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Thursday, 21 November, 2024
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गाय भारतीय राजनीति में हमेशा कामधेनु रही पर BJP राज में आस्था और विज्ञान का ये घालमेल घातक

2014 में जब से मोदी प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठे हैं तब से गाय भी खबरों में शायद उतनी ही रही है जितने खुद वे रहे हैं

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भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने 2019 में राष्ट्रीय कामधेनु आयोग (आरकेए) का गठन करने का जो फैसला किया उसके बारे में अगर आप यह सोच रहे हों कि गाय के लिए इस धुर दक्षिणपंथी पार्टी का जुनून कुछ ज्यादा ही गहरा हो गया है, तो 2021 में आपको यकीन हो जाएगा कि यह जुनून सचमुच सच्चा है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने अब ‘गऊ विज्ञान’ पर राष्ट्रीय परीक्षा आयोजित करने का फैसला किया है.

आरकेए के अध्यक्ष वल्लभभाई कथीरिया ने यह परीक्षा आयोजित कराने की वजह का खुलासा करते हुए कहा है कि ‘गाय में विज्ञान भरा हुआ है.’ यह ज्ञान विज्ञान से भरे उन महाशय की ओर से आया है, जो गाय के गोबर से बने ‘चिप’ जारी कर चुके हैं जो मोबाइल फोन से होने वाले विकिरण को कम कर सकती है. कथीरिया का यह भी दावा है कि गाय के गोबर, मूत्र, दूध, घी और दही से बनाए गए पंचगव्य से कोरोना के 800 रोगियों को ठीक किया जा चुका है.

भारत की राजनीति में गाय

गाय ने भारतीय राजनीति के सामूहिक सोच को लंबे अरसे से प्रभावित कर रखा है. भारत चाहे कोविड-19 की महामारी से जूझ रहा हो या आर्थिक सुस्ती से या सीमा पर तनाव के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट का सामना कर रहा हो, गाय का राजनीतिक महत्व पिछले साल के सार्वजनिक विमर्श में कभी फीका नहीं पड़ा. वास्तव में गाय हमेशा भारत के सार्वजनिक सोच में छायी रही, चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी या नेता क्यों न रहा है— मोरारजी देसाई से लेकर दिग्विजय सिंह और मोदी के महिमामय मंत्रिमंडल तक.

ब्रिटिशकालीन भारत में 1857 का विद्रोह इस अफवाह से भड़का था कि भारतीय सिपाहियों को गाय की चर्बी वाले कारतूस दिए जा रहे थे जिन्हें दांतों से खोलना पड़ता था (यह भी अफवाह थी कि कारतूस में सुअर की चर्बी डाली जाती थी जिससे मुसलमान सिपाही भड़के). अगर अमेरिका में पिछले दिनों कैपिटोल हिल की घेराबंदी खतरे का संकेत है, तो भारत तो 1966 में ही अपनी राजधानी में रायसीना हिल की घेराबंदी देख चुका है, जब हिंदू साधुओं की भीड़ गोहत्या को अपराध घोषित कराने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर दबाव डालने की खातिर संसद भवन पर चढ़ आई थी. आश्चर्य नहीं कि इस आंदोलन का नेतृत्व आरएसएस और भारतीय जनसंघ कर रहा था, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी में तब्दील हो गया.

मोदी का भारत

भाजपा आज भी गाय के लिए जुनून से भरी है. यही वजह है कि 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठे उसके बाद से गाय भी खबरों में शायद उतनी ही बनी रही है जितने खुद मोदी बने रहे हैं. दरअसल, गाय के लिए जुनून लगभग भोलेपन से भरा है, क्योंकि इसका आग्रह यह है कि गाय को देखने वाला हर शख्स उसे विशिष्ट, देवी, और नंगी आंखों से दिख रहे एक जीव से कहीं ज्यादा उत्कृष्ट प्राणी माने.

लेकिन अब नयी बात यह हुई है कि इस जुनून में आस्था और विज्ञान का घालमेल भी जुड़ गया है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान’ का नारा भले दिया था लेकिन जब भाजपाई राजनीति की बात आती है तब विज्ञान केवल ‘इसरो’ में रॉकेट के उद्घाटन तक सीमित रह जाता है.

