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Sunday, 20 July, 2025
होममत-विमत114 साल के फौजा सिंह की मौत ने खोली भारत की सड़कों की सच्चाई — हर 3 मिनट में जाती है एक जान

114 साल के फौजा सिंह की मौत ने खोली भारत की सड़कों की सच्चाई — हर 3 मिनट में जाती है एक जान

114 साल के फौजा सिंह को तेज़ रफ्तार कार ने टक्कर मार दी, जिससे उनकी मौत हो गई. इस हादसे ने एक बार फिर भारत की खतरनाक सड़कों, बढ़ते सड़क हादसों और लापरवाह ट्रैफिक व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

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दिल्ली: मशहूर मैराथन धावक फौजा सिंह का निधन 114 साल की उम्र में हुआ, लेकिन उनकी मौत उम्र के कारण नहीं, बल्कि एक सड़क हादसे में हुई. 14 जुलाई को जालंधर-पठानकोट हाईवे पर उन्हें एक तेज़ रफ्तार कार ने टक्कर मार दी.

कार चलाने वाले 26-वर्षीय एनआरआई (प्रवासी भारतीय) अमृतपाल सिंह ढिल्लों को गिरफ्तार कर लिया गया है. सिंह, जिन्हें दुनियाभर में सम्मान से देखा जाता था, जालंधर के अपने गांव में सड़क पार कर रहे थे, जब ढिल्लों ने उन्हें अपनी टोयोटा फॉर्च्यूनर से कुचल दिया.

यह घटना एक बार फिर भारत की एक पुरानी और लगातार बनी हुई समस्या को उजागर करती है — सड़क सुरक्षा और ट्रैफिक नियमों की अनदेखी. जिस तरह भारत की वैश्विक स्थिति और आर्थिक आंकड़े देश की पहचान दिखाते हैं, वैसे ही सड़क पर लोगों का व्यवहार और सार्वजनिक सुरक्षा भी हमारी असली तस्वीर पेश करते हैं. यही वजह है कि भारत में सड़क सुरक्षा का संकट दिप्रिंट के लिए इस हफ्ते का न्यूज़मेकर है.

अभी पिछले साल ही देश ने हाल के समय की सबसे भयावह दुर्घटनाओं में से एक देखी — पुणे की पोर्श कार दुर्घटना. एक 17 साल का लड़का, जो अपने माता-पिता की पोर्श चला रहा था (और उस समय नशे में होने का आरोप भी था), उसने बाइक सवार दो लोगों को कुचल दिया था.

इस हादसे के बाद लोगों में तब और ज्यादा गुस्सा फूट पड़ा जब किशोर न्याय बोर्ड ने उसे कुछ ही घंटों में ज़मानत दे दी. शर्तें भी बेहद नरम थीं — 300 शब्दों का सड़क सुरक्षा पर निबंध लिखना, नशा छुड़ाने वाले केंद्र में काउंसलिंग लेना और 15 दिन तक ट्रैफिक पुलिस की मदद करना.

एक साल बाद और संयोग से फौजा सिंह की मौत के ठीक अगले दिन — उसी किशोर न्याय बोर्ड ने पुणे पुलिस की ये अपील खारिज कर दी कि उस लड़के पर बालिग के तौर पर मुकदमा चलाया जाए.

भारत में सड़क हादसों में तेज़ी से बढ़ोतरी

सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में हिट एंड रन (टक्कर मारकर भागने) के मामलों में तेज़ बढ़ोतरी हुई है — 2014 में ऐसे 53,334 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2022 में ये बढ़कर 67,387 हो गए.

सिर्फ 2023 में ही भारत में सड़क हादसों में 1.72 लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हुई — यानी हर दिन औसतन 474 मौतें, या लगभग हर तीन मिनट में एक मौत. इनमें से 54,000 लोग हेलमेट न पहनने के कारण और 16,000 लोग सीट बेल्ट न लगाने की वजह से मारे गए. ये आंकड़े साफ दिखाते हैं कि भारत की सड़कें आज भी कितनी खतरनाक हैं.

