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Friday, 5 December, 2025
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भारतीय नौकरशाही को ‘DOGE’ वाली खुराक नहीं बल्कि ज्यादा कर्मचारी चाहिए

यह सोच कि ब्यूरोक्रेसी में बहुत ज़्यादा कर्मचारी हैं जो टैक्सपेयर्स के पैसे का गलत इस्तेमाल करते हैं, यह एक आम गलतफहमी है. रिसर्च से पता चलता है कि भारतीय सरकार में कर्मचारियों की कितनी कमी है.

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अमेरिका में जिस ‘DOGE’ यानी ‘डिपार्टमेंट ऑफ गवर्मेंट एफिशिएंसी’ (सरकारी कार्यकुशलता विभाग) को डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन का सबसे बड़ा घरेलू एजेंडा बताकर उसका भारी शोर मचाया जा रहा था वह महज एक सिसकी के साथ भंग किया जा चुका है. दस महीने पहले आरी लेकर घूम रहे एलन मस्क को देखकर ऐसा लगता था उन्हें रोक पाना नामुमकिन है. ‘DOGE’ उनका लोहे का वह गोला था जिससे वे प्रशासन में उनके मुताबिक मौजूद ‘कचरे, फर्जीवाड़े और दुरुपयोग’ के प्रतीक करीब 2,60,000 संघीय कर्मचारियों की छंटनी करने वाले थे.

लेकिन मई आते-आते ट्रंप-मस्क ‘ब्रोमांस’ यानी गहरी दोस्ती में खटास आ गई और इसके साथ ‘कचरे, फर्जीवाड़े और दुरुपयोग’ के प्रतीकों की छंटनी के ‘प्रोजेक्ट’ को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और पिछले सप्ताह की गई घोषणा के अनुसार ‘डोज’ (DOGE) को आखिरी डोज़ दे दिया गया.

जो कोई भी इसके 10 महीने लंबे रन पर ध्यान देगा, उसे DOGE एक अस्त-व्यस्त, डिस्टोपियन प्रोजेक्ट लगा, जिसका सरकारी “एफिशिएंसी” से कोई लेना-देना नहीं था. इसमें एल्गोरिदम से चलने वाले एक हाइपर-प्राइवेटाइज्ड, टेक्नो-स्टेट की कल्पना की गई थी, जिसका लक्ष्य “वेस्ट, फ्रॉड और अब्यूज़” को कम करके एफिशिएंसी को बेहतर बनाना था, जो इस डिस्टोपिया को सही ठहराने का एक बहाना था. लेकिन यह ‘सरकार की कार्यकुशलता’ की कोशिश को सुर्खियों में लाने में और इस लक्ष्य पर व्यापक आम सहमति बनाने में सफल रही. यहां तक की अमेरिका में जो राजनीतिक विपक्ष है उसे भी पहले यह कबूल करना पड़ा कि एक मूल्य के रूप में कार्यकुशलता एक केंद्रीय मुद्दा है. विपक्ष बाद में भले यह तर्क दे पाया कि ‘DOGE’ जो भी कर रहा है वह इस लक्ष्य को हासिल करने का गलत तरीका है.

इधर भारत में कई लोग ‘DOGE’ को बड़ी ईर्ष्या से देख रहे थे और अपने यहां भी ‘DOGE’ जैसी चीज लागू करने की बात कर रहे थे. आखिर, हम लोग लंबे समय से लालफ़ीताशाही और नौकरशाही की हठधर्मिता के भुक्तभोगी रहे हैं, जो स्वच्छ हवा जैसी बुनियादी जरूरत तक पूरा करने में विफल रही है. वास्तव में, अक्षम शासन को लेकर अधिकतर बहसें टेक्नोलॉजी को रामबाण मानते हुए उसके द्वारा प्रस्तुत उन संभावनाओं पर केंद्रित हो जाती हैं जो हमें शासन के कामों में मनुष्य के दखल से बचने की छूट देती हैं. और जिन मामलों में यह मुमकिन नहीं है उनके लिए टेक्नोलॉजी पर आधारित निगरानी के तरीकों में महारत हासिल कीजिए और नौकरशाहों को अनुशासित कीजिए. 2014 में जब सरकारी दफ्तरों में बायोमेट्रिक हाजिरी लगाने की व्यवस्था शुरू की गई थी तब कितने खुश हुए थे. फिर भी, ‘DOGE’ ‘कार्यकुशलता’ की अंधी होड़ के खतरों से सावधान रहने की कहानी कहती है, जिस पर भी भारत में बहस होनी चाहिए.

