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Thursday, 21 November, 2024
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केंद्र सरकार या तो जाति जनगणना कराए या फिर संविधान संशोधन करके राज्यों को करने दे

नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में 2018 में ये फैसला हुआ कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती की जाएगी. राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा भी कर दी थी. लेकिन 2019 का चुनाव निपटने के बाद सरकार ने अपना रुख बदल लिया.

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भारत में जाति जनगणना को लेकर बहस अब चार दशक से भी पुरानी हो चुकी है. मंडल कमीशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि आंकड़ों के बिना नीति बनाना या रिपोर्ट लिखना मुश्किल काम है, इसलिए जाति जनगणना कराई जाए. तब से विभिन्न राजनीतिक दल, संगठन और कानून के जानकार ये मांग कर रहे हैं कि जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट विभिन्न मौकों पर ये कह चुके हैं कि सरकार जाति संबंधी आंकड़े दे.(1 2 3)

लेकिन वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारें जाति जनगणना के सवाल पर टालमटोल करती रही है. मनमोहन सिंह सरकार 2010 में जाति जनगणना के लिए तैयार हो गई थी, पर 2011 की जनगणना हुई तो जाति का सवाल नहीं पूछा गया. उसके बदले बीपीएल गणना में जाति को जोड़ने का दिखावा किया गया, जिसके, यानी एसईसीसी-2011 के, जाति संबंधी आंकड़े कभी नहीं आए.

इसी तरह नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में 2018 में ये फैसला हुआ कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती की जाएगी. राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा भी कर दी थी. लेकिन 2019 का चुनाव निपटने के बाद सरकार ने अपना रुख बदल लिया और जाति जनगणना कराने से इनकार कर दिया. साथ ही मोदी सरकार ने ये भी स्पष्ट कर दिया है कि 2011 में एसईसीसी के तहत जातियों के जो आंकड़े जुटाए गए थे, वे दोषपूर्ण हैं और उन्हें जारी नहीं किया जाएगा.

इस कारण ये हुआ है कि जब भी अदालतें किसी राज्य सरकार से जाति के आंकड़े मांगती है, राज्य सरकारों के पास कोई आंकड़ा नहीं होता. इसे देखते हुए कुछ राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर जाति के आंकड़े जुटाने का उद्यम शुरू किया, ताकि कोर्ट को आंकड़े दिए जा सकें और सामाजिक न्याय की नीतियों को जारी रखा जा सके.

अब जाति जनगणना का मामला फिर से सतह पर है, क्योंकि जाति के आंकड़े जुटाने की बिहार सरकार की कोशिशों पर पटना हाई कोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी है. हाई कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जाति सर्वे/गणना को पहली नजर में असंवैधानिक माना है. कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा है कि राज्य सरकार सर्वे के नाम पर जो कर रही है, वह दरअसल जनगणना ही है और ये संसद के अधिकारों में दखलंदाजी है. कोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने आंकड़ा संकलन का काम रोक दिया है. कोर्ट ने साथ ही ये आदेश भी दिया है कि जो आंकड़े अब तक जुटाए गए हैं, वे बाहर न आने पाएं. गौरतलब है कि बिहार में जाति गणना इसी साल जनवरी से शुरू हुई थी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तब कहा था कि विकास कार्यों का लाभ तमाम लोगों तक पहुंचाने के लिए ये आंकड़े जुटाए जा रहे हैं. इस कार्य में बिहार की पक्ष और विपक्ष की सभी पार्टियां साथ हैं.


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पटना हाई कोर्ट के आदेश का अन्य राज्यों पर असर

पटना हाई कोर्ट के इस आदेश का असर महाराष्ट्रछत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में चल रही इसी तरह की जाति गणना पर पड़ेगा क्योंकि हाई कोर्ट के आदेश के आधार पर अब वहां कोई भी अदालत में जाकर इसे रोकने की मांग कर सकता है. ये राज्य विभिन्न अदालती आदेशों से आरक्षण को बचाने और सामाजिक न्याय के कदम उठाने के मकसद से जाति गणना करा रहे हैं.

इस तरह जाति गणना को लेकर एक नई स्थिति पैदा हो गई है, जिसमें केंद्र सरकार जाति गणना करा नहीं रही है, कोर्ट राज्य सरकारों से जाति के आंकड़े मांग रहा है और कोर्ट के आदेश के कारण राज्य सरकारें जाति गणना करा नहीं पाएंगी.

इस समस्या का समाधान करने में राज्य सरकारें या अदालतें अक्षम हैं. इसे हल करने की क्षमता और इसका दायित्व पूरी तरह से केंद्र सरकार के पास है. अब वह या तो जनगणना में जाति का सवाल शामिल कर ले या फिर संविधान संशोधन करके जनगणना करने का अधिकार राज्यों को भी दे दे. पटना हाई कोर्ट की ये व्याख्या बिल्कुल सही है कि जब तक जनगणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत केंद्र की लिस्ट में है, तब तक राज्य सरकारें जनगणना नहीं करा सकतीं.

