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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतरविदास मार्च से चंद्रशेखर आज़ाद के रूप में बहुजन आंदोलन को अपना नया नेता मिल गया है

रविदास मार्च से चंद्रशेखर आज़ाद के रूप में बहुजन आंदोलन को अपना नया नेता मिल गया है

उत्तर प्रदेश में नए ज़माने के रॉबिनहुड बी.आर. आंबेडकर के मूल सिद्धांत ‘शिक्षित करो, संगठित करो, आंदोलित करो’ पर आधारित सामाजिक आंदोलन चला रहे हैं.

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दिल्ली के तुगलकाबाद में 10 अगस्त को सदियों पुराने रविदास मंदिर को गिराए जाने के बाद राष्ट्रीय राजधानी नीले रंग में रंग गई. पश्चिम उत्तर प्रदेश में मामूली अतीत वाली एक सेना के सदस्यों ने मध्य दिल्ली पर धावा बोल दिया. उनके हाथों में सरिये, डंडे आदि थे और दिलों में अपने हक की दावेदारी का जुनून. ‘जय भीम’ के जोशीले नारों के बीच भीम सेना के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद किसी घायल शेर की तरह तुगलकाबाद की तरफ बढ़ रहे थे. उनका साथ दे रहे थे हज़ारों की संख्या में विभिन्न राज्यों से आए युवा और अन्य समर्थक.

चंद्रशेखर आज़ाद और आज की पहचान-आधारित राजनीति में दलित ‘सामाजिक’ आंदोलन को क्रांतिकारी रूप देने में उनकी भूमिका के वर्णन के लिए रामायण के पात्र दशानन रावण और उसकी ताकत के रूपक का इस्तेमाल सही होगा और आज़ाद का उत्थान ऐसे वक्त हो रहा है जब पिछले दो दशकों में दलितों की सबसे बड़ी नेता रही मायावती की राजनीतिक हैसियत कम हो चुकी है.

मायावती की अलग राह

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती 2009 से ही प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने का पोषण करती रही हैं और इसी अवधि में उनकी पार्टी सत्ता और अपनी प्रासंगिता दोनों को गंवा चुकी है और इसमें उन्हीं लोगों का योगदान रहा है, जिन्होंने उन्हें सत्तासीन करने में अहम भूमिका निभाई थी यानि ब्राह्मण. उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में समाजवादी पार्टी (सपा) नेता मुलायम सिंह यादव के दबदबे का सामना करने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मायावती के करियर को आगे बढ़ाने में मदद की थी और ब्राह्मण मतदाताओं को उनके खेमे में लाने का काम किया था.

जब भाजपा ने 2003 में मायावती की साल भर पुरानी सरकार से समर्थन वापसी की, तो उस समय तक एक जननेता के रूप में मायावती खुद की पहचान बना चुकी थी और वोट गंवाने की चिंता किए बिना राजनीतिक फैसले ले सकती थी. अगले पांच वर्षों तक उन्होंने खुद अपने दम पर ब्राह्मण समुदाय से संपर्क बढ़ाने का काम किया. उन्होंने 2007 में भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की और उनकी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया.


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लेकिन, मायावती के लिए जादुई असर करने वाला दलित-ब्राह्मण समीकरण लंबे समय तक कायम नहीं रह पाया. अंतत: दलित और ब्राह्मण दोनों का ही बहनजी से मोहभंग हो गया. एक तो भारत खास कर उत्तर प्रदेश में विभिन्न जातियों के बीच विभाजन बहुत गहरा है, साथ ही दो समुदायों के रूप में दलितों और ब्राह्मणों के उद्देश्यों और प्राथमिकताओं में भी बड़ा विरोधाभास है.

बसपा नेता का जुनून

भारत की जातिवाद जैसी बड़ी समस्या को राजनीतिक सत्ता मात्र से खत्म नहीं किया जा सकता. इसके लिए उन दकियानूसी विचारों से छुटकारा पाने की ज़रूरत है, जिन्हें परंपरा के नाम पर बहुत से भारतीय छोड़ना नहीं चाहते. इसका समाधान सामाजिक आंदोलन से ही हो सकता है.

पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने एक बार मायावती को ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ बताया था. पर प्रथम भारतीय दलित प्रधानमंत्री बनने के जुनून में उन्होंने बसपा संस्थापक कांशीराम के दिए बहुजन समाज के उत्थान और सशक्तिकरण के मंत्र को भी भुला दिया. सामाजिक उत्थान की परिकल्पना को हकीकत बनाने के लिए राजनीतिक सत्ता की दरकार थी, लेकिन प्रधानमंत्री पद पाने की धुन में मायावती ने अपनी प्राथमिकताएं बदल डालीं और जातिवाद की सहायता से खुद के राजनीतिक उत्थान को लक्ष्य बना लिया.