पिछले साल दिसंबर में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि ये हादसे इसलिए हो रहे हैं क्योंकि लोगों में कानून का ना तो सम्मान है और ना ही डर.

गडकरी ने कहा था, “हादसों के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण इंसानी व्यवहार है.”

हर साल सरकार की ओर से ब्लैक स्पॉट्स (ऐसे सड़क हिस्से जहां बार-बार हादसे होते हैं) को चिन्हित करने और सुधारने की बात होती है. साथ ही नागरिकों से सड़क सुरक्षा की शपथ लेने जैसे अभियान भी चलाए जाते हैं.

भारत सरकार की 2021 की एक अधिसूचना के मुताबिक, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में राष्ट्रीय राजमार्गों पर कुल 5,803 ब्लैक स्पॉट्स की पहचान की थी — ये आंकड़े 2015 से 2018 के बीच के हादसों और मौतों पर आधारित थे.

मंत्रालय के अनुसार, इनमें से 5,366 जगहों पर अस्थायी सुरक्षा उपाय किए गए हैं, जबकि 3,215 स्थानों को स्थायी रूप से दुरुस्त किया जा चुका है.


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भीड़भाड़ वाली सड़कें, उदासीन जनता

सड़क हादसे ये भी दिखाते हैं कि भारत में सड़कें कैसे इस्तेमाल होती हैं — और कैसे उनकी देखरेख में लापरवाही होती है. ज़्यादातर सड़कें जरूरत से ज़्यादा भरी होती हैं, जहां कार, ऑटो, बाइक जैसी मोटर गाड़ियां साइकिल, ठेला और रिक्शा के साथ सड़कों पर जगह के लिए जूझती रहती हैं. फुटपाथों पर अक्सर रेहड़ी-पटरी वाले कब्ज़ा कर लेते हैं और अव्यवस्थित पार्किंग से सड़क और भी संकरी हो जाती है.

‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं हमारे परिवहन सिस्टम से भी जुड़ी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, हर मिनट 90 से ज़्यादा गाड़ियां रजिस्टर्ड होती हैं और इनमें से 88 प्रतिशत से अधिक प्राइवेट कार या टू-व्हीलर होते हैं.

हालांकि, एक अच्छी मिसाल कोलकाता से मिलती है, जहां सड़क सुरक्षा के लिए कुछ ठोस कदम उठाए गए हैं. यहां वैज्ञानिक तरीके से तय की गई स्पीड लिमिट लागू की गई है — शहरों में अधिकतम रफ्तार 50 किमी/घंटा और जोखिम वाले इलाकों में इससे भी कम रखी गई है.

अब यह देखना बाकी है कि अगर इस तरह के कदम बाकी शहरों में लागू किए जाएं तो क्या सकारात्मक नतीजे मिलेंगे, लेकिन साफ है कि सड़क हादसे न सिर्फ लोगों की जान ले रहे हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.

मार्च में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि भारत को हर साल करीब 5 लाख सड़क दुर्घटनाओं के कारण जीडीपी का 3 प्रतिशत नुकसान होता है. वे AMCHAM के एक सम्मेलन में बोल रहे थे, जिसका विषय था: “सड़क सुरक्षा में टेक्नोलॉजी का उपयोग: भारत-अमेरिका साझेदारी”.

गडकरी ने डीपीआर तैयार करने वाले सलाहकारों की भी आलोचना की और कहा कि खराब योजना और गैर-जिम्मेदार रवैये की वजह से हादसे बढ़ते हैं.

उन्होंने कहा, “DPR कंसल्टेंट्स ही असली गुनहगार हैं जो सड़क हादसों के लिए ज़िम्मेदार हैं. ये लोग कभी पैसे बचाने के चक्कर में, कभी अन्य कारणों से और कभी गंभीरता की कमी के चलते गलत रिपोर्ट बनाते हैं.”

लेकिन अंत में, जैसा कि गडकरी भी कहते हैं — असली बदलाव तभी आएगा जब लोगों का व्यवहार बदलेगा.

(न्यूज़मेकर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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