scorecardresearch
Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतसीडीएस की घोषणा आजादी के बाद भारतीय सेना के लिए सबसे बड़ा कदम

सीडीएस की घोषणा आजादी के बाद भारतीय सेना के लिए सबसे बड़ा कदम

कारगिल युद्ध के बाद तीनों सेनाओं के बीच बेहतर समन्वय बनाने की आवश्यकता को गंभीरता से लेते हुए सीडीएस की सिफारिश पहले भी की गयी थी.

Text Size:

भारत के 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रक्षा क्षेत्र में चीफ आफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की घोषणा भारतीय सैन्य शक्ति को और अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में उठाया गया एक ऐसा कदम है, जो लगभग पिछले कई दशकों से लंबित था. राष्ट्र की सुरक्षा की दृष्टि से कई मायनों में यह एक बेहद अहम फैसला है, जिसके अमल में आते ही भारत अब अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, जापान और फ्रांस जैसे देशों की श्रेणी में आ जाएगा, जहां यह व्यवस्था पहले से ही लागू है. नाटो के तहत आने वाले कई देशों में भी यह व्यवस्था लागू है.

हालांकि, कारगिल युद्ध के बाद तीनों सेनाओं के बीच बेहतर समन्वय बनाने की आवश्यकता को गंभीरता से लेते हुए सीडीएस की सिफारिश पहले भी की गयी थी. लेकिन, अतीत में जाकर देखें तो सीडीएस की जरूरत तो वास्तव में सन 1947 में ही महसूस होने लगी थी.

आजादी के समय भारत सरकार ने अंग्रेजी हुकुमत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबैटन और उनके चीफ आफ स्टाफ के समक्ष आजाद भारत के लिए उच्च रक्षा प्रबंधन की गुजारिश की थी, जिस पर प्रत्येक सैन्य सेवा के लिए एक कमांडर-इन-चीफ तथा केन्द्र के साथ समन्वय बनाए रखने के लिए चीफ आफ स्टाफ कमेटी बनाए जाने का सुझाव सामने आया था. लेकिन, आजादी के बाद यह व्यवस्था अस्तित्व में न आ सकी और तीनों सेनाओं के अलग-अलग प्रमुख नियुक्त कर दिये गये तथा रक्षा मामलों से जुड़ी सर्वोच्च शक्तियां राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में रखी गयीं.

आजादी के बाद से सेना के तीनों अंग अपने-अपने कमांडर-इन-चीफ के अधीन ही कम कर रहे थे, जिनके नाम सन 1955 में बदलकर थल सेना प्रमुख, जल सेना प्रमुख और वायु सेना प्रमुख कर दिये गये. सन 1960 तक जल और वायु सेना की कमांड तीन सितारों वाले अफसरों के हाथों में हुआ करती थी, जबकि थल सेना का नेतृत्व चार सितारा अफसर के हाथों में हुआ करता था, जो इस बात का सूचक था कि थल सेना देश के सैन्य बल में प्राथमिक महत्व रखती है. लेकिन सन 1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद तीनों सेनाओं के प्रमुख चार सितारों वाले सैन्य अफसर की कमांड में रहने लगे.

हां, यह जरूर है कि सीडीएस की आवश्यता कारगिल युद्ध के बाद और भी गंभीरता से महसूस की जाने लगी थी, जिसे लेकर तत्कालीन वाजपेयी सरकार के दौरान सीडीएस सिफारिश की पहल की गयी. लेकिन, सैन्य बलों में एकीकृत कमान की आवश्यकता सन 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध तथा सन 1965 में भारत-पाक युद्ध के समय भी महसूस की गयी थी. ये आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य यह है कि 1965 की लड़ाई के दौरान सुरक्षा बलों और केन्द्र में बैठे शीर्ष नेतृत्व के बीच तालमेल की कमी दिखाई भी दी थी, जो चर्चा में भी आई थी फिर भी, सीडीएस पर कोई कारवाई न हुई.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

खासतौर से सेना से जुड़े मामलों और योजनाओं को लेकर किये जा रहे फैसलों में, जो कि सेना की सलाह और विश्वास में लिये बगैर ही किये जा रहे थे. उस समय के रक्षा विशेषज्ञों एवं उच्च सैन्य अधिकारियों द्वारा इस संबंध में यह स्पष्ट कर दिया था कि कोई भी राजनीतिक उद्देश्य देश और सेना से परे नहीं हो सकता. लेकिन, ऐसा लगता है कि सेना को ज्यादा मजबूत न किया जाय इसके पीछे विकृत मानसिकता और राजनेताओं में इच्छा शक्ति का अभाव ही रहा होगा.