नौकरशाही की स्वायत्तता

नौकरशाही को लेकर भारत और दुनिया भर में जो बहस होती है उनमें उसकी छवि लालफ़ीताशाही से लगाव रखने वाले आलसी, सुस्त, काम से ज्यादा वेतन पाने वाले ऐसे सरकारी कर्मचारियों के रूप में पेश की जाती है जो ‘काम’ से बचने के लिए हर तरह की चाल चलते हैं. यही वजह है कि ट्रंप के अभियान में उनकी अंदरूनी मंडली ने ‘कचरे, फर्जीवाड़े और दुरुपयोग’ का जो नारा दिया उसकी गूंज उनके जनाधार में सुनाई दी. सुधारों की जो चाहत है उसमें अंततः ऐसा रास्ता खोजने की कोशिश होती है कि नौकरशाही के हाथ में निर्णय के जो अधिकार हैं उनमें कटौती हो, खासकर उन स्थितियों में जिनमें नागरिकों का उससे साबका पड़ता हो. इसके अलावा अधिकारियों पर निगरानी इस तरह बढ़ाई जाए कि वे ‘कार्यकुशल’ होने के लिए अनुशासित हो जाएं.

‘DOGE’ ने अलगोरिदम के जरिए अधिकारी को खत्म करने की कोशिश की. भारत में हमने निगरानी की अदृश्य व्यवस्था के कई चमकीले डिजिटल उपाय तैयार किए. कमांड और कंट्रोल केन्द्रों में MIS सिस्टम, रियल टाइम IVRS और GPS ट्रैकर्स, बायोमेट्रिक हाजिरी तकनीक आदि उपलब्ध हो गए, जहां से वरिष्ठ अधिकारी अपने जूनियर कर्मचारियों पर निगरानी रख सकते हैं और उम्मीद करते हैं कि वे ज्यादा कार्यकुशल बन जाएंगे. लेकिन असली बात ओझल कर दी जाती है.

व्यावहारिकता के लिहाज से देखें तो निर्णय के अधिकारों में कटौती उस फीडबैक का रास्ता बंद कर देती है जो नीतियों और उन्हें लागू करने के सही उपायों के लिए जरूरी हैं. जमीन पर उतारने के मोर्चे पर तैनात अधिकारियों के पास काम करने के लिए जरूरी जानकारियों को ऐसा खजाना होता है जिसका मुक़ाबला परदे के पीछे और नीति निर्धारण के ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग नहीं कर सकते. इस फीडबैक के बिना टेक्नोलॉजी मददगार बनने की जगह बोझ बन जाती है. जेनिफर पाहलका ने अपनी किताब ‘रीकोडिंग अमेरिका: व्हाइ गवर्मेंट इज़ फेलिंग इन दि डिजिटल एज ऐंड व्हाट वी कैन डू टु फिक्स इट’ में विस्तार से बताया है कि नीतिगत फैसलों के कारण पिछले बकाए काम पुराने कर्मचारियों की कमजोरी के दावों में किस तरह जुड़ जाते हैं, और यह कि ये फैसले टेक्नोलॉजी की क्षमताओं से किस तरह बेमेल थे. जो अग्रिम मोर्चे पर थे उन्हें पता था सिस्टम असल में किस वजह से चरमरा रही है, लेकिन उनकी बात शायद ही सुनी जाती है.

भारत में हमने बार-बार ऐसा होते देखा है. मोर्चे पर तैनात आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से लेकर स्कूल शिक्षकों पर नये डाटा की मांग का बोझ डाला जाता है और वे शिकायत करते हैं कि उन्हें ‘क्लर्क’ या डाक कर्मचारी बनाकर रख दिया गया है जिनका काम MIS सिस्टम में डाटा भरना रह गया है, जिसका उनके रोज के काम से कोई मतलब नहीं होता.

इससे भी बुरी बात यह है कि निर्णय प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका नहीं होती, जो काम करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करती है. इसका नतीजा यह होता है कि वे खुद को जनसेवा के सक्रिय एजेंट के रूप में देखना बंद कर देते हैं जिन्हें पढ़ाने, या स्वास्थ्यसेवा देने, या सफाई करने का काम सौंपा गया है. इसने भारतीय शासन व्यवस्था की उस विकृति, उस नौकरशाही संस्कृति को मजबूत किया है जो परिणामों की जगह प्रक्रिया को लेकर जवाबदेही को महिमामंडित करती है.

