिन उसे राष्ट्रवाद और नैतिक अनुशासन के रंग में रंग दिया. विडंबना यह है कि वामपंथ, जो कभी कल्याण का संरक्षक था, अब अपने ही क्षेत्र में पीछे रह गया है.
अगर वामपंथ कल्याण को अधिकार के रूप में जोर नहीं देगा, तो भारत चैरिटी की राजनीति की ओर बढ़ सकता है. स्वास्थ्य और शिक्षा का निजीकरण और जलवायु संकट के समाधान केवल प्रतीकात्मक हरी राजनीति के तहत रह जाएंगे.
मजबूत वाम विरोध की कमी लोकतांत्रिक जांच-परख को कमज़ोर करती है, जिससे संसद राज्य-व्यापार गठजोड़ की संगठित आलोचना के बिना रह जाती है. यह वामपंथ ही था जिसने भारत के सबसे महत्वाकांक्षी सामाजिक सुरक्षा जाल, मनरेगा, को सुनिश्चित किया. अगर भारतीय कल्याण राज्य को सिर्फ चुनावी मुफ्त वितरण का टुकड़ा बनने से बचाना है, तो यही सोच फिर से ज़िंदा करनी होगी.
प्रेकैरियट वर्ग और नए गठबंधन
लेकिन पुनरुद्धार के लिए नवाचार की ज़रूरत है. “प्रोलेटेरियट” या “बुर्जुआ” जैसे पुराने पूंजी विरोधी नारे अब एक वैश्वीकृत, डिजिटल समाज में काम नहीं आते. वामपंथ को अब “प्रेकैरियट” की लड़ाइयों को सामने लाना होगा, जिसमें डिलीवरी राइडर, सफाई कर्मचारी, संविदा शिक्षक और बिना वेतन वाली देखभाल कार्य में लगी महिलाएं शामिल हैं, जो अस्थिर अर्थव्यवस्था में सुरक्षा जाल के बिना जीवन यापन करती हैं.
लेफ्ट को अपने गठबंधन का दायरा बढ़ाना होगा और आंबेडकरवादी, नारीवादी और पर्यावरणवादी एजेंडों को केंद्र में रखना होगा, न कि किनारे पर. इसे शहरी आवास अधिकार, ग्रामीण कृषि संकट जैसी स्थानीय लड़ाइयों में खुद को गहराई से जोड़ना होगा और एक राष्ट्रीय नज़रिया देना होगा जो इन्हें जोड़ सके. इसके अलावा, वामपंथ को रैलियों के अलावा डिजिटल माध्यम में भी संवाद करना सीखना होगा, ताकि नई पीढ़ी तक पहचान, आकांक्षा और न्याय की भाषा पहुँच सके.
भारतीय वामपंथ ने केवल वोट खोए हैं; उसने अपनी भाषा खो दी है, लेकिन इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां नई भाषा ने पुराने आंदोलनों में जान फूंक दी. भारतीय वामपंथ के सामने विकल्प स्पष्ट है: या तो वह अतीत की धरोहर बना रहे, जो अब काम नहीं आती, या 2025 में समझ आने वाली न्याय की भाषा तैयार करे. अगर इसे फिर से मायने रखना है, तो वामपंथ को प्रोलेटेरियट पर शोक मनाना बंद करना होगा और प्रेकैरियट को संगठित करना शुरू करना होगा.
(लेखिका ग्लोबल जस्टिस प्रोग्राम, येल यूनिवर्सिटी से जुड़ी हैं और उन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो, अमेरिका में भी फीचर किया गया है. उनका एक्स हैंडल @maleeha_shafi है.)
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