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Wednesday, 20 November, 2024
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इमरान खान के ‘नया पाकिस्तान’ में हुकूमत को सच बताया तो आप घर नहीं लौट पाएंगे

पिछले करीब 28 साल में पाकिस्तान में 61 पत्रकारों को अपना फर्ज़ निभाने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है, जिनमें ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ के पत्रकार डेनियल पर्ल के हत्याकांड को तो आप नहीं ही भूले होंगे.

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पाकिस्तान में फौज और सरकार, दोनों के नुक्स अपनी कलम की नोंक से उजागर करने वाले पत्रकार मतीउल्लाह जान को अगवा और 12 घंटे में ही छोड़े जाने की वारदात ने एक बार फिर यही साबित किया है कि पाकिस्तान की हुकूमत नामालूम लोगों के हाथों में है. इन नामालूम लोगों को मालूम है कि मुल्क में माफी की जो आम तहज़ीब है उसमें उन्हें कुछ भी कर गुजर जाने की छूट हासिल है.

ताकतवर पाकिस्तानी हुकूमत की तौहीन करने वाले शख्स को अगवा करने के लिए क्या चाहिए? बस तीन कारें, एक एंबुलेंस और चंद जोशीले नामालूम अफराद यानी शख्स. लेकिन जब वारदात सीसीटीवी कैमरे में कैद हो जाए तब इनकार करने की कोई गुंजाइश नहीं बच पाती. हुक्मरान के नुक्स निकालने वाले मतीउल्लाह जान के साथ यही हुआ. अपना फर्ज़ वे इतनी अच्छी तरह अदा कर रहे थे कि 2018 में उन्हें ‘वक़्त न्यूज़’ से हटना पड़ा. उनके विचारों और खबरों ने उन्हें इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन्स के डाइरेक्टर जनरल की उन पत्रकारों की लिस्ट में शामिल करवा दिया था जिन्हें वह सोशल मीडिया पर हुकूमत-उदूली की हरकतें करने वाला मानता है. 2017 में दो लोगों ने मतीउल्लाह जान पर इंटों से हमला किया था जब वे अपने बच्चों के साथ कार में जा रहे थे. उनकी कार का शीशा तोड़ दिया गया था.

सवाल उठाते हैं तो संभलकर रहें…

वरिष्ठ पत्रकार मतीउल्लाह जान के अपहरण पर सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को दो हफ्ते में रिपोर्ट देने को कहा है, लेकिन इसी कोर्ट में एक अलग मामले में उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा भी चल रहा है. पाकिस्तान बार काउंसिल के सदस्य लतीफ़ खोसा ने मतीउल्लाह जान को दिनदहाड़े अगवा किए जाने पर चिंता जताते हुए यह सवाल उठाया कि ‘क्या यह तानाशाही नहीं है?’ लेकिन सवाल एक यही नहीं है.

मतीउल्लाह जान के अपहरण से जाहिर होता है कि जब बात समस्या से सीधे निबटने की हो, तो इमरान खान की सरकार कितनी कमजोर साबित होती रही है. जबरन गुमशुदगी के मामलों पर प्रधानमंत्री इमरान खान कह चुके हैं कि किसी एजेंसी को बेकसूर नागरिकों को परेशान करते हुए पाया गया तो फिर या तो वे रहेंगे या वह एजेंसी रहेगी. इमरान ने ज़ोर देकर वादा किया था कि वे इस्तीफा दे देंगे. एक समय था जब वे मानवाधिकार का उल्लंघन करने वाले उसी सरकारी तंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाते थे, जो आज उनकी पहरेदारी करता है. वे कहा करते थे, ‘यह सभी पाकिस्तानियों के लिए शर्म की बात है कि हमारे परिवारों को यह पता चलता है कि उनके अज़ीजों की गुमशुदगी में सरकारी तंत्र का हाथ है.’

यहां लोगों का ‘गुमशुदा’ होना कोई नई बात नहीं है. और यह भी कोई नई बात नहीं है कि खरे पत्रकारों को सरकारी एजेंसियां परेशान करती हैं. नई बात यह है कि मीडिया की आज़ादी को खत्म करने के लिए उसके गले पर शिकंजा और ज्यादा कसता जा रहा है और यह इमरान खान की गैरफौजी-फौजी खिचड़ी हुकूमत में हो रहा है, जो ‘नया पाकिस्तान’ बनाने का वादा करती रही है.


