अभी-अभी जिन दो चुनावों के नतीजे आए हैं उनसे बनी सुर्खी यही कहती है कि यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए यह जबरदस्त जश्न मनाने की बात है. एक जीत में उसके लिए राहत है, तो एक हार में उसकी जीत छिपी है.
पहली राहत की बात करें, तो जून में झटका खाने के बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अपने गढ़ों में उसकी यह पहली परीक्षा थी. इसके तमाम दुश्मन और दोस्त, दोनों उम्मीद कर रहे थे कि पार्टी के लिए लगातार तीसरी बार सत्ता में आना असंभव होगा.
भाजपा ने चुनाव प्रचार के प्रमुख चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को न पेश करके खुद को रक्षात्मक मुद्रा में ढाल लिया था. हरियाणा की हार उसे उस कगार तक पहुंचा देती जहां उसने खुद को पिछले आम चुनाव के बाद खड़ा पाया था, लेकिन हरियाणा में जोरदार जीत ने सारे हालात बदल दिए. जून में वह जिस गर्त में थी, यह जीत उससे उबरने के समान है.
इसने पार्टी के नेतृत्व और काडर में नई ऊर्जा भर दी है और नकारात्मकता को धुंधला कर दिया है. अगर आप इस भाजपा को जानते-पहचानते हैं, तो आप पाएंगे कि अब वह झारखंड और महाराष्ट्र में ऐसे आगे बढ़ेगी मानो जून 2024 में उसके साथ कुछ हुआ ही नहीं था.
यहां हम भाजपा की इस उल्लेखनीय जीत से जुड़े तीन प्रमुख सबकों को गिनाएंगे :
- नेता की लोकप्रियता और उसका करिश्मा बेशक उसकी पार्टी को भारी बढ़त दिलाता है, लेकिन चुनाव प्रचार की उसकी कला, उसके विज्ञान और उसकी इंजीनियरिंग को कभी कमतर मत आंकिएगा. हरियाणा में जीत भाजपा की महारत का पुरस्कार ही है. गौर कीजिए कि अधिकांश सीटों पर कितने निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे. उदाहरण के लिए पहलवान विनेश फोगाट के खिलाफ सात निर्दलीय उम्मीदवार खड़े थे और उनमें से अधिकतर जाट थे. फोगाट एक बार पिछड़ने के बाद जीत गईं, लेकिन बाकी कईं नहीं जीत पाए. इसके अलावा छोटे-छोटे गठबंधनों को देखिए. सीनियर चौटाला की पार्टी ‘आईएनएलडी’ ने मायावती के साथ; तो जूनियर चौटाला, दुष्यंत की पार्टी ‘जेजेपी’ ने उभरते दलित सितारे चंद्रशेखर आज़ाद के साथ गठजोड़ किया था. इन असामान्य जाट-दलित गठबंधनों ने इस कांटे की टक्कर में जो भी वोट हासिल किए वह केवल कांग्रेस के बूते पर. भाजपा ने लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में जो सबक सीखा उसे हरियाणा में आज़माया.
- जब एक दबंग और सबसे बड़ी आबादी वाली जाति मजबूती से आपके खिलाफ खड़ी हो तब आप चुनाव कैसे जीतेंगे? सबसे पहले समूह को अपने प्रतिद्वंद्वियों में उलझा दीजिए और बाकी को अपने पक्ष में मजबूत कर लीजिए. भाजपा ने अपनी कमजोर कड़ियों की अनदेखी की और अपनी मजबूत कड़ियों — ऊंची जातियों, पंजाबियों और अब ओबीसी — पर पूरी ताकत लगाई. इसलिए, पंजाबी मनोहर लाल खट्टर को हटाकर ओबीसी नायब सिंह सैनी को गद्दी सौंपना निर्णायक रहा. दबंग समूहों से बाकी सब डरते हैं और उन्हें नापसंद करते हैं, यह एक अकाट्य बुद्धिमानी है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जाट हालांकि अपने लिए ओबीसी के दर्जे की अक्सर मांग करते रहते हैं, लेकिन वह यहां हर तरह से सबसे ऊंची जाति हैं. ‘मनुस्मृति’ को भूल जाइए, जाट समुदाय की हैसियत वैसी ही है जैसी बिहार में 22 फीसदी वाली ब्राह्मण जाति की है. बाकी जातियां उससे नाराज़ रहती हैं. हरियाणा में इस समीकरण को दुरुस्त करके भाजपा ने अपनी कमजोरी को ताकत में बदल लिया.
