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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतवो भारत जो वीर दास और उदारवादी चाहते हैं— और एक वो जिसके बारे में वे बात नहीं करते

वो भारत जो वीर दास और उदारवादी चाहते हैं— और एक वो जिसके बारे में वे बात नहीं करते

स्टैंडअप कॉमेडियन वीर दास का कैनेडी सेंटर मोनोलॉग ‘टू इंडियाज’ 2014 से पहले की पुरानी यादों और उन बातों पर आधारित है जिन्हें हर उदारवादी की तरफ से जबरन दफना दिया गया है.

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भारतीय स्टैंडअप कॉमेडियन वीर दास ने हाल में वाशिंगटन डीसी के कैनेडी सेंटर थिएटर में एक मोनोलॉग पढ़ा, जो शायद पहली बार व्हाट्सएप पर डिफेंस कॉलोनी के कुछ ग्रुप पर फॉरवर्ड हुआ है, जिसमें उन्होंने अच्छे भारत और बुरे भारत की बाइनरी पर बात की है. जैसा अनुमानित था, इस छोटे-से वीडियो ने हमेशा ऐसी बातों पर नाराज होने वाले दक्षिणपंथियों को भड़का दिया है, जिन्हें नाखुश लोगों की सूची में रहना बेहद पसंद भी आता हैं.

मुझे इस वीडियो से वैसे कोई समस्या नहीं है, लेकिन कुछ सवाल हैं जो इसे देखते ही मेरे दिमाग में आए. आखिर वीर दास ने ‘भारतीय समाज की बुराइयों’ की चर्चा करते हुए एक बार भी ‘जाति’ शब्द का जिक्र क्यों नहीं किया? मुझे नहीं लगता कि यह कहकर कुछ ज्यादा अपेक्षा कर रहा हूं, कि मुझे उनके मुंह से एक बार यह बात सुनने की उम्मीद तो थी कि ‘मैं एक ऐसे भारत से आता हूं जो जातियों के आधार पर क्रूरता की हद तक विभाजित है और जहां दलितों को मूंछ रखने या पैर पर पैर चढ़ाकर बैठने या घोड़े की सवारी करने के लिए मार तक डाला जाता है.’

जब आप भारतीय समाज पर चर्चा कर रहे हों तो जातिवाद स्पष्ट तौर पर आपके दिमाग में आने वाला एक मुद्दा होना चाहिए. क्या आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि कोई अमेरिकी स्टैंडअप कॉमेडियन या कमेंटेटर अमेरिका की सांस्कृतिक समस्याओं पर कोई लंबा मोनोलॉग सुनाए और उसमें एक बार भी नस्लवाद का उल्लेख न हो?

भारतीय सवर्ण उदारवादी और हमारे मौजूदा बौद्धिक विमर्श एक तरह की समस्या से ग्रस्त हैं, और यह उत्पन्न हुई है जानबूझकर चालाकी से लिए गए एक निर्णय के कारण—निर्णय जाति का उल्लेख पूरी तरह से ही नहीं करने का. यह स्पष्ट करता है कि भारतीय समाज में खामी कहां है और वीर दास इसके अध्ययन के लिए आदर्श मॉडल हैं.


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2014 से पहले के भारत की खूबसूरती

सवर्ण उदारवादी विमर्श में हर चर्चा एक ‘युग के अंत’ का शोक मनाती है. कहने की जरूरत नहीं कि स्पष्ट तौर पर यह केवल उनके लिए ही एक अंत की तरह है. सब कुछ जबरन दफ्न करने वाला यह प्रदर्शन उन सभी के लिए एक अनिवार्यता बन गया है जो खुद को उदारवादी समझते थे. वीर का मोनोलॉग उसी कल्पना पर आधारित है.

2014 के बाद भारतीय उदारवादियों ने एक शौक पाल लिया है. इसमें विचारमग्न होकर खुद को गुरुदत्त समझने की कल्पना करना शामिल है जिनके अंतर्मन में गूंजता है, ‘जिन्हें नाज है हिंद पे वो कहां है.’

यहां पर पूछने के लिए और अधिक उपयुक्त प्रश्न है—’जिस हिंद पे नाज है वो कहां है.’

