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मंगलवार, 17 जून, 2025
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खतरे अभी खत्म नहीं हुए हैं, भारत को अपनी किलेबंदी करनी ही पड़ेगी

भारत को खुद को सिंदूर दुर्ग में बदलना चाहिए, एक अभेद्य किला, जो ज़मीन, समुद्र, हवा या साइबरस्पेस से आने वाले बहु-क्षेत्रीय खतरों से सुरक्षित हो.

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महाराष्ट्र के माल्वाण शहर के पास अरब सागर में एक छोटे-से द्वीप पर बने सिंधुदुर्ग किले को सबसे महत्वपूर्ण समुद्री किलों में गिना जाता है. इसे मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1664-67 में बनवाया था. यह किला समुद्री क्षेत्र में रणनीतिक सुरक्षा और विदेशी हमलों से सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था. शिवाजी ने कोंकण के समुद्रतट की सुरक्षा और एक शक्तिशाली नौसेना के गठन की जो योजना बनाई थी उसका केंद्र था यह किला. इसने भारत की समुद्री सुरक्षा रणनीति की नींव डाली.

इसी तरह, ऑपरेशन सिंदूर के जरिए अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने के बाद भारत को खुद को एक सिंदूर दुर्ग में तब्दील कर लेना चाहिए, जो अभेद्य हो; ज़मीनी, समुद्री और हवाई या साइबर जैसे बहुआयामी खतरों से सुरक्षित हो. यह आतंकवाद के खिलाफ भारत के उस नए सिद्धांत की शुरुआत मानी जाएगी जिसकी रूपरेखा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महीने के शुरू में राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रस्तुत की : “आतंकवाद और व्यापार साथ-साथ नहीं चल सकते, पानी और खून साथ-साथ नहीं बह सकते”.

पाकिस्तान के अंदर आतंकी तामझाम पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत सैन्य आक्रमण को विराम दे दिया गया है. पाकिस्तान इसके कारण अपनी छवि और फौजी ताकत को हुए नुकसान से अभी भी परेशान है और बदला लेने को उतावला हो रहा होगा. थोड़े समय के लिए हुए इस संघर्ष ने उसे अपने घरेलू मसलों, खासकर आर्थिक बदहाली से ध्यान भटकाने का मौका दिया और इसने अपने पुराने दुश्मन के खिलाफ मुल्क को उम्मीद के मुताबिक एकजुट किया, बेशक थोड़े ही समय लिए. आईएमएफ से मिली मदद और जनरल आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल नियुक्त किए जाने से उत्साहित पाकिस्तान के सियासी-फौजी नेतृत्व को सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की उम्मीद जगी है. चूंकि, उसकी ओर से एक और दुस्साहस किए जाने की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता इसलिए हमें और अधिक बहुआयामी और दुस्साहसी खतरे का सामना करने की तैयारी कर लेनी चाहिए.

अगले हमले की तैयारी

किसी भी किले का पहला मकसद खुद को और इसमें रहने वालों को सुरक्षा प्रदान करना होता है. भारत ने अपनी संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता की रक्षा करने की अपनी क्षमता का जोरदार प्रदर्शन कर दिया है. हमारा जो विशाल भौगोलिक आकार है और हमारी जो विविधता है उसके मद्देनज़र अपने सभी नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना काफी बड़ा काम है. इतिहास बताता है कि आतंकवादी हमले केवल सीमावर्ती सूबों या केवल सैन्य ठिकानों पर ही नहीं होते. इनके कारण समस्या और विकट हो जाती है.

समाधान मजबूत खुफिया तंत्र है, जिसकी जड़ें वफादार स्थानीय आबादी में धंसी हों और उसे सरकार की सभी शाखाओं से सूचनाएं मिल रही हों. पहलगाम हमले जैसा कांड बिना लाल झंडी दिखाए नहीं हो सकता था. इन संकेतों को नहीं पकड़ा गया, या पकड़ा गया तो उन्हें संबंधित अधिकारियों तक नहीं पहुंचाया गया. यह चिंता की बात है. ज़मीन से गहरा जुड़ाव और लोगों की नब्ज़ पर हाथ ही आतंकवाद या बगावत विरोधी रणनीति का मुख्य आधार होना चाहिए.