यह भी पढ़ें : मोदी ने की रक्षा क्षेत्र में अब तक के सबसे बड़े सुधार की घोषणा, जनरल रावत बन सकते हैं प्रथम सीडीएस


इसलिए सीडीएस के विषय में प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन से एक बात तो साफ नजर आती है कि वह अब जाकर इस पद से केवल तीनों सेनाओं के बीच बेहतर संवाद और समन्वय बनाने तक ही नहीं रुकने वाले हैं. क्योंकि साल 2014 में केन्द्र में अपनी सरकार बनते ही उन्होंने इस मुद्दे पर तेजी से काम करना शुरू कर दिया था.

साल 2016 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने साफ तौर पर कहा था कि वह सीडीएस के पक्ष में हैं और जल्द ही इस बारे में घोषणा की जाएगी. बीते साल संसद में भी यह सवाल उठा था कि क्या सरकार की वाकई इस बारे में कोई योजना है. अपने स्वास्थ्य कारणों के चलते श्री पर्रिकर इस मुद्दे को और आगे नहीं बढ़ा सके.

वैसे कई अलग-अलग कारणों से सीडीएस अपनी पहली सिफारिश के बाद से ही कहीं न कहीं रुकता और अटकता रहा है. वर्ष 2001 में तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में बनाए गये मंत्रियों के समूह (ग्रुप आफ मिनिस्टर्स-जीओएम) ने भी सीडीएस की सिफारिश की थी. उद्देश्य साफ था कि अगर कारगिल युद्ध के समय ऐसी कोई व्यवस्था होती तो शायद जान-माल का नुकसान कम होता.

यह तथ्य भी सामने आया कि थल सेना और वायु सेना के बीच बेहतर तालमेल न होने की वजह से कारगिल युद्ध के दौरान हवाई हमले युद्ध में काफी नुकसान उठाने के बाद ही शुरू हो पाये थे, समन्वय न होने की वजह से थल सेना आपरेशन विजय तथा वायु सेना आपरेशन सफेद सागर के नाम से मोर्चा संभाले हुए थी.

तत्कालीन सरकार ने इस विषय को गंभीरता से लिया था, क्योंकि देश की सेना के दो अलग-अलग विंग एक ही युद्ध को अलग-अलग मिशन और रणनीति के तहत लड़ रहे थे. लेकिन, वाजपेयी सरकार के दौरान जीओएम की सिफारिश के बावजूद सीडीएस पर तीनों सेना प्रमुख की असहमति की वजह से यह मामला बाद में चीफ आफ स्टाफ कमेटी तक सिमट कर रहा गया, जिसके पास समन्वय के लिए पर्याप्त अधिकार नहीं थे. इसलिए भी यह पद लगभग अप्रभावी ही बना रहा.

मौजूदा समय में चीफ आफ स्टाफ कमेटी के चेयरमैन एयर चीफ मार्शल बी एस धनोआ हैं. तब तत्कालीन वायु सेना प्रमुख एस. कृष्णास्वामी के विरोध के चलते सीडीएस अस्तित्व में नहीं आ पाया, जबकि थल सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह और नेवी प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश इसके पक्ष में थे.


यह भी पढ़ें : मोदी सरकार के नए बजट में भारत के सामाजिक क्षेत्र के लिए कोई साफ नजरिया नहीं


दरअसल, चीफ आफ डिफेंस (सीडीएस) तीनों सेना प्रमुखों से भी ऊपर एक ऐसा पांच सितारों वाला पद है, जो न केवल युद्ध जैसी गंभीर परिस्थितियों में, बल्कि सेना के नवीनीकरण, आधुनिकिकरण सहित कई अन्य मामलों में भी सीधे रक्षा मंत्री एवं प्रधानमंत्री के संपर्क में रहेगा. पीएम को सेना से जुड़े सभी मामलों, गतिविधियों और फैसलों में तीन अलग-अलग लोगों के बजाए केवल एक ही व्यक्ति से सारी रिपोर्टें मिला करेगी. इसके अपने बहुत से दूरगामी सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलेंगे. खासतौर से सीमा पार से पाकिस्तान द्वारा आये दिन होनी वाली गोलाबारी और चीन द्वारा उत्पन्न डोकलाम विवाद के बाद से तीनों सेनाओं को हर समय, हर मोर्चे पर पहले से कहीं अधिक मुस्तैद रहने की जरूरत है, जिसके लिए जमीन से लेकर आकाश और आकाश से सागर तक उच्च श्रेणी का तालमेल होना बेहद जरूरी है.

इस कदम से न केवल हमारे पड़ोसी मुल्क, बल्कि कई अन्य देश भी देख सकते हैं कि आज भारत अपनी रक्षा नीतियों, सामरिक महत्व और नेतृत्व के मामले में कितनी मजबूत स्थिति में है और यहां सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि यह पूरी कवायद ऐसे संकटपूर्ण समय में हुई है, जब हाल के वर्षों में पाकिस्तान और चीन के साथ सीमाओं पर तनाव बढ़ा है और जिसका हमारी सेना ने मुंह तोड़ जवाब भी दिया है.

(लेखक बीजेपी से राज्यसभा सांसद हैं और यह लेख उनका निजी विचार है)

share & View comments