उनकी मांग से ऐसा लगता है कि जैसे ‘यह वह भारत नहीं है जिसे हम जानते थे और अब अपना 2014 से पहले का भारत वापस चाहते हैं.’ पर अफसोस की बात है कि एक आदर्श भारत के उनके वर्जन में हाशिये पर रहने वाले तबके का उनके कल्पित स्वप्नलोक की शोभा बनना शामिल नहीं है. इतिहास में कभी ऐसा समय नहीं आया जब हाशिये पर रहने वालों ने ‘जीने योग्य’ या सामान्य समय देखा हो और किसी गौरवशाली अतीत को यादों में बसा रखा हो.

2014 से पहले के भारत के सवर्ण कल्पना लोक पर एक नजर

एक समय था जब अधिकांश सवर्ण उदारवादी मानते थे कि उनकी कहानी के मुख्य विलेन भ्रष्टाचार और आरक्षण हैं—इन्हीं दोनों को आमतौर पर अपने देश को महाशक्ति बनने से रोकने की वजह माना जाता रहा है. (वे अभी भी ऐसा करते हैं—लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि अब केवल दूसरे तथ्य को लेकर मुखर हैं.)

रंग दे बसंती जैसी फिल्में आईं, जिनकी वजह से ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत’ का पूरा आंदोलन जन्मा. पुनर्जन्म पर आधारित फिल्मों से खासा लगाव रखने वाले देश में आंदोलन की सबसे बड़ी अपील अन्ना हजारे थे, जो अक्सर लोगों को एम.के. गांधी के पुर्नअवतार या रंग दे बसंती वाले डीजे यानी आमिर खान का पुराना वर्जन लगते थे.

यह सब शुद्धिकरण की रस्म का हिस्सा था, जो कल्पना लोक को और भी अधिक काल्पनिक बनाती है. भ्रष्ट, बुरे राजनेता लोकपाल में पवित्र डुबकी लगाएंगे और ‘शुद्ध’ और भ्रष्टाचार की बुराइयों से मुक्त हो जाएंगे.

इन यादों को फिर से खंगालने पर मौजूदा वास्तविकता को लेकर हमारे आकलन के साथ एक तारतम्यता ही जुड़ती है. बहुत से लोगों का दिल तो सही बात समझता है लेकिन दिमाग कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं होता. तब एक्टिविस्म एक एक्टिविटी बन जाता है, स्टैंडअप-फिल्म-कविता के जरिये क्रांति की तलाश की जाती है, लेकिन नतीजा केवल हमेशा नाखुश रहने वाले दक्षिणपंथियों की संवेदनाओं (या उसके अभाव) के खिलाफ विद्रोह के रूप में सामने आता है.

अपने सात मिनट के मोनोलॉग के अंत में वीर दास सारी जिम्मेदारी दर्शकों पर डालकर खुद इससे पीछे हट जाते हैं, जब वह कहते हैं कि ‘कैमरे को अब उनकी ओर मोड़ रहे हैं.’ वह एमएजीए कैंपेन—जिसमें भविष्य का आधार काल्पनिकता की जगह पुरानी यादों को बनाया गया है—की याद दिलाते हुए दर्शकों से अपने ‘भारत’ पर विश्वास करने और इसे स्मृतियों से मिटने नहीं देने की ‘मांग’ करते हैं.

यही वो मुकाम है जहां आकर क्लासिक सवर्ण उदारवादियों को खुद समस्याओं से किनारा कर लेने में महारात हासिल है. ठीक वैसे ही जैसे भारत के शशि थरूर जैसे लोग इंग्लैंड से हर्जाना मांगते हैं (जबकि जानते हैं कि कुछ मिलने नहीं जा रहा है) और फिर वही सब करने के लिए घर लौट आते हैं, जिसे इंटरनेट पर ‘उदार संघी व्यवहार’ की संज्ञा दी जाती है.वह उन लोगों से नजदीकी बढ़ाते हैं जिन्हें वो फासीवादी करार देते हैं सिर्फ उन्हें उकसाने के लिए, और फिर उनमें लालसा जगाकर उन्हें तरसता छोड़ देते हैं, साथ ही यह दिखाते है कि कैसे वह उनसे ऊपर हैं और एक ‘विशुद्ध’ और बेहतर भारत की कल्पना रखते है, जिसकी परिणति अंततः एक पुस्तक को जन्म देती है, ‘मैं हिंदू क्यों हूं’. फिर उदारवादियों की मंडली के बीच यही बहस एक बेहद ही अनुपयोगी बाइनरी ‘हिंदूवाद बनाम हिंदुत्व’ में तब्दील हो जाती है.