लेकिन राजनीतिक रूप से गाय का मामला खून-खराबा से भरा रहा है. चाहे हत्या गाय की हो रही हो या गाय के लिए लोगों की हो रही हो, गाय के नाम पर राजनीति उग्र और हिंसक रूप लेती रही है और समस्या यह है कि भारतीयों का बड़ा तबका, खासकर दक्षिण, पूरब और उत्तर-पूर्व भारत के गैर-हिंदू ही नहीं बल्कि हिंदू भी भोजन में गोमांस लेते हैं. गोवा, पश्चिम बंगाल, केरल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा में गोमांस कानूनन और मुक्त रूप से उपलब्ध है. इनमें से कई राज्यों में भाजपा की सरकार है.

फिर भी मोदी सरकार ने गाय के लिए अलग मंत्रालय बनाने और ‘गऊ विज्ञान’ पर राष्ट्रीय परीक्षा आयोजित करने से परहेज नहीं किया, ताकि लोगों में गाय का महत्व जानने की उत्सुकता पैदा हो. इस परीक्षा का सिलेबस पढ़कर साफ हो जाता है कि गाय को एक पशु नहीं बल्कि एक दैवीय प्राणी के रूप में पढ़ा जा रहा है. यही वजह है कि आरकेए ने अध्ययन सामग्री के रूप में 54 पेज की पुस्तिका प्रस्तुत की है, जिसमें गाय को हर जगह ‘गऊ माता’ कहा गया. विज्ञान की खातिर बस यही किया गया है. वास्तव में, वेदों से उठाए गए श्लोकों से भरी यह पुस्तिका धर्मशास्त्रीय किस्म की ज्यादा है, जिसमें यह दिखाया गया है कि हिंदू धर्म ग्रन्थों में गाय के क्या-क्या महत्व और लाभ बताए गए हैं. वैसे, इसमें विज्ञान का एक उल्लेखनीय तत्व भी है, जिसमें जर्सी गायों के ए-1 ग्रेड के दूध और हमारी देसी गायों के ए-2 ग्रेड के दूध की तुलना की गई है, जिसे कई विज्ञान पत्रिकाओं ने बेहतर किस्म का बताया गया है. लेकिन आरकेए की पुस्तिका में जर्सी गाय को देसी गऊ माता के मुक़ाबले जिस तरह ‘सुस्त’, ‘अस्वास्थ्यकर’, और ‘भावनाहीन’ बताया गया है वह नफरत से उपजा लगता है. पीछे मुड़कर जब आप याद करेंगे कि नरेंद्र मोदी ने किस तरह सोनिया गांधी को ‘जर्सी गाय’ कहा था तब आपको इस तरह के सोच का अंदाजा लग जाएगा.

लेकिन यह पुस्तिका तब भ्रम फैलाने की कोशिश भी करती है, जब वह बताती है कि गोहत्या करने से भूकंप आते हैं. और विडंबना यह है कि वह इसकी वैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत करने की कोशिश करती है. इस पुस्तिका के मुताबिक, जाने-माने भौतिकशास्त्री डॉ. मदन मोहन बजाज का मानना है कि इस तरह मारे गए पशुओं (गाय समेत) के दर्द की तरंगों से भौतिक तरंगें, या ‘आइंस्टीन पेन वेव्स’ (ईपीडब्लू) जैसी ध्वनि विषमदैशिकता पैदा होती है जिसके कारण अंततः पृथ्वी की चट्टानों में दबाव बनता है. लेकिन यह एक परिकल्पना ही है, जिसे अभी मान्यता नहीं मिली है. वास्तव में, भाजपा नेता मेनका गांधी ने भी इस पर एक लेख लिखकर दावा किया था कि इस सिद्धान्त पर ‘भूगर्भशास्त्री तो हंसेंगे’ लेकिन यह महत्वपूर्ण सिद्धान्त है. तब तो, धर्म या गाय के नाम पर मारे जाने वाले मनुष्य भी इस ‘ध्वनि विषमदैशिकता’ में इजाफा करते होंगे!

मनुष्य की विवेकशून्यता की कोई सीमा नहीं है. इस मूढ़ता को मजबूत करने के लिए एक निरीह पशु का इस्तेमाल एक अपराध है. लेकिन गाय भारतीय राजनीति में इसलिए प्रमुखता पाती है क्योंकि भारतीय भावना को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता. और, आस्था के नाम पर जो दृष्टिहीनता पैदा होती है उसका इलाज कोई विज्ञान नहीं कर सकता. दुनिया भारत की ओर देख रही है कि 21वीं सदी में वह आर्थिक चमत्कार कर सकता है, जलवायु परिवर्तन के मसले का समाधान प्रस्तुत कर सकता है, और भू-राजनीतिक संतुलन कायम करने जैसे बड़े काम कर सकता है. बेहतर यही होगा कि गाय की खातिर हम ऐसे ऊंचे लक्ष्यों से अपनी नज़र न हटाएं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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