- तीसरी उपलब्धि है आरएसएस की वापसी. हरियाणा में घूमते हुए मैंने जितने भाजपा उम्मीदवारों से बात की उन सबने काफी उत्साह के साथ यही बताया कि “संघ” चुनाव अभियान में फिर से लौट आया है. लोकसभा चुनाव में उसकी उदासीनता पार्टी को काफी महंगी पड़ी थी और अब वह इस रक्तस्राव को रोकेगी. इस बदलाव को सान्या ढींगरा ने मतदान से दो दिन पहले 3 अक्टूबर को ‘दिप्रिंट’ में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में विस्तार से रेखांकित किया है. भाजपा और आरएसएस के बीच भूल-चूक लेनी-देनी हो गई, तो लोकसभा चुनाव को भूलकर राजनीति नये सिरे से शुरू की जा सकती है.
और कांग्रेस के लिए हमारे हिसाब से यह तीन सबक हैं :
- कांग्रेस के चुनाव अभियान के त्रिशूल के तीन शूल थे — किसान, जवान और पहलवान. किसान एमएसपी के मुद्दे को लेकर गुस्से में थे; सैनिक और पूर्व सैनिक ‘अग्निपथ’ योजना को लेकर, तो पहलवान बृजभूषण शरण सिंह से जुड़े प्रकरण और पेरिस ओलंपिक में विनेश फोगाट के साथ हुए दुखद प्रकरण को लेकर काफी नाराज़ थे. यहां तक तो गनीमत थी, लेकिन कांग्रेस यह भूल गई कि इन तीनों मुद्दों के तार हरियाणा में एक ही जाति से जुड़ते हैं और वो जाति है — जाट. कांग्रेस का अभियान जाट केंद्रित हो गया और इसने बाकी जातियों को भाजपा के पक्ष में मजबूती से एकजुट कर दिया. पार्टी का प्रमुख दलित चेहरा, कुमारी सेलजा मुखर रूप से उदासीन थीं; और चुनाव प्रचार पर रोक लगने से दो घंटे पहले ‘सीरियल दलबदलू’ अशोक तंवर की वापसी ने सबको उलझन में डाल दिया. समय से काफी पहले जीत का ऐलान खतरनाक होता है.
- कांग्रेस मान बैठी है कि गांवों पर तो उसका ही प्रभाव है, जबकि भाजपा तो शहरों की पार्टी है, लेकिन दोनों मामलों में यह गलत धारणा है. सबसे पहली बात यह है कि दिल्ली से सटे हुए हरियाणा जैसे राज्य को शहरों और गांवों के खांचे में उस तरह नहीं बांटा जा सकता जिस तरह किसी ‘बीमारू’ राज्य को बांटा जा सकता है. हरियाणा तो गुजरात से भी ज्यादा शहरी राज्य है. 2014 में ही अपने कॉलम ‘दीवारों पर लिखी इबारतें’ में मैंने लिखा था कि हरियाणा के गांवों में हर घर की खिड़की से किस तरह एअर कंडीशनर लटके नज़र आते हैं और अब तो हम 2024 में जी रहे हैं. कांग्रेस जिन दो आधारों — ग्रामीण और कृषि आधारित समाज-व्यवस्था — को लेकर चल रही है वह अब हरियाणा की व्यापक तस्वीर में फिट नहीं बैठती. सभी हरियाणवियों को जाट मानने का जो पूर्वाग्रह है वह भी बेमानी हो चुका है. कांग्रेस ने ‘मुफ्त ये ले लो, मुफ्त वो ले लो’ वाली पेशकश को ही अपना आधार बनाकर एक और भारी भूल की. कोई ऐसा बड़ा वादा नहीं किया, जो हरियाणा के मानस में स्थापित मूल्यों को उछाल दे सके. भाजपा और कांग्रेस की पेशकशों में एकमात्र फर्क यह था कि कांग्रेस की झोली में जाट थे और भाजपा की झोली में नहीं थे.
