पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया जिसके चलते ऑरेंज अलर्ट तक जारी किया गया. आमतौर पर पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण विषयों से दूरी बनाकर रहने वाले तमाम हिंदी टेलीविजन न्यूज चैनलों तक में बढ़े तापमान को लेकर चिंता जताई जाने लगी. इंसानी फितरत है कि जब तक किसी समस्या के साथ उसका प्रत्यक्ष सामना ना हो जाए तब तक उसे वो बतकही ही लगती है.
दिल्ली में तापमान का इस स्तर तक पहुंच जाना कोई सामान्य बात नहीं है. कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (यूरोपीय संघ का कार्यक्रम) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 भारत में सन 1901 के बाद पांचवां सबसे गर्म साल था. यह दर्शाता है कि भारत में तापमान में किस कदर वृद्धि हो रही है.
नवंबर 2021 में आया जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक बताता है कि किसी भी देश के द्वारा पेरिस समझौता लागू होने के बाद भी जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों की रोकथाम के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए. यही कारण था कि इस सूचकांक में किसी भी देश को प्रथम स्थान नहीं दिया गया. भारत का इस सूचकांक में 10वां स्थान है.
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पृथ्वी पर संकट में पड़ता जीवन
इंसान जब एक हद तक पृथ्वी के पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ कर रहा था, तब तक इस नीले ग्रह ने खुद पर मानवीय अत्याचार की वजह से हुए छोटे-मोटे पर्यावरणीय क्षरण को खुद ही संतुलित कर दिया. लेकिन इंसान की मांग बढ़ती चली गई और उसकी तुलना में पृथ्वी की पारिस्थितिकी के पुनरुत्पादन की क्षमता प्रभावित होती चली गई.
कहते हैं ना कि सहन करने की एक सीमा होती है और इंसान की पर्यावरण के साथ बर्बरता और संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की वो सीमा अब हद पार कर चुकी है. पृथ्वी पर जीवन जल, कार्बन और ऊष्मा के एक खास संतुलन के कारण संभव हुआ है. इसमें से कोई भी संतुलन गड़बड़ाने से जीवन पर खतरा पैदा हो जाएगा. इन तीनों के अलावा मिट्टी और वायु भी जीवन के लिए अपरिहार्य चीजें हैं इसलिए हर प्राचीन धर्म, समुदाय, परंपरा में प्रकृति के संरक्षण की चेतना मौजूद थी.
इस बात की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि जिस मानव जाति ने प्रकृति को सहेजने में योगदान दिया वो इसका इस कदर दोहन करेगा कि पृथ्वी पर जीवन ही संकट में पड़ जाएगा.
कवि गुलज़ार की पंक्तियां हैं-
जंगल, पेड़, पहाड़, समंदर
इंसा सब कुछ काट रहा है
छील-छील के खाल ज़मीं की
टुकड़ा-टुकड़ा बांट रहा है
आसमान से उतरे मौसम
सारे बंजर होने लगे हैं
मौसम बेघर होने लगे हैं
ये पंक्तियां पर्यावरण के साथ उस मानवीय क्रूरता को बयां कर रही हैं जिसकी वजह से आज हमारे सामने ‘जलवायु परिवर्तन’ एक विकराल समस्या के रूप में उपस्थित हुआ है.
अभी हाल ही में हॉर्न ऑफ अफ्रीका (सोमालिया, इथोपिया, जिबूती, इरिट्रिया) में लोग 1981 के बाद से दर्ज की गई सबसे शुष्क परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं जिसका नतीजा ये हुआ है कि वहां सूखे की भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई और हॉर्न ऑफ अफ्रीका पिछले 40 वर्षों में सबसे भीषण सूखे का सामना कर रहा है.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हर दिन लगभग 13 मिलियन लोग भुखमरी के संकट से जूझ रहे हैं और लोगों की जानें भी जा रही हैं. अक्टूबर 2020 से ही यहां आवश्यक मात्रा में वर्षा नहीं हो रही है. विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन को इसका कारण बताते हैं. बारिश नहीं होने की वजह से भयंकर सूखा पड़ा है. वहीं एक अनुमान के मुताबिक 1.5 मिलियन से ज्यादा कृषि से संबद्ध पशुओं की भी जान गई. इस क्षेत्र में अनाज का उत्पादन बहुत ही कम मात्रा में हो पा रहा है. यहां लगभग 5.5 मिलियन बच्चों को कुपोषण और अनुमानित 1.4 मिलियन बच्चों को बेहद गंभीर कुपोषण का खतरा है. अभी तो स्थिति और खराब होने की आशंका जताई जा रही है.
