समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (और कांग्रेस) को इस बात का भरोसा है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार अपने कार्यकाल की गलतियों और लोगों की नाराज़गी के बोझ से गिर जाएगी और सत्ता उनके पास आ जाएगी. लेकिन एंटी-इनकंबेंसी यानी सत्तारूढ़ दल से नाराज़गी किसी सरकार को गिराने के लिए हमेशा काफी नहीं होती है. विपक्ष को ये भी बताना होता है कि वह सत्ता में आने के बाद क्या करने वाली है. उसे जनता के सपने दिखाने पड़ते हैं.
इस मामले में सपा, बसपा और कांग्रेस की रणनीति में एक बड़ी कमजोरी दिख रही है, जिसे मैं एक्स्ट्रा 2ab फैक्टर बोल रहा हूं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 कनाडा के टोरंटो शहर में एक भाषण में कहा था कि कनाडा और भारत अलग-अलग तरक्की करेंगे तो ये a² + b² वाली बात होगी लेकिन अगर वे साथ मिलकर चलेंगे तो मामला (a+b)² हो जाएगा. इससे a² +b²+2ab निकलेगा. यानी a² और b² तो रहेंगे ही अलग से 2ab भी आ जाएगा.
मैं गणित के इस फॉर्मूले को यूपी की राजनीति में लागू करके देखने की कोशिश करता हूं. a और b को चुनावों दलों के वो वादे मान लेते हैं, जो सभी दल कर रहे हैं- जैसे सुशासन, विकास, कानून और व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं का विकास आदि.
ये वादे और नारे बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस सभी दलों के भाषणों/प्रचार सामग्रियों/सोशल मीडिया पोस्ट/घोषणापत्र/पोस्टर आदि में हैं. सभी दल वादा कर रहे हैं कि वे यूपी को विकसित राज्य बनाएंगे, जहां नौकरियां ही नौकरियां होंगी और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई कमी नहीं होगी.
विकास क्यों नहीं बन पाता मुद्दा
समस्या ये है कि इन चारों दलों ने यूपी का शासन चलाया है और इनमें हर किसी को राज करने का एक से ज्यादा अवसर मिला है. सबने कम-ज्यादा काम किया है, लेकिन यूपी में विकास के नाम पर कोई जादू अब तक नहीं हुआ है. इसलिए जनता की नजर में इन दलों के वादों और नारों की विश्वसनीयता शायद ही हो. कम से कम ये वो बात नहीं है जिसके आधार पर कोई दल दूसरे दल से खुद को चमत्कारिक रूप से अलग बता पाए.
मिसाल के लिए, अगर बीएसपी कहती है कि उसने यूपी में एक्सप्रेस-वे बनाने की शुरुआत की और राज्य में पहला यमुना एक्सप्रेस-वे उसके शासन की देन है तो सपा कह रही है कि उससे लंबा गंगा एक्सप्रेस-वे सपा के शासन में बना है. वहीं बीजेपी कह रही है कि यूपी के मध्य और पूर्वी हिस्से को जोड़ने वाला पूर्वांचल एक्सप्रेसवे तो बीजेपी ने बनाया है. दावों की ऐसी ही होड़ शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरियों के सृजन के मामले में है. तीनों दल दावा कर रहे हैं कि उनके शासन में लाखों नौकरियां दी गयी.
ये ऐसे दावे हैं, जिनका विरोधी दल खंडन करते हैं और जनता के लिए यह समझ पाना आसान नहीं है कि किसने क्या किया. इस मामले में मीडिया की भी बड़ी भूमिका होती है. प्रचार के तरीके और सुर से भी निर्धारित होता है कि लोगों के दिमाग में कौन सा सच स्थापित हो रहा है.
यही a² और b² की सीमा है. ये सबके पास है. इसमें थोड़ा कम और थोड़ा ज्यादा का ही फर्क है और ये भी छवि निर्माण पर निर्भर है कि जनता किसे ज्यादा असरदार मानती है. फिर सवाल उठता है 2ab किसके पास है.
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बीजेपी के पास 2ab है!
2ab का मतलब है भावनात्मक मुद्दे. राजनीति दरअसल मानव जीवन और व्यवहार का ही विस्तार है. इसलिए अगर जीवन में भावनाओं का महत्व है, तो ये मानना कतई गलत होगा कि राजनीति में भावनाओं और भावनात्मक मुद्दों की जगह नहीं है. कोई भी नेता भावनात्मक मुद्दों की अनदेखी करके राजनीति में चल नहीं सकता है. इसलिए हम पाते हैं कि कई सरकारें और नेता आर्थिक और मानव विकास में खराब काम करते हुए भी लगातार चुनाव जीतते रहते हैं. मिसाल के तौर पर, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनल्ड ट्रंप अमेरिका को फिर से महान बनाने की बात कर रहे थे. वह दरअसल अमेरिका के उस तथाकथित ‘गौरवशाली दौर’ की वापसी की बात कर रहे थे, जब श्वेत लोगों का दबदबा था और अमेरिका सैन्य रूप से दुनिया भर में कार्रवाईयां कर रहा था. अमेरिका के श्वेत नागरिकों के बड़े हिस्से, जिसमें ज्यादातर निम्न मध्यवर्गीय और श्रमिक थे, उन्हें ट्रंप के नारे में भावनात्मक सुख मिला और उन्होंने ट्रंप को विजयी बनाया.