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..या फिर जबरन गुमशुदा होने को तैयार रहें

पाकिस्तान में 1992 से अब तक उन 61 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है, जो अपना फर्ज़ अदा कर रहे थे. इनमें ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ के डेनियल पर्ल, ‘एशिया टाइम्स’ के इस्लामाबाद ब्यूरो चीफ सैयद सलीम शहजाद और ‘जिओ न्यूज़’ के रिपोर्टर वली बाबर शामिल हैं. अपना फर्ज़ निभा रहे ऐसे लोगों को धमकाए जाने और अपने ऊपर हमला किए जाने का खतरा हमेशा बना हुआ है. ‘जिओ न्यूज़’ के होस्ट हामिद मीर 2014 में हुए एक जानलेवा हमले में किसी तरह बच चुके हैं. 2010 में सरकारी एजेंसियों ने ‘द न्यूज़’ के रिपोर्टर उमर चीमा को अगवा करवा के उन्हें काफी प्रताड़ित किया. लाहौर की न्यूज़ रिपोर्टर ज़ीनत शहज़ादी को 2015 में रहस्यमय हालात में अगवा कर लिया गया था, वे भारतीय नागरिक हामिद अंसारी के मामले की रिपोर्टिंग कर रही थीं. स्तंभकार गुल बुखारी को 2018 में अगवा किया गया और फिर छोड़ दिया गया. अगवा किए गए कुछ लोग आधी रात में वापस लौटे, तो कुछ हमेशा के लिए गुम कर दिए गए. ऐसा लगता है कि एक नये ‘सोशल कंट्रैक्ट’ के तहत आपको कीमत चुकानी ही है.

पाकिस्तानी हुकूमत जाने-अनजाने नागरिकों को खामोश करने के लिए उन्हें जबरन लापता करने का रास्ता लंबे समय से अपनाती रही है. यह दहशत फैलाने की तकनीक है और इसकी छूट किसी को भी हासिल है. बलूचिस्तान और संघीय सरकार के तहत आने वाले ट्राइबल इलाकों में हजारों ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो ‘गुमनाम’ अपहरणकर्ताओं को सज़ा दिलवाने में तमाम पाकिस्तानी हुकूमतों की नाकामी के शिकार हुए हैं. इंतिहा तो यह है कि 2017 में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमिटी के सामने यह दलील पेश की थी कि लोग अपनी मर्जी से लापता हैं. यानी वे खुद को ही अगवा करते है और खुद ही रिहा होते हैं.

मतीउल्लाह जान के अपहरण ने जबरन गुमशुदगी और पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमलों की पुरानी वारदात की याद दिला दी है. पाकिस्तान के सबसे बड़े मीडिया समूह जिओ ग्रुप के एडिटर-इन-चीफ शकीलुर रहमान 132 दिनों से कैद में है और उनके ऊपर कोई आरोपपत्र नहीं दायर किया गया है. जिओ ग्रुप का आरोप है कि पाकिस्तान की पीटीआइ सरकार ने रहमान और जिओ ग्रुप से व्यक्तिगत बदला लेने के लिए उनकी गिरफ्तारी की है.


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24-न्यूज़ एचडी के सीईओ मोहसीन नक़वी ने इस महीने के शुरू में ऐलान किया कि वे चैनल को बंद करने जा रहे हैं क्योंकि ‘फेडरल गवर्मेंट’ चैनल का लाइसेंस रद्द करने की धमकी देकर ‘ब्लैकमेल कर रही है.’ इसके बाद लाहौर हाइकोर्ट ने चैनल का लाइसेंस सस्पेंड करने के पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी ऑथरिटी के आदेश पर रोक लगा दी और चैनल को जारी रखने की इजाजत दी.

इमरान खान के फैजल वावडा सरीखे मंत्री ट्वीटर पर पत्रकारों को फटकारने से भी परहेज नहीं करते. सोशल मीडिया पर ऐसे ही एक गालीगलौज में वावडा ने ‘द न्यूज़’ के उमर चीमा को यहां तक कहा कि वे यह न भूलें कि किस तरह उन्हें अगवा किया गया था और रिहा करने के बाद किस तरह उनके बाल मूंड दिए गए थे. वावडा ने कहा है कि इमरान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी में जो भी बेवफाई करेगा उसे फांसी दे देनी चाहिए और प्रधानमंत्री के दफ्तर की ओर से इसकी कोई लानत-मलामत नहीं की जाती. आखिर, इमरान खान का तो यह मानना है कि कोई कुछ भी कहे, उनके ‘नया पाकिस्तान’ में पाकिस्तानी मीडिया ब्रिटिश मीडिया के मुक़ाबले ज्यादा आज़ाद है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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