वीर दास का स्टैंडअप दर्शकों को बैठे ही रहने पर बाध्य करता है, जो वास्तव में इस एक्ट का उद्देश्य भी रहा है. सवर्ण इकोसिस्टम इस एक्ट को क्रांतिकारी मानता है. इससे ऐसे मुद्दे सीधे तौर पर दर्शकों के सामने न लाने में मदद मिलती है जो उनके विशेषाधिकार को चुनौती दे सकते हैं. अंततः, ये दर्शकों को एक ऐसे अमूर्त भारत की यादों में पहुंचा देता है, जो केवल उनकी कल्पना में मौजूद है. गांधी का भारत. नेहरू का भारत. एक ऐसा भारत जो ऋषिकेश के लग्जरी स्पा रिसॉर्ट के पास बहती गंगा के पानी की तरह शांत था, लेकिन उस तरह अशांत नहीं जैसे हर साल देश के गांवों में बाढ़ आ जाती है.


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सत्ता विरोधी व्यंग्य

यदि व्यंग्य ताकत और सत्ता प्रतिष्ठान का मजाक उड़ाने का साधन है तो वीर दास को जातिवाद में जकड़े समाज में काफी प्रभावशाली प्रमुख जाति से संबंधित होने की ताकत और अपने ही नेटवर्क के खिलाफ निशाना साधना चाहिए. जब ज्यादा कुछ दांव पर न लगा हो और सीधे तौर पर आपको कोई फर्क न पड़ता तो प्रतिरोधक वाली छवि बनाना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है. दरअसल, वैश्विक स्तर पर सत्ता-विरोधी कॉमेडी के बाजार में यथास्थिति को चुनौती देने वाले एक असंतुष्ट व्यंग्यकार की पूरी तरह से थोपी गई छवि को कुछ ज्यादा ही महत्व मिलता है. सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या वीर वास्तव में ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ का मजाक उड़ा रहे हैं. भारतीय संदर्भ में ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ और ‘यथास्थिति’ क्या है?

भारत में सत्ता के सभी प्रमुख संस्थान उत्पीड़नकारी जाति के वर्चस्व के अधीन हैं और सत्ता प्रतिष्ठान और ताकत के विभिन्न आधार बनते हैं.

वीर दास ने अपने मोनोलॉग में उल्लेख किया है कि वह एक ऐसे भारत से आते हैं जिसे शाकाहार पर गर्व है. भारत में देश की 30 फीसदी आबादी ‘शुद्ध शाकाहारी’ हो सकती है या इसका दावा कर सकती है और इसमें अधिकांश लोग प्रभावशाली जाति समूहों से आते होंगे. इससे ही पता चलता है कि वीर किस भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं.

वास्तव में शाकाहार पर संपूर्ण विचार जाति की शुद्धता के साथ गहराई से जुड़ा है, जो भारतीय संदर्भ में अंततः एक ब्राह्मणवादी विचार ही है. हाल में अहमदाबाद नगर निगम ने शहर की सड़कों पर नॉनवेज के स्टाल प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया है, ऐसा सिर्फ इसलिए मुमकिन नहीं हुआ क्योंकि नरेंद्र मोदी को चिकन तंदूरी के प्रति अपनी नापसंद जाहिर करना साहसिक लगता, बल्कि इसलिए भी हो पाया कि नैतिकता का ब्राह्मणवादी विचार इस समाज की नसों में गहराई से समाया है. यह ब्राह्मणवादी सोच और प्रभावशाली जाति का वर्चस्व भारत में हमेशा शासन करता रहेगा चाहे भाजपा सत्ता में हो या नहीं.

जब तक कोई ऐसे भारत के विचार को चुनौती नहीं देता, तब तक उसे सत्ता-विरोधी, कट्टरपंथी या करारी चोट वाला व्यंग्य नहीं कहा जा सकता. वास्तव में तो भारत में अधिकांश हार्ड हिटिंग सटायर का नाम बदलकर ‘शायद ही कहीं हिट’ करने वाला कर दिया जाना चाहिए.

(अनुराग एक मल्टीमीडिया आर्टिस्ट है और अनुराग माइनस वर्मा पॉडकास्ट के होस्ट हैं. वह @confusevichar पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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