ऑपरेशन सिंदूर ने ऑपरेशन संबंधी हमारी क्षमता में जो कमियां उजागर कीं उन्हें दूर करने की ज़रूरत है. हालांकि, हमारे देसी वेपन सिस्टम्स ने प्रशंसनीय काम किए, लेकिन रक्षा संबंधी जो खरीद लंबे समय से अटकी हुई हैं उन्हें तेज़ी से आगे बढ़ाने की ज़रूरत है, भले ही इसके लिए सीमित स्तर पर आयात क्यों न करने पड़ें. अगला हमला होने वाला है, हमें इसके लिए तैयार रहना होगा. रक्षा संबंधी इस तैयारी की कीमत पर ‘आत्मनिर्भरता’ को तरजीह नहीं देनी चाहिए. केंद्र सरकार ने तीनों सेनाओं को जो ‘इमरजेंसी पावर’ दिए हैं वह एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन इसे औपचारिक और सुगठित रूप देने की ज़रूरत है. ‘इमरजेंसी पावर’ पहले भी कई बार दिए गए हैं — 2017 के डोकलाम टकराव, 2020-24 के बीच गलवान संघर्ष के दौरान अलग-अलग समय के लिए और अब पहलगाम कांड के बाद. इस तरह यह एक नई सामान्य बात बन गई है, लेकिन इससे ऐसा लगता है कि हम हमेशा तैयार नहीं रहते, जब भी संकट पैदा होता है तब पूंजी और राजस्व के खाते से हमें आपात खरीद करनी पड़ती है. ‘इमरजेंसी पावर’ के प्रावधान को स्थायी बनाने की ज़रूरत है क्योंकि इससे खरीद में तेज़ी आती है. इसे कोई नया नाम दिया जा सकता है ताकि जब भी इसे लागू किया जाए तब ऐसा न लगे कि संकट हावी हो गया है.

वैसे, किले का उद्देश्य केवल सुरक्षा नहीं होता. इतिहास बताता है कि उनका इस्तेमाल हमला करने के लिए भी किया जाता रहा है. सिंदूर दुर्ग इसी काम के लिए हो. यह ऐसा राजनीतिक और सैन्य आधार बने जिसका इस्तेमाल हमारे दुश्मनों और हमारे हितों को चोट पहुंचाने वालों को जवाब देने के लिए किया जा सके.


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आगे का लंबा रास्ता

सभी दलों की वरिष्ठ राजनीतिक हस्तियों के प्रतिनिधिमंडल तमाम देशों में भेज कर भारत ने दिखा दिया है कि वह एक राष्ट्र के रूप में एकजुट है. इन प्रतिनिधिमंडलों में सेना की ऑपरेशन शाखा के भी प्रतिनिधि शामिल किए जाते तो उनका वजन और बढ़ जाता. ये प्रतिनिधिमंडल न केवल हमारा नज़रिया स्पष्ट करेंगे बल्कि पाकिस्तान को सबसे अलग-थलग करने की मांग के पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय समर्थन भी जुटाएंगे. पाकिस्तान को आईएमएफ से 2.3 अरब डॉलर की मदद देने के खिलाफ किसी देश ने मतदान नहीं किया; पहलगाम हत्याकांड पर इज़रायल और ताइवान को छोड़ किसी देश ने भारत को बिना शर्त समर्थन नहीं दिया — ये बातें बताती हैं कि जनमत को जीतने के लिए अभी लंबी जंग करने पड़ेगी.

बहरहाल, फिलहाल जो विराम मिला है वह सेनाओं को आगे संभावित आक्रमणों का नए सिद्धांत के तहत जवाब देने की रणनीति और योजना तैयार करने का समय और गुंजाइश उपलब्ध करता है. नई नीति से बिलकुल स्पष्ट है कि ताकत का जवाब ताकत से दिया जाएगा, चाहे स्थान कोई भी हो और हमलावर किसी देश का नागरिक हो या नागरिकता विहीन हो.

किला देश के विकास के लिए ज़रूरी अमन-चैन और स्थिरता भी उपलब्ध कराता है. तमाम देश ताकत का सम्मान करते हैं — खासकर आर्थिक ताकत का, जो हमारे हितों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है. हमारा आर्थिक आधार मजबूत होगा तभी हम अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं. दोनों साथ-साथ चलती हैं. हम जल्दी-से-जल्दी, 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का प्रयास करें. लंबा चलने वाला संघर्ष 2047 तक ‘विकसित राष्ट्र’ बनने के हमारे प्रयासों को झटका देगा. आर्थिक रूप से मजबूत होने पर ही भारत अपना वैसा प्रभाव डाल सकेगा, जैसा आज अमेरिका और चीन डाल रहे हैं. इन देशों की आर्थिक पकड़ ही उन्हें दूसरे देशों को पाकिस्तान के प्रति नरम रुख रखने का दबाव बनाती है. ‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’ लेकिन इस बंदूक को पैसे की ताकत चाहिए.

सिंदूर दुर्ग उस नए, मुक्त भारत का प्रतीक होगा जिसने औपनिवेशिकता के जंजीरों को तोड़ डाला है और जो देशों के समुदाय में एक शक्ति के रूप में मान्य किए जाने के लिए दस्तक दे रहा है. नया भारत उस कछुए के समान नहीं है जो खतरा भांपते ही अपनी खोल में सिमट जाता है, बल्कि वह उन मधुमक्खियों के समान है जो अपने छत्ते के पास आने वाले किसी खतरे पर टूट पड़ती हैं. लड़ाई अब दुश्मन के खेमे में उसके राजनीतिक और आर्थिक मैदान में और ज़रूरत पड़ी तो जंग के मैदान में भी जाकर लड़ी जाएगी.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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