अग्रिम मोर्चे पर तैनात अधिकारियों से पूछिए कि वे अपने प्रशासनिक मामलों को सुधारने के लिए क्या कर सकते हैं, तो उनका आम जवाब यही होता है कि ‘सरकार चाहे तो वह बहुत कुछ कर सकती है लेकिन हमें तो कोई अधिकार नहीं है, हम तो केवल डाटा की मांग पूरी करने वाले पोस्ट अफसर हैं’.

यह किसी आलसी, अक्षम अधिकारी की आवाज नहीं है जिस पर ‘निगरानी’ करने की जरूरत हो बल्कि यह उस कार्य संस्कृति की देन है जो नतीजे की जवाबदेही से ज्यादा प्रक्रिया की जवाबदेही को मजबूती देने वाली पेशेगत धारणा को तरजीह देती है.

नतीजों से संबंधित ‘कार्यकुशलता’ में सुधार लाने के लिए प्रक्रिया की जवाबदेही वाली संस्कृति को तोड़ना होगा, जो कि मोर्चे पर तैनात कर्मचारियों को अपने काम से संबंधित जरूरी निर्णय के अधिकार देकर किया जा सकता है. इसमें यह भी शामिल है कि उनके अधिकारों में कटौती न की जाए और उन्हें मशीन के पुर्जे न माना जाए जो एमआइएस आधारित कमांड व कंट्रोल सेंटर की मांगों से बंधा हो, बल्कि उन्हें क्रियान्वयन से जुड़ी समस्याओं को हल करने के उपाय करने का अधिकार भी हो.

प्रशासन का आकार घटाना नहीं बल्कि सही करना

यह मिथक व्यापक हो चुका है कि नौकरशाही में बेहिसाब कर्मचारी भरे पड़े हैं जो करदाताओं के पैसे पर मौज कर रहे हैं. फरवरी 2025 में ‘डोज़’ ने परमाणु महकमे के महत्वपूर्ण कर्मचारियों की मनमानी छंटनी करके और जल्दी ही उन्हें फिर से नौकरी पर बहाल करके बदनामी कमाई. इसने यह शर्मिंदगी भरी याद दिला दी कि सरकार को अलॉगरिदम नहीं लोग चाहिए.

भारी-भरकम नौकरशाही वाला मिथक भारत में भी व्यापक है. लेकिन यहां कार्यकुशलता से संबंधित असली समस्या यह है कि कर्मचारी कम हैं, बहुत ज्यादा नहीं. सरकारी अधिकारियों और शिक्षा जगत के लोगों के शोध बताते हैं कि भारतीय शासन व्यवस्था में कर्मचारियों की भारी कमी है.

इन आंकड़ों पर विचार कीजिए : 2011 में, भारत में कुल रोजगार में सरकारी नौकरियों का अनुपात मात्र 4.6 प्रतिशत है. इसके विपरीत अमेरिका में यह अनुपात 15.9 फीसदी है. इसे इस तरह देखिए: भारत में प्रति एक लाख निवासियों पर 1,622.8 सरकारी कर्मचारी हैं जबकि अमेरिका में 7,681 कर्मचारी हैं. समस्या ऊपरी स्तर पर है. 2018 में, IAS अधिकारियों के स्वीकृत पदों में से 23 फीसदी पद खाली थे. भारत में इसकी सिविल सेवा में केवल 940 राजनयिक कार्यरत हैं जबकि अमेरिका के विदेश विभाग में इनकी संख्या करीब 14,000 है. निचले स्तरों पर बड़े विस्तार के बावजूद कर्मचारियों की व्यापक कमी बनी हुई है. प्रखंड विकास पदाधिकारियों (BDO) के बारे में किए गए एक अध्ययन में देवेश कपूर और आदित्य दासगुप्त ने पाया कि अधिकृत रूप से स्वीकृत 48 फीसदी पूर्णकालिक पद खाली पड़े हैं.

ये तथ्य वर्तमान कैबिनेट सचिव टी.वी. सोमनाथन और आइएएस अधिकारी गुलजार नटराजन की महत्वपूर्ण किताब ‘स्टेट कैपेबिलिटी इन इंडिया’ में दर्ज हैं. इनका कहना है कि अपने आकार और अपनी जिम्मेदारियों के मद्देनजर भारतीय शासन व्यवस्था काफी कार्यकुशल है. यह बात बेमेल लगेगी मगर सच्चाई यह है कि भारतीय शासन को कार्यकुशल बनाना है तो अधिकारियों का ‘डोजीकरण’ करने की जगह उनकी संख्या बढ़ाने की जरूरत है.

