“नरेंद्र मोदी एक कट्टर आतंकवादी हैं…अगर आप (अल्पसंख्यक) मोदी को वोट देते हैं, तो कई मुश्किलें खड़ी होंगी…यह मोदी आपको सलाखों के पीछे डालने के लिए तीन तलाक कानून लेकर आए…मैं पहला व्यक्ति था जिसने (2002 के गुजरात दंगों के बाद)…उनके इस्तीफे की मांग की थी. अधिकांश देशों ने उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रधानमंत्री बनने के बाद वे फिर से अल्पसंख्यकों पर हमला करने की कोशिश कर रहे हैं…” यह आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के शब्द थे, जिन्होंने 3 अप्रैल 2019 को चित्तूर में एक रैली को संबोधित किया था. यह लगभग एक साल बाद था जब टीडीपी ने राज्य को विशेष श्रेणी का दर्जा देने के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी से नाता तोड़ लिया था.
प्रधानमंत्री पर नायडू के असंयमित हमले के कुछ हफ्ते बाद उनके बहनोई, एन बालकृष्ण, एक टीडीपी विधायक, ने मोदी को “गद्दार” और “नमक हराम” कहा और कहा, “सिर्फ आंध्र ही नहीं पूरा भारत आपके खिलाफ है. अब समय आ गया है जब वे आपको मारेंगे और खदेड़ देंगे.”
बालकृष्ण वर्तमान आंध्र बीजेपी इकाई के अध्यक्ष डी पुरंदेश्वरी के भाई भी हैं.
सोचिए कि टीडीपी नेता प्रधानमंत्री मोदी पर किस स्तर का अपमान, बदनामी और निन्दा कर रहे थे! मैंने केवल दो उदाहरण दिए हैं, अभी तो ढेर सारे और भी हैं. 9 मार्च को बीजेपी ने आंध्र प्रदेश में टीडीपी और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी (जेएसपी) के साथ गठबंधन किया. प्रधानमंत्री की मजबूरी देखिए. रविवार को वे आंध्र में चंद्रबाबू नायडू और कल्याण के साथ रैली करते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी पर कोई हमला नहीं करते.
ऐसा क्यों है कि प्रधानमंत्री मोदी के अवमानना के बावजूद बीजेपी उस व्यक्ति का साथ देने के लिए इतनी मज़बूर है जिसे उसका दुश्मन होना चाहिए? दोस्त से दुश्मन तक-बीजेपी को वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के आंध्र के सीएम वाईएस जगन मोहन रेड्डी जैसे सहयोगी को क्यों छोड़ना पड़ा? सच है, जगन अपनी पार्टी के मुख्य वोटबैंक अल्पसंख्यकों को देखते हुए भाजपा के साथ गठबंधन के लिए सहमत नहीं हो सकते थे. भाजपा अब टीडीपी और जेएसपी के साथ गठबंधन में आंध्र की आधा दर्जन लोकसभा सीटों पर अपनी संभावनाएं तलाश रही है, लेकिन क्या बीजेपी के लिए पीएम मोदी के अपमान को भुलाने के लिए ये सीटें इतनी बड़ी बात हैं?
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चंद्रबाबू नायडू, एक विश्वसनीय सहयोगी?
एक समय संजय गांधी के सहयोगी रहे नायडू हमेशा बिना किसी वैचारिक उलझन के एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ रहे हैं. 1981 में वे टी अंजैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में सिनेमैटोग्राफी मंत्री थे. उस साल, उन्होंने मैटिनी आइडल एनटी रामा राव की बेटी, नारा भुवनेश्वरी से शादी की. आंध्र कांग्रेस प्रमुख प्रभाकर राव, जिनकी अनजैया से नहीं बनती थी, ने चित्तूर जिला परिषद चुनावों में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए नायडू और कांग्रेस के एक अन्य मंत्री सी दास को निलंबित कर दिया. अमर देवलपल्ली ने अपनी किताब The Deccan Powerplay: Reddy, Naidu and the Realpolitik of Andhra Pradesh में लिखा है कि एनटीआर ने राजीव गांधी के मित्र, सुपरस्टार अमिताभ बच्चन से “अपने दामाद को बचाने के लिए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डालने” की याचना की
इससे भी मदद मिली कि अंजैया ने आलाकमान से शिकायत की कि कैसे राज्य कांग्रेस प्रमुख ने उनसे यानी सीएम से पूछे बिना मंत्रियों को पार्टी से निलंबित कर सकते थे. 1982 में जब एनटीआर ने टीडीपी लॉन्च की, तो नायडू कांग्रेस में ही रहे. जनवरी 1983 के चुनावों में एनटीआर सत्ता में आए; नायडू चुनाव हार गए. “मुझे व्यक्तिगत रूप से जानने वाले एक अंदरूनी सूत्र के अनुसार, बमुश्किल दो हफ्ते बाद, 20 जनवरी 1983 को चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर को एक संदेश भेजकर…टीडीपी में शामिल होने के लिए कहा और समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ काम करने का वादा किया.” देवापल्ली ने लिखा है. लेखक राष्ट्रीय मीडिया मामलों पर वाईएसआरसीपी के नेतृत्व वाली आंध्र सरकार के सलाहकार हैं. इसलिए आप उसके दावों को एक चुटकी नमक के साथ ले सकते हैं. टीडीपी में शामिल होने के 12 साल बाद नायडू ने अपने ससुर को सत्ता से बेदखल कर दिया. 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को समर्थन देने से पहले वे संयुक्त मोर्चा के संयोजक थे. 2004 के चुनाव में हार के बाद उन्होंने यह कहते हुए एनडीए छोड़ दिया कि गठबंधन ने उनकी पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचाया था और अल्पसंख्यकों को अलग-थलग कर दिया था. 2014 में जब मोदी राष्ट्रीय राजनीतिक केंद्र में आए, तो टीडीपी एनडीए में शामिल होने वाली पहली क्षेत्रीय पार्टी थी. 2018 में पार्टी को दोबारा छोड़ने के बाद वे एक बार फिर से एनडीए में शामिल हो गए.
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नायडू को गले लगाने के लिए बीजेपी ने जगन को क्यों छोड़ा?
अगर नायडू इतने अविश्वसनीय सहयोगी हैं तो बीजेपी ने उन्हें गले क्यों लगाया? टीडीपी प्रमुख निश्चित रूप से हताश थे. जगन मोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली सरकार कथित घोटालों में उनके पीछे पड़ गई थी, इसलिए उन्हें एक सहयोगी की ज़रूरत थी. वे जानते हैं कि वे केवल भाजपा के समर्थन से ही चुनाव जीत सकते हैं — ऐसा 1999 और 2014 में हुआ था. 2004 के चुनावों में गठबंधन विफल रहा, लेकिन टीडीपी और भाजपा को तब दोहरी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ था. अविभाजित आंध्र में 1999 के लोकसभा चुनाव में टीडीपी ने 29 और भाजपा ने कुल 42 सीटों में से सात सीटें जीतीं. 2014 में तेलंगाना-रहित आंध्र में टीडीपी के साथ गठबंधन में और जेएसपी के समर्थन से भाजपा ने 7 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ 2 लोकसभा सीटें जीतