अक्टूबर 2016 में जनता दल (यूनाइटेड) की राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सर्जिकल स्ट्राइक का ‘राजनीतिकरण’ करने के लिए भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की थी.
कुमार ने कहा, “पूरा देश आपके (नरेंद्र मोदी) साथ खड़ा है क्योंकि आप प्रधानमंत्री हैं, लेकिन उन भाजपा नेताओं का क्या जिन्होंने बार-बार स्ट्राइक का इस्तेमाल राजनीति करने के लिए किया है?”
कुछ महीने पहले, जब भाजपा 70वें स्वतंत्रता दिवस से पहले तिरंगा यात्रा का आयोजन कर रही थी, तब कुमार ने इस पर कटाक्ष किया था. उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने “तिरंगे को कभी राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता नहीं दी”, वह तिरंगा यात्रा निकाल रहे हैं.
तब से गांधी सेतु के नीचे बहुत पानी बह चुका है. जब भाजपा ने ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का जश्न मनाने के लिए 10 दिनों तक पूरे बिहार में तिरंगा यात्रा निकाली, तो कुमार ने उन्हें चुपचाप देखा — और शायद सावधानी औस शंका से. ऑपरेशन ने भाजपा नेताओं के पैरों में जान डाल दी है. 2024 के लोकसभा चुनाव का झटका अब बीती बात हो गई है. पीएम मोदी ने फिर से अपना नाम लेना शुरू कर दिया है — मोदी का ठंडा दिमाग और उनकी नसों में गर्म सिंदूर, मोदी का सीना, वगैरह.
बिहार के मधुबनी में पहलगाम आतंकी हमले के बाद अपनी पहली सार्वजनिक रैली में पीएम मोदी ने अपराधियों को “उनकी कल्पना से परे” सज़ा देने की कसम खाई थी. यह कसम पूरी हुई, वे 29 और 30 मई को बिहार में फिर से आएंगे. पटना में मोदी के रोड शो के लिए भाजपा की तैयारियां जोरों पर हैं. सड़क के दोनों ओर खड़े लोग उन पर फूलों की पंखुड़ियां बरसाएंगे. विजेता का स्वागत इसी तरह होता है.
‘जाति, मुख्य निर्धारक’
ऑपरेशन सिंदूर बिहार चुनावों को कैसे प्रभावित करेगा? आइए सबसे पहले देखें कि पाकिस्तान के आतंकी ढांचे और सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमले से पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) कहां खड़ा था. राजनीतिक डिजिटल अभियान प्रबंधन कंपनी डिजाइनबॉक्स्ड ने पिछले महीने बिहार में एक सर्वेक्षण किया. मुझे इसकी रिपोर्ट मिली, जिसमें NDA के लिए अच्छी खबर है:
- लगभग 60 प्रतिशत उत्तरदाता मुख्यमंत्री पद पर कुमार के प्रदर्शन से या तो बहुत संतुष्ट थे या कुछ हद तक संतुष्ट थे.
- 60 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि कुमार अगले पांच साल तक मुख्यमंत्री पद पर काम करने के लिए उपयुक्त हैं.
- 50 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि एनडीए के अगला चुनाव जीतने की उम्मीद है.
- एनडीए अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के 68.72 प्रतिशत लोगों के लिए मतदान का विकल्प था, जो कुल आबादी का 36 प्रतिशत है. यह अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के 39.63 प्रतिशत लोगों के लिए मतदान का विकल्प था, जो कुल आबादी का 27 प्रतिशत है.
- इंडिया ब्लॉक ईबीसी के 17.74 प्रतिशत और ओबीसी के 44.14 प्रतिशत लोगों के लिए मतदान का विकल्प था.
- बिहार की आबादी में 19.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाली अनुसूचित जातियों (एससी) में से 48.23 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने एनडीए को वोट देने की बात की, जबकि 28.11 प्रतिशत ने इंडिया को वोट दिया. 56 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों ने इंडिया ब्लॉक को और 28.47 प्रतिशत ने एनडीए को वोट देने की बात की.
कुल मिलाकर, डिजाइनबॉक्स्ड सर्वेक्षण ने एनडीए के लिए स्पष्ट बढ़त का संकेत दिया. ध्यान रहे, यह ऑपरेशन सिंदूर से पहले का सर्वे है.
नीतीश कुमार के मुख्य प्रतिद्वंद्वी तेजस्वी यादव ने भी सर्वेक्षण से कुछ सकारात्मक निष्कर्ष निकाल सकते हैं. अगर कल चुनाव होते हैं, तो 46.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि वह एनडीए को वोट देंगे, जबकि 35.6 प्रतिशत ने इंडिया ब्लॉक का समर्थन किया, जबकि 13.8 प्रतिशत ‘अनिश्चित’ थे. अगर तेजस्वी ‘अनिश्चित’ लोगों को अपने पक्ष में कर लेते हैं, तो खेल शुरू हो जाएगा.