शासन कोई अमेज़न डॉट कॉम नहीं है

सरकार की कार्यकुशलता नौकरशाही में सुधार का पुराना पवित्र मंत्र रहा है. इस बहस की जड़ें सार्वजनिक प्रबंधन की उस नयी परंपरा में पाई जा सकती हैं जो चयन, प्रतियोगिता, लागत-लाभ अनुपात आदि के बाजार वाले सिद्धांतों को अपनाती है. आज के संदर्भ में ये विचार सिलिकन वैली के स्टार्ट-अप के प्लेटफॉर्म तथा अल्गोरिदम वाले तर्कों से जुड़ गए हैं जिनका ‘डोज़’ महिमामंडन करता है. लेकिन सरकार कोई अमेज़न डॉट कॉम नहीं है.

नागरिक के रूप में हम शासन को उसी तरह देखते हैं जिस तरह हम लेन-देन पर आधारित बाजार व्यवस्था में फर्मों को ग्राहक के रूप में देखते हैं. समाजविज्ञानी एलिजाबेथ पॉप बर्मन ने अपनी किताब ‘थिंकिंग लाइक एन इकोनॉमिस्ट: हाउ एफिशिएंसी रिप्लेस्ड इक्वलिटी इन यूएस पब्लिक पॉलिसी’ में इन दुविधाओं की विवेचना की है. बर्मन का मूल तर्क यह है कि कार्यकुशलता (जिसे वे सार्वजनिक नीति में ‘आर्थिक तर्कों’ का प्रवेश बताती हैं) का नारा शासन की महत्वाकांक्षा को सीमित करता है. उन्होंने 1960 के दशक से 1990 के दशक के बीच ‘क्लीन एयर एक्ट’ के विकास पर जो केस स्टडी की, वह बताती है कि पर्यावरण नीति किस तरह उस नैतिक स्वरूप से अलग स्वरूप ले लेती जिसमें प्रदूषण फैलाने वालों पर यह तोहमत थोपने की बात की जाती थी कि प्रदूषण एक ऐसा परिणाम है जिसकी कीमत तय करना जरूरी है.

इसलिए, समाज में प्रदूषण के स्वीकार्य स्तर के बारे में बातचीत के जरिए लोकतांत्रिक तरीके से फैसला करने की जगह यह एक्ट और उसका ढांचा समाज को प्रदूषण की जो कीमत चुकानी पड़ती है उस पर ज़ोर न देकर प्रदूषण की ‘कीमत’ पर ज़ोर देता है.

मुद्दा सीधा-सा यह है कि शासन जो काम करता है और जो नीतियां तय करता है वे समाज के व्यापक सरोकारों को प्रभावित करते हैं जिनकी कीमत पैसे में नहीं तय की जा सकती. ये राजनीतिक मोलतोल के परिणाम होते हैं और इसके लिए कुशलता जरूरी हो सकती है क्योंकि यह पुनर्वितरण और आर्थिक वृद्धि, पर्यावरण सुरक्षा और व्यावसायिक हितों, प्रतिनिधित्व (मसलन आरक्षण) और योग्यता के बीच समझौता करवाता है. कार्यकुशलता के लिए अल्गोरिदम का उपयोग इन समझौतों का समाधान नहीं कर सकता. इसके लिए जटिल, लोकतांत्रिक बातचीत जरूरी होगी और इसके नतीजे ‘पैसे के रूप में मूल्य’ के लिहाज से उपयुक्त नहीं होंगे मगर सामाजिक समरसता के लिए जरूरी हैं. ये लोगों की स्वाधीनता और समाज की स्थिरता के लिए जरूरी लोकतांत्रिक मोलतोल के नतीजे होते हैं.

‘DOGE’ से अगर कोई एक सबक मिलता है तो वह यह है कि भारत में हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि लोकतंत्र हमेशा कार्यकुशल भले न हो लेकिन उसके मूल्यों को संरक्षित करना बहुत जरूरी है. इस सशक्त सच्चाई को हम ‘कार्यकुशलता’ वाली बहस के शोर में कमजोर न पड़ने दें. भारतीय शासन को ज्यादा कार्यकुशल बनाने का पहला कदम इसे ज्यादा लोकतांत्रिक और नागरिकों के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाना ही हो सकता है, अल्गोरिदम का सहारा लेना नहीं.

यामिनी अय्यर ब्राउन यूनिवर्सिटी के सक्सेना सेंटर और वॉटसन इंस्टीट्यूट में विजिटिंग सीनियर फेलो हैं, और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की पूर्व प्रेसिडेंट और चीफ एग्जीक्यूटिव हैं. उनका X हैंडल @AiyarYamini है. विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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