- तीसरा सबक वह है जिसे कांग्रेस को पचाने में बहुत मुश्किल होगी. देश के बड़े हिस्से में लोग अंबानी-अडाणी विरोध के नाम पर वोट नहीं देने वाले हैं. भारत कोई जेएनयू नहीं है. ‘आकांक्षी मतदाता’ अब अगर एक पुराना मुहावरा हो चुका है, तो पूंजीवादी ज्यादती भी एक पुराना नारा बन गया है. देश के कई हिस्सों, खासकर हरियाणा में सफल उद्यमियों को ‘रोल मॉडल’ के रूप में देखा जाता है, न कि लालची ठग के रूप में. वह केवल निवेश करना और रोज़गार के अवसर बढ़ाना चाहते हैं.
हरियाणा की ज़मीन तमाम तरह की फसलों के लिए चाहे जितनी उपजाऊ हो, वह जेएनयू मार्का पुराने वामपंथ के बीजों को पूरी तरह से खारिज कर देती है. कांग्रेस ने हरियाणा में इस बीज को रोपने की कोशिश करके अपनी भारी राजनीतिक भूल का ही परिचय दिया. उसने तीन और गुरुग्राम बनाने, एक और ‘नॉलेज सिटी’, ‘एआई’ के लिए एक आईटी पार्क, सेमीकंडक्टर और मोबाइल फोन उत्पादन की फैक्टरी बनाने का वादा किया होता तो बेहतर स्थिति में होती. अंबानी-अडाणी की गरीबवादी निंदा ने लोगों को हैरानी में डाल दिया जबकि उनमें सिर्फ उम्मीदें जगाने की ज़रूरत थी.
अब दोनों पक्ष इन सभी के साथ झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव मैदान में उतरेंगे, लेकिन भाजपा को नहीं, कांग्रेस को एक पराजित पक्ष के रूप में नई शुरुआत करनी पड़ेगी और, जम्मू-कश्मीर में हार का क्या?
भाजपा हमेशा से जो सपना देखती रही है, उसे पूरा करने के लिए वह बेशक इस राज्य पर राज करना चाहती और वह भी एक हिंदू मुख्यमंत्री के ज़रिए. यह सपना पूरा न हो सका, लेकिन इसकी जगह उसने क्या हासिल किया इस पर गौर कीजिए. सबसे पहले तो कई पूर्व अलगाववादियों — अपनी पार्टी के लिए ‘फरलो’ पर रिहा हुए इंजीनियर रशीद — समेत सभी राजनीतिक दलों ने 5 अगस्त 2019 के बाद बनी व्यवस्था के तहत चुनाव लड़ा. इतने भारी बदलाव पर 63.88 प्रतिशत मतदान के ज़रिए मुहर लगी, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी? दूसरा, चुनाव शांतिपूर्ण रहा, जिसने जनता के बदले हुए मूड को उजागर किया और राज्य की ताकत बढ़ाई. तीसरा, कोई भी यह नहीं कहेगा कि यह चुनाव निष्पक्ष नहीं था. इसका सबसे मजबूत प्रमाण तो यही है कि भाजपा की करारी हार हुई. इसलिए, कहा जा सकता है कि इस हार में भी भाजपा की जीत ही है.
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