दरअसल इसे लेकर पहले काफी भ्रम था कि राज्य सरकारें जनगणना करा सकती हैं. बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के. लक्ष्मण ने द प्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि केंद्र सरकार जाति गणना नहीं करा सकती, लेकिन राज्य सरकारें करा सकती हैं. उनका कहना था कि केंद्र सरकार बाद में राज्यों से वे आंकड़े ले लेगी. पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद के. लक्ष्मण का ये विचार पूरी तरह से खारिज हो चुका है. ये भी गौरतलब है कि कर्नाटक देश का पहला राज्य है, जिसने जाति गणना कराई है. 1931 के बाद ऐसा भारत में पहली बार हुआ. कोर्ट ने उस गिनती पर रोक तो नहीं लगाई, पर उसके आंकड़े कभी जारी नहीं हुए. राज्य जब कभी ऐसी कोशिश करेंगे, उसमें कोई न कोई उलझन आ ही जाएगी. इसकी वजह हमारी संवैधानिक व्यवस्था है, जो ये अधिकार राज्यों को देता ही नहीं है.

आदर्श स्थिति में जाति जनगणना का काम केंद्र सरकार को ही करना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे वह धर्म और भाषा के नाम पर सारे आंकड़े जुटाती है, वैसे ही वह जाति के आंकड़े भी जुटाए. इसकी चार बड़ी वजहें हैं.

  1. केंद्र अगर जाति गणना करता है, तो वर्तमान संवैधानिक स्थिति में फेरबदल की जरूरत नहीं पड़ेगी. जनगणना केंद्र के अधिकार क्षेत्र में है और जनगणना कानून, 1948 भी एक केंद्रीय अधिनियम है. इसके अलावा अगर ये मान भी लें कि जाति की गिनती नया विषय है और संविधान में इसका जिक्र नहीं है, तो अनुच्छेद 248 के तहत ऐसे विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र का ही है. ये संवैधानिक व्यवस्था रहने तक, राज्य सरकारों को इसमें पड़ना ही नहीं चाहिए.
  2. केंद्र के पास जनगणना कराने से संबंधित विभाग हैं, कर्मचारी हैं और अनुभव भी है. जनगणना विभाग सवा सौ साल से भी ज्यादा समय से ये काम कर रहा है और उसकी कार्यक्षमता प्रमाणित है. जनगणना अधिनियम के कारण वह इस कार्य में तमाम सरकारी कर्मचारियों, खासकर सरकारी शिक्षकों को शामिल करने की क्षमता रखता है. जबकि किसी भी और गिनती में ऐसा कर पाना संभव नहीं है.
  3. जनगणना अधिनियम के तहत केंद्र सरकार जब जनगणना कराती है, तो गलत जानकारी देना या जानकारी छुपाना गैर-कानूनी कृत्य बन जाता है. साथ ही, जनगणना करने वाला कर्मचारी भी सही जानकारी दर्ज करने के लिए बाध्य है, वरना वह सजा का भागी बन सकता है. ये संरक्षण राज्य सरकारों की जनगणना या सर्वे को हासिल नहीं है.
  4. भारत की जनगणना तमाम राज्यों की जनगणना का जोड़ या समुच्चय नहीं है. ये केंद्र के स्तर पर होने वाली कवायद है और इसका ये रूप कायम रहे तो बेहतर है.

इसके बावजूद, अगर केंद्र सरकार को लगता है कि जाति जनगणना उसे नहीं करनी चाहिए तो उसे देर किए बिना ये अधिकार राज्यों को भी दे देना चाहिए. इसके लिए जनगणना को अनुच्छेद सात की समवर्ती सूची में डालना होगा और संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. डीएमके सांसद और वकील पी. विल्सन प्रधानमंत्री से इसकी मांग भी कर चुके हैं.

कुल मिलाकर, केंद्र सरकार को चाहिए कि इस बारे में फैसले को और न टाले. भारत में जाति एक सच्चाई है, जिसे संविधान, कोर्ट, संसद और सरकार सभी स्वीकार करते हैं. इससे समाज तो चलता ही है, इसके आधार पर नीतियां भी बन रही हैं और सरकारी कार्य चल रहा है. समस्या ये है कि ये सब बिना तथ्य जाने, आंख बंद करके किया जा रहा है. जनगणना हर दस साल में होती है. 2021 की जनगणना में पहले से ही देरी हो चुकी है. कोविड के नाम पर इसे टाला गया. जबकि इसी दौर में अमेरिका समेत दुनिया में कई देशों में जनगणना हुई. इस बार अगर जाति की गणना नहीं हुई, तो जनगणना का अगला मौका 2031 में आएगा. तब तक देश 1931 की जनगणना के जाति के आंकड़ों से काम चलाएगा, क्योंकि जाति के आंकड़े आखिरी बार 1931 में ही जुटाए गए थे.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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