अपने भाषणों की शुरुआत हमेशा ‘मैं चमार की बेटी हूं’ से करने वाली मायावती को आज दलित समुदाय ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने लगा है जिसने कि ब्राह्मणों को अपनी पार्टी में सेंध लगाने और दलित आंदोलन के व्यापक उद्देश्यों को कमज़ोर करने दिया.

आज़ाद की मायावती पर बढ़त

यहीं पर चंद्रशेखर आज़ाद को मायावती पर बढ़त मिलती है. सहारनपुर का हर गली-नुक्कड़ ‘हमें इस देश का शासक बनना है’ के पोस्टरों से पटा है और इस तरह से आज़ाद ने दलितों को भारतीय राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया है.

दलित बच्चों को अपनी जातीय पहचान पर गर्व करने, अपने इतिहास को समझने और अपना हक मांगने के लिए एकजुट होने की सीख देने के वास्ते हज़ारों की संख्या में भीम आर्मी स्कूल संचालित कर उन्होंने बीआर आंबेडकर के मूल सिद्धांत ‘शिक्षित करो, संगठित करो, आंदोलित करो’ को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने का काम किया है. राजनीति से प्रेरित हो या नहीं, पर आज़ाद ने जातिवाद की समस्या का आमने-सामने मुकाबला किया है. वह ‘महान चमार’ के उत्थान का प्रयास कर रहे हैं.

दलितों के बीच एक नए चलन में भी आज़ाद की प्रमुख भूमिका है. आप इसे ‘टशन’ कह सकते हैं, वो इसे ‘गर्व’ कहते हैं. वह मूंछों को ऊंची कर के रखते हैं, बुलेट पर चलते हैं, रे-बन के चश्मे पहनते हैं और बालों में जेल डालते हैं. जब घोड़े पर बैठने या मूंछें रखने के लिए दलितों को पीटा जा रहा हो, ये सब बातें प्रतिरोध का प्रतीक बन जाती हैं.

बहुजनों की नई शान

आबादी में बड़ी हिस्सेदारी के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस युवा भारत का सहारा लेते हैं, चंद्रशेखर आज़ाद भी उनके बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. भारत की 16.6 प्रतिशत दलित आबादी के युवा तो आज़ाद के ‘चमार’ गौरव से जुड़ ही रहे हैं, मुस्लिम युवाओं को भी उनमें एक नया ‘दबंग’ नज़र आता है.

भीम आर्मी झुंड बना कर चलती है. ये उत्तर प्रदेश में नए ज़माने के रॉबिनहुड हैं जो मुसीबत की घड़ी में हाशिए पर पड़े समुदायों के बीच मौजूद होते हैं. बाइकों पर सवार कार्यकर्ता आते हैं और कुछेक घंटों के भीतर समस्या को सुलझा देते हैं. मदद के लिए हमेशा मौजूद भीम आर्मी! विगत एक दशक के दौरान भाजपा को मुस्लिम वोट बैंक के मिथक को तोड़ता देख अधिकांश दलों, मायावती की बसपा समेत, ने मुसलमानों को भुला दिया है. इसलिए मुसलमानों को ये लगने लगा है कि मुसीबत के समय में कम से कम भीम आर्मी और इसके नेता आज़ाद उनकी मदद और सुरक्षा के लिए उपलब्ध रहेंगे.


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चंद्रशेखर आज़ाद के सामाजिक क्रिया-कलाप भी प्रभावी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. भले ही ये कार्य अभी आरंभिक चरण में हों पर हैं सही दिशा में और इसी कारण लोकसभा चुनावों से पहले इसी साल मार्च में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने, राज बब्बर और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे अन्य बड़े पार्टी नेताओं के साथ, मेरठ के एक अस्पताल में आज़ाद से मिलने का फैसला किया था. तब आज़ाद को चुनावों की आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में जेल भेजा गया था. हालांकि, कांग्रेस के बसपा से चुनावी गठजोड़ से इनकार करने के मद्देनज़र ये एक प्रतीकात्मक मुलाकात भर थी पर यदि भारत में दलितों और युवाओं की राजनीति में आज़ाद की प्रमुख भूमिका देखी जाती हो, तो इसमें अचरज की बात नहीं है.

सहारनपुर की गलियों से दिल्ली की सत्ता के गलियारों तक की लंबी राह आसान नहीं है. पर सामाजिक आंदोलन और युवाओं से प्रत्यक्ष जुड़ाव के पहियों पर टिकी एडवोकेट चंद्रशेखर आज़ाद की राजनीतिक गाड़ी उन्हें आसानी से सत्ता तक पहुंचा सकती है.

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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