अफ्रीका महाद्वीप में जो घट रहा है वो तो जलवायु परिवर्तन का सिर्फ एक तरह का प्रभाव है. इसकी भयावहता यहीं तक सीमित नहीं है. समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी, हिमस्खलन, धरती के तापमान में वृद्धि, जंगलों में आग, मरुस्थलीकरण, कृषि योग्य भूमि की कमी के रूप में इसके प्रभाव इतने व्यापक और विध्वंसक हो सकते हैं कि ये ना सिर्फ मानव बल्कि पृथ्वी पर अन्य जीवों के अस्तित्व पर भी खतरा पैदा कर सकता है.
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आईपीसीसी की रिपोर्ट एक चेतावनी है
जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़े तापमान के परिणामस्वरूप एक ओर दोनों ध्रुवों की बर्फीली चट्टानें पिघल रही हैं तो दूसरी ओर धरती का तीसरा ध्रुव यानी हिमालय, हिंदुकुश पर्वतमाला का बर्फीला क्षेत्र भी सिकुड़ रहा है. दुनिया भर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नतीजतन समुद्री जलस्तर में भी बढ़ोतरी हो रही है.
एक अनुमान के मुताबिक कुछ दशकों के बाद समुद्री जलस्तर बढ़ने के चलते भारत के दो प्रमुख नगरों कोलकाता और मुंबई का बड़ा हिस्सा समुद्र में समा जाएगा. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार जल्द ही लक्षद्वीप भारत का ‘जलवायु परिवर्तन शरणार्थी‘ संकट का सामना करने वाला पहला क्षेत्र बन सकता है.
बढ़ते तापमान के चलते भारत सहित दुनियाभर में बड़े स्तर पर बदलाव होंगे जो कि दिखाई भी दे रहे हैं. हाल ही में पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान के हुंजा में आई बाढ़ और शिस्पर ग्लेशियर के फटने के पीछे भी जलवायु परिवर्तन ही एक बड़ा कारण है.
जलवायु परिवर्तन की अवधारणा को सत्यापित करने वाली आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की रिपोर्ट पर यदि ध्यान दिया जाए तो उसमें स्पष्ट किया गया है कि जलवायु परिवर्तन से नदीय, तटीय एवं शहरी बाढ़ में वृद्धि से बड़े पैमाने पर अवसंरचना, आजीविका एवं बसावट में बदलाव आएगा.
हाल ही में आईपीसीसी ने 28 फरवरी, 2022 को अपनी छठी आकलन रिपोर्ट का दूसरा भाग प्रकाशित किया है जोकि इकोसिस्टम और मानव समाज पर पड़ते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर केंद्रित है.
बढ़ते तापमान पर चिंता व्यक्त करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि तापमान में पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि आती है तो उसके चलते 14 फीसदी प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगेगा. वहीं तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ यह जोखिम 29 फीसदी और 4 डिग्री सेल्सियस पर 39 फीसदी तक बढ़ जाएगा. तापमान में हर डिग्री की बढ़ोतरी के साथ जलवायु परिवर्तन से जुड़ा जोखिम और बढ़ता जा रहा है और इससे होने वाली तबाही विकराल होती चली जाएगी.
इस रिपोर्ट के अनुसार शहरों में बसी दुनिया की बड़ी आबादी जलवायु परिवर्तन के चलते खतरे में हैं. लोगों का जीवन तो खतरे में है ही साथ ही साथ एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी के दलदल में फंस जाएगी.
