निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या के सात साल पुराने मामले में मौत की सजा पाये चारों मुजरिमों को मृत्यु होने तक फांसी के फंदे पर लटकाने के लिये अदालत ने भले ही दूसरी बार मौत का फरमान जारी किया हो लेकिन इन दोषियों की मौत के फंदे से बचने के प्रयास अब भी जारी हैं.
हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार को सर्वोपरि माना गया है और यही वजह है कि न्यायपालिका मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों को फांसी के फंदे से बचाने के प्रयास के तहत दायर होने वाली याचिकाओं को प्रमुखता देती है. ऐसे दोषी को फांसी के फंदे से बचाने के प्रयासों को लेकर दायर होने वाली याचिकाओं, चाहे आतंकी हमले के दोषियों के लिये हों या फिर दूसरे मुजरिमों के लिये, पर विचार के मामले में न्यायपालिका किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती है.
निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले के दोषियों को फांसी के फंदे से बचाने के प्रयास में अब दलील दी जा रही है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा जनवरी, 2014 में ऐसे ही एक मामले में प्रतिपादित दिशा-निर्देशों का पालन नहीं हुआ है, इसलिए राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार करने के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जानी चाहिए.
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इस मामले में मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की पुनर्विचार याचिकाएं खारिज कर चुकी हैं. ये सुधारात्मक याचिका का भी सहारा ले चुके हैं. एक दोषी पवन ने अपराध के समय खुद के नाबालिग होने का दावा करते हुये फांसी के फंदे से बचने का असफल प्रयास किया.
अब मौत की सजा के फैसले पर अमल के लिये दूसरी बार तारीख तय होने के बाद दोषियों को फांसी के फंदे से बचाने की कवायद तेज हो गयी है. दोषी मुकेश कुमार सिंह ने दया याचिका खारिज करने के राष्ट्रपति के निर्णय की न्यायिक समीक्षा के लिये शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
मुकेश कुमार की याचिका में राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा का अनुरोध करते हुये शत्रुघ्न चैहान की याचिका पर शीर्ष अदालत के 21 जनवरी, 2014 के फैसले को आधार बनाया है.
शत्रुघ्न चैहान प्रकरण एक ही परिवार के पांच सदस्यों की 19 दिसंबर, 1997 को हत्या के अपराध में दो मुजरिमों- सुरेश और रामजी- को मौत की सजा से संबंधित है. यह याचिका दोषियों के परिजनों ने दायर की थी. इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2000 को दोनों दोषियों की मौत की सजा की पुष्टि कर दी थी और उच्चतम न्यायालय ने भी दो मार्च 2001 को दोषियों की अपील खारिज कर दी थी.
इसके बाद पहले और दूसरे दोषी ने 9 मार्च और 29 अप्रैल, 2001 को राज्यपाल और राष्ट्रपति को संबोधित करते हुये दया याचिकायें दायर कीं.
उच्चतम न्यायालय ने 30 मार्च, 2001 को दायर पुनर्विचार याचिका 18 अप्रैल, 2001 को खारिज कर दी थी. राज्यपाल ने 9 महीने बाद 18 दिसंबर, 2001 को दया याचिका खारिज की थी. उप्र सरकार ने 22 जनवरी, 2002 को केन्द्र सरकार को सूचित किया था कि राज्यपाल ने याचिकाकर्ताओं की दया याचिका खारिज कर दी है लेकिन न तो याचिकाकर्ता और न ही उनके परिवार को दया याचिका अस्वीकार किये जाने की सूचना दी गयी.
हां, इसी दौरान 4 मई, 2001 को उत्तर प्रदेश सरकार ने वाराणसी जिले के सरकारी वकील को पत्र लिखकर निचली अदालत के फैसले की प्रति मांगी. इस पर 4 सितंबर, 2001 को जिला मजिस्ट्रेट, वाराणसी ने सूचित किया कि निचली अदालत के फैसले की प्रति प्राप्त करना संभव नहीं है क्योंकि सारे दस्तावेज उच्चतम न्यायालय में हैं.