इसी तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी इसलिए चुनाव नहीं जीत रही है कि लोग भरोसा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी देश की अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन डॉलर कर देंगे. या उनकी सरकार हर साल 2 करोड़ नौकरियों का सृजन करेगी या मोदी स्विस और अन्य विदेशी बैंकों का पैसा भारत लाकर उसे भारत के विकास में लगा देंगे या हर घर में पीने का पानी उपलब्ध करा देंगे. नरेंद्र मोदी का वोटर उनसे उनके इन वादों और नारों के बारे में पूछता भी नहीं है, क्योंकि मोदी और बीजेपी उन्हें 2ab दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी इसलिए जीत रहे हैं क्योंकि वे अपने वोटर को भावनात्मक सुख, संतुष्टि और आश्वस्ति दे रहे हैं. यही वजह है कि जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुआ तो 2014 में उन्हें वोट देने वालों ने ये नहीं पूछा कि मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में विकास और शिक्षा-स्वास्थ्य तथा बुनियादी ढांचे के लिए क्या किया. 2019 में बीजेपी को 2014 से भी ज्यादा सीटें मिलीं.
यूपी में भी बीजेपी और उसके नेता बेशक अर्थव्यवस्था, विकास, शिक्षा, कृषि, रोजगार आदि के वादे कर रहे हैं. लेकिन ये सिर्फ a² और b² है. बीजेपी को पूरा भरोसा अपने 2ab यानी भावनात्मक मुद्दों पर है. क्या हैं कि यूपी में बीजेपी के 2ab मुद्दे:
– हम यादव राज की वापसी नहीं होने देंगे, जिसमें मुसलमानों का भी बोलबाला होता है
– हमने आपके लिए अयोध्या में राम मंदिर बना रहे हैं. काशी को हमने भव्य बना दिया. हम आपको मथुरा भी देंगे
– ज्यादातर बड़े मुसलमान नेता किनारे हैं या जेल में हैं. वे वहीं रहेंगे
– गाय समेत तमाम हिंदू प्रतीकों की रक्षा की जाएगी
– हम लव जिहाद नहीं होने देंगे. आपकी लड़कियों को कोई मुसलमान लड़का ब्याह करके नहीं ले जाएगा
– भारत और यूपी को हम गज़वा-ए-हिंद नहीं बनने देंगे
– हम हिंदुओं के लिए कितना करते हैं, ये और बात है. हम मुसलमानों के लिए कुछ नहीं करेंगे.
फर्क साफ है! pic.twitter.com/3rAhXyF1dU
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) February 14, 2022
भावनात्मक मुद्दों के लिए क्या है विपक्ष काट
समस्या ये है कि सपा, बसपा और कांग्रेस के पास यूपी की जनता को देने के लिए कोई भावनात्मक मुद्दा यानी 2ab नहीं है. बीजेपी के सांप्रदायिक भावनात्मक ज्वार का मुकाबला करने के लिए उसकी जोड की कोई चीज इनके पास नहीं है. ये पार्टियां यूपी के वोटर को याद दिलाने की कोशिश कर रही हैं कि जब उनका शासन था तब सब कुछ कितना अच्छा था. लेकिन ऐसा करते हुए सपा, बसपा और कांग्रेस ये उम्मीद कर रही है कि लोग 5, 10 और 30 साल पहले के उनके कार्यकाल को याद कर पाएंगे!
सपा के पास मुसलमानों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा है कि हमारे आने से आप सुरक्षित महसूस करेंगे. लेकिन मुसलमान वोट अपने दम पर कितनी सीटें जीत लेंगे? उसमें जोड़ने के लिए सपा के पास अपना वोट भी तो होना चाहिए. बीएसपी के पास एक समय बहुजन राज का भावनात्मक मुद्दा हुआ करता था, जो अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों के बड़े हिस्से को उत्साहित करता था. लेकिन इस चुनाव में बीएसपी इसे जोर से उभार नहीं रही है. दलित मुख्यमंत्री बीएसपी की एकमात्र भावनात्मक पिच है, जिस पर उसे वोट भी मिलेंगे.
चूंकि ये दल भावनात्मक पिच पर कमजोर हैं, इसलिए ये गवर्नेंस, विकास आदि की ज्यादा बातें कर रहे हैं. लेकिन विकास के नारे की अपनी सीमाएं हैं. इन सब दलों ने मिलकर यूपी का इतना ही विकास किया है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में यूपी की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती है. यूपी की प्रति व्यक्ति आय पिछड़े अफ्रीका देश वनुतु और बेनिन के समान है. सभी पार्टियों ने यूपी के लिए काम किया होगा, लेकिन उसका कुल जमा नतीजा यही है. इसलिए विकास और अर्थव्यवस्था पर पार्टियों के दावों और वादों को लोग सीमित महत्व ही देंगे,
ऐसे में दांव ये रह जाएगा कि किस पार्टी के पास मजबूत और असरदार भावनात्मक मुद्दे हैं. इस मामले में इस बार के चुनाव में भी बीजेपी बाकी दलों से आगे है.
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