रिपोर्ट के अनुसार तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के बाद दक्षिण एशिया और उप सहारा अफ्रीका और छोटे विकासशील द्वीप वाले देश भोजन की गंभीर कमी और कुपोषण का सामना करने को मजबूर होंगे. वैसे भी ये क्षेत्र पहले से ही गरीबी की मार झेल रहे हैं. हॉर्न ऑफ अफ्रीका के देशों की स्थिति का जिक्र मैं पहले ही ऊपर कर चुका हूं कि वह किस स्थिति से गुजर रहे हैं.
द्वीपीय देशों और अन्य देशों के तटीय इलाकों में तो संकट और बड़ा है और उनके डूबने का खतरा भी है. वैसे भी हर साल आने वाले तूफानों की वजह से कई मिलियन लोग निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं. भारत में भी यही स्थिति है.
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भारत और जलवायु परिवर्तन की चुनौती
अगर सिर्फ भारत के संदर्भ में बात करें तो हमारा देश जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुत सुभेद्य है. हम पिछले कुछ सालों से उसके नतीजे भी देख सकते हैं. हिमस्खलन, बार-बार आते तूफानों की वजह से व्यापक नुकसान, बाढ़, जंगलों में आग ये सब जलवायु परिवर्तन के नतीजे ही हैं. जिसके चलते अनगिनत लोगों की जिंदगियां चली गईं. जंगलों में आग के चलते कई प्रजातियां खतरे में पड़ गईं.
भारत में विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है. जंगल साफ होते चले जा रहे हैं और कंक्रीट के जंगल घने होते जा रहे हैं वहीं हीट आइलैंड में तब्दील हो चुके हैं. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नोएडा इसका बेहतर उदाहरण है जहां हर तरफ बस इमारतें ही इमारतें दिखती हैं और पेड़ों के झुंड ढूंढने पर बमुश्किल दिखते हैं जिसके चलते तापमान को परावर्तित करने की दर (एल्बिडो) भी प्रभावित हुआ है और तापमान का अवशोषण बढ़ रहा है.
समस्या सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है.
भारत में प्रदूषित हवा और पानी भी एक बहुत गंभीर खतरा है. तमाम दावों और वादों के बाद भी सरकार जहां नदियों को साफ करने में नाकाम रही है वहीं हवा को जहरीला होने से रोकने में भी उन्होंने कोई झंडे नहीं गाड़े हैं.
दिल्ली और आसपास के राज्यों में लोग जहरीली हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं. वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2021 के अनुसार लगातार चौथे साल दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है. इसी रिपोर्ट के अनुसार मध्य और दक्षिण एशिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले 11 शहर भारत के हैं.
ऐसा नहीं है कि सरकारें पर्यावरण को लेकर चिंतित नहीं हैं. भारत सहित दुनिया भर की सरकारें इसको लेकर प्रयास कर रही हैं. भारत ने तो नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में बहुत ही सराहनीय कार्य किए हैं जिसको लेकर दुनियाभर के मंचों पर उसकी तारीफ भी हुई है.
स्वच्छता को लेकर भी देश में व्यापक अभियान वर्तमान सरकार की ओर से चलाया जा रहा है लेकिन जनभागीदारी के अभाव में उसमें उतनी सफलता नहीं मिल रही जितनी मिलनी चाहिए. हालांकि सरकार कई मोर्चों पर असफल भी है. उदाहरण के लिए नदियों की सफाई का मुद्दा ही देख लीजिए.
तमाम सरकारी वादों और दावों के बीच नदियों में गंदगी के हालात जस के तस हैं. इसमें कहीं ना कहीं सरकार के प्रयास में प्रतिबद्धता की कमाई दिखाई देती है.
इन सबके लिए सरकार की जितनी जिम्मेदारी है उतनी ही आम लोगों की भी है. ये बहुत दुखद है कि जिस देश में पेड़ों को बचाने के लिए चिपको जैसा महान आंदोलन चला हो, जिस देश में प्रकृति को पूजा जाता हो वहां के लोग अब पर्यावरण को लेकर बहुत उदासीन हो चुके हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)
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