यही नहीं, निचली अदालत का फैसला केन्द्र सरकार को भेजने में अत्यधिक विलंब हुआ और याचिकाकर्ता की दया याचिका की स्थिति के बारे में उप्र सरकार को सूचित करने में भी 12 महीने का विलंब हुआ था. इसी तरह उप्र जेल के प्राधिकारियों ने जब लंबित दया याचिकाओं के बारे में जानकारी मांगी तो इसे उपलब्ध कराने में भी करीब तीन साल का विलंब हुआ था.
इस मामले में राष्ट्रपति ने 8 फरवरी, 2013 को दया याचिकायें खारिज कर दी थीं. लेकिन याचिकाकर्ताओं को इसकी लिखित में नहीं, उन्हें इसके बारे में समाचार पत्रों की खबरों से ही जानकारी मिली थी. इस तरह, इस मामले में दया याचिका दायर होने और राष्ट्रपति द्वारा इसे अस्वीकार किये जाने की सूचना याचिकाकर्ताओं को देने में कुल 12 साल और दो महीने का विलंब हुआ था.
इस मामले में दोनों दोषियों की दया याचिकायें खारिज होने के बाद सूचनाओं को भेजने और उन्हें दोषियों तथा उनके परिवार को इसकी जानकारी देने में भी विलंब हुआ. इसका नतीजा यह हुआ कि नये सिरे से कानूनी लड़ाई शुरू हुई. इसी कानूनी लड़ाई का नतीजा था कि न्यायालय ने दोनों मुजरिमों की मौत की सजा उम्रकैद में तब्दील करते हुये ऐसे मुजरिमों के मामलों के निपटारे के लिये दिशा निर्देश प्रतिपादित किये थे.
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शत्रुघ्न चैहान प्रकरण में 21 जनवरी, 2014 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी, सदाशिवम, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति शिव कीर्ति सिंह की पीठ ने अपने फैसले में कहा थाः
-मौत की सजा पाने वाले दोषी की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकार किये जाने से पहले उसे एकांत कोठरी में रखना असंवैधानिक है और ऐसा नहीं किया जाना चाहिए.
-राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने के बाद भी दोषी मौत की सजा को बदलने या दया याचिका अस्वीकार किये जाने को चुनौती देने और हर कदम पर दोषी को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के लिये न्यायालय पहुंच सकता है.
-इसी तरह, राज्यपाल द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने की जानकारी राज्य सरकार को मिलने पर प्राधिकारियों के लिये एक समय सीमा में गृह मंत्रालय के पास भेजने के लिये पुलिस रिकार्ड, निचली अदालत, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय का फैसला तथा सारे अन्य संबंधित दस्तावेज तुरंत मंगाने चाहिए.
– राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने की जानकारी तुरंत ही दोषी और उसके परिवार को लिखित में दी जानी चाहिए.
-मौत की सजा पाने वाला दोषी को राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने की प्रति प्राप्त करने का अधिकार है.
-दया याचिका अस्वीकार किये जाने और मौत की सजा के फैसले पर अमल की तारीख के बीच कम से कम 14 दिन का अंतर होना चाहिए.
-इस दौरान ऐसे कैदी के मानसिक स्वास्थ्य की नियमित जांच होनी चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर उचित उपचार उपलब्ध कराना चाहिए.
-कैदी को दया याचिका या अदालतों में याचिका दायर करने में मदद के लिये जेल प्राधिकारियों को सभी संबंधित दस्तावेज उपलब्ध कराने चाहिए.
– मौत की सजा के आदेश पर अमल से पहले जेल प्राधिकारियों को ऐसे कैदी और उसके परिवार तथा मित्रों के बीच मुलाकात की व्यवस्था करनी चाहिए.
-फांसी दिये जाने के बाद दोषी के शव का अनिवार्य रूप से पोस्टमार्टम होना चाहिए.
यह देखना दिलचस्प होगा कि शीर्ष अदालत के 21 जनवरी, 2014 के फैसले में दिये गये निर्देशों के मद्देनजर निर्भया कांड में दोषी मुकेश कुमार सिंह की नई याचिका पर न्यायालय क्या रुख अपनाता है और क्या 2012 के इस जघन्य अपराध के मुजरिम फांसी के फंदे से बचने में सफल होंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)