43.8 प्रतिशत उत्तरदाताओं के लिए बेरोज़गारी और पलायन आगामी चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं — 2020 में तेजस्वी का मुख्य मुद्दा. उन्हें और भी खुशी इस बात से होगी कि सर्वे में पाया गया कि 63.76 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि मौजूदा सरकार को बदला जाए. यह असंगत लगता है क्योंकि ज़्यादातर उत्तरदाता कुमार के प्रदर्शन से संतुष्ट थे. हालांकि, डिजाइनबॉक्स्ड सर्वेक्षण में शामिल लोगों का दावा है कि यह कोई हैरानी की बात नहीं है. उनमें से एक ने मुझसे कहा, “आप ऐसे कई उत्तरदाताओं से मिलते हैं जो नीतीश कुमार के साथ ठीक हैं, लेकिन फिर भी उनकी सरकार बदलना चाहते हैं. यह इसके विपरीत भी है. इसका मुख्य कारण लोगों की जाति है जो मुख्य निर्धारक बन जाती है.”
2014-15 में नौ महीने के छोटे अंतराल को छोड़कर, कुमार 2005 से ही मुख्यमंत्री हैं. बदलाव की चाहत समझ में आती है. तेजस्वी इसका कितना फायदा उठा सकते हैं? क्या वे जातिगत गणित को हरा सकते हैं जो आज एनडीए के पक्ष में दिख रहा है? हमें नवंबर में पता लगेगा.
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पासवान को झटका
केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह ने एक बार पत्रकारों से कहा था: “बिहार के लोग बहुत राजनीतिक हैं. वह चाय की दुकानों पर बैठते हैं और पूरा अखबार पढ़ते हैं — पहले पेज से लेकर आखिरी पेज तक.” ज़ाहिर है, ऐसे राजनीतिक लोगों के लिए अपना मन बदलने में पांच महीने का समय बहुत लंबा होता है.
लेकिन सीएम कुमार सिर्फ तेजस्वी को लेकर ही चिंतित नहीं होंगे. भाजपा कहती है कि अगला चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा, लेकिन एनडीए के जीतने पर कुमार के फिर से सीएम बनने के सवाल पर वह टालमटोल करती है.
कुमार 2020 के चुनाव नतीजों के बाद नई दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में हुए बड़े जश्न को नहीं भूलेंगे. एनडीए 243 सदस्यीय विधानसभा में 125 सीटें हासिल करके मुश्किल से बहुमत का आंकड़ा पार कर पाया था. उस दिन भाजपा नेताओं के इतने उत्साहित होने का कारण यह था कि जदयू की सीटें घटकर 43 रह गई थीं, जबकि भाजपा की 74 सीटें थीं. आखिरकार गठबंधन में भाजपा ही बड़ा भाई थी.
लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के चिराग पासवान, जो खुद को ‘मोदी का हनुमान’ कहते हैं, उन्होंने उन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिन पर JD(U) ने चुनाव लड़ा था. चिराग की LJP को सिर्फ एक सीट मिली, लेकिन उसने 40 सीटों पर JD(U) को नुकसान पहुंचाया.
नीतीश कुमार नाराज़ थे, लेकिन भाजपा बहुत खुश थी.
क्या होगा अगर 2020 के नतीजे 2025 में भी दोहराए गए? 2020 के चुनावों में गठबंधन सहयोगी के तौर पर भाजपा ने 110 सीटों पर और JD(U) ने 115 सीटों पर चुनाव लड़ा था. पिछली बार JD(U) के स्ट्राइक रेट को देखते हुए इस बार भाजपा के पास इतनी सीटें आने की कोई संभावना नहीं है. JD(U) जितनी कम सीटों पर चुनाव लड़ेगी, कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने की संभावना उतनी ही कम होगी और अगर वह एक बार फिर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो उन्हें भाजपा को एक पोस्ट-डेटेड इस्तीफा का पत्र देना पड़ सकता है.
तीसरा विकल्प
मैंने बिहार में भाजपा की एक सहयोगी पार्टी के अध्यक्ष से पूछा कि क्या एनडीए कुमार को एक और कार्यकाल देगा. उन्होंने रहस्यमयी मुस्कान के साथ जवाब दिया, “यही वह मुद्दा है जिस पर कोई बात नहीं कर रहा है”.
अब जबकि पासवान एनडीए में वापस आ गए हैं, तो क्या कुमार को सुरक्षित महसूस करना चाहिए? कोई नहीं जानता. चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर संभावित रूप से 2025 में कुमार के साथ वही कर सकते हैं जो पासवान ने 2020 में किया था.
डिजाइनबॉक्स्ड सर्वे के अनुसार, पीके की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) एक नॉन-स्टार्टर होगी. केवल 2.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने उन्हें मुख्यमंत्री के लिए ‘पसंदीदा उम्मीदवार’ के रूप में चुना. लगभग 34 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पीके की पार्टी को वोट कटुआ कहा, जबकि 27.4 प्रतिशत ने इसे ‘गंभीर दावेदार’ पाया.
मैं जेएसपी के बारे में सर्वेक्षण के निष्कर्षों से सहमत नहीं हूं. सबसे पहले, मैंने देखा कि जब मैं पिछले साल खगड़िया में पीके का इंटरव्यू लेने गया था, तो लोग उनके बारे में काफी उत्सुक थे. यह संभव है कि यह वोटों में तब्दील न हो, लेकिन कौन जानता है? दूसरा, पीके यूं ही प्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार नहीं थे. अगर उनके अपने सर्वेक्षणों में ऐसी निराशाजनक संभावनाएं दिखाई देतीं, तो वे अपने राजनीतिक उद्यम में इतना समय, ऊर्जा और पैसा बर्बाद नहीं करते.
यह बात अलग है. जैसा कि है, पीके खुद को बिहार की राजनीति में तीसरे विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं. बिहार की राजनीति में वैकल्पिक चेहरा बनने की ख्वाहिश रखने वाले किसी व्यक्ति के लिए, कुमार को हराना प्राथमिकता होगी.
पहली नज़र में पीके की पार्टी सत्ता विरोधी वोटों को बताती और तेजस्वी की संभावनाओं को भी नुकसान पहुंचती है. लेकिन, पीके की वर्तमान राजनीति वैसी ही है जैसी 2005 और 2010 के चुनावों में कुमार की थी — आकांक्षापूर्ण, विकास-केंद्रित. उसके बाद कुमार ने अपना जादू खो दिया. तेजस्वी उस खाली जगह को भरना चाहते हैं, लेकिन उनके पास अपने पिता की जंगल राज वाली इमेज का भोज है. इसलिए, पीके विकास पुरुष की जगह लेने के लिए बेहतर हैं — अगर बिहारी जाति के आधार पर वोट नहीं करते हैं, जिसे कई लोग इच्छाधारी सोच कहेंगे.
2015 के लोकसभा चुनावों से पहले, संसद के सेंट्रल हॉल में एक भाजपा महासचिव मुझसे मिले थे. उन्होंने कहा, “हम जीत रहे हैं…सच में!”
मैंने कहा, “क्या आप यह कह रहे हैं कि आप लालू-नीतीश गठबंधन को हरा रहे हैं? ओबीसी और ईबीसी उन्हें छोड़कर आपके पास क्यों आएंगे?” भाजपा नेता ने मुझसे पूछा कि मैं आखिरी बार बिहार कब आया था, मैंने कहा, “लगभग एक साल पहले”
फिर वे हमारे आस-पास बैठे लोगों की ओर मुड़े. “ये देखिए! इन्हें पता ही नहीं है कि बिहार कितना बदल गया है? वहां लोग विकास और डबल इंजन की बात करते हैं और ये डीके जी जाति में ही फंसे हुए हैं.”
वहां बैठे मेरे मीडिया के दोस्त भी मेरी ओर पूरी तरह से नापसंदगी से देखने लगे. मैंने इस विषय को यहीं छोड़ना बेहतर समझा. बाकी तो इतिहास है. इसलिए अगर पीके को भरोसा है कि बिहारी जाति या धर्म के लिए नहीं, बल्कि विकास और अपने बच्चों के भविष्य के लिए वोट देंगे, तो हम उम्मीद नहीं होते हुए भी यही उम्मीद कर सकते हैं कि वह सही साबित होंगे.
जो भी हो, कुमार को हराना निश्चित रूप से पीके के हित में है. भाजपा के लिए 2025 बिहार में अपना खुद का मुख्यमंत्री बनाने के अपने लंबे समय से संजोए सपने को आखिरकार पूरा करने का एक शानदार मौका है. बीजेपी उनका आभारी होगा अगर जब पीके वही दोहरा सकें जो चिराग ने 2020 में किया था — जेडी(यू) को बस इतना नुकसान पहुंचाना, लेकिन इस हद तक नहीं कि एनडीए बहुमत के आंकड़े से दूर रह जाए. हम सभी जानते हैं कि पूर्व चुनाव रणनीतिकार कम से कम किंगमेकर के रूप में उभरने की उम्मीद कर रहे होंगे.
लंबी कहानी को छोटा करते हुए, इस चुनाव में नीतीश कुमार का हारना सभी को पसंद है — मोदी-शाह और जेपी नड्डा से लेकर तेजस्वी, चिराग, पीके और आप जो भी दूसरा नाम सोचें. जैसे हालात हैं, बिहार के सीएम अपने राजनीतिक दुश्मनों और दोस्तों को लेकर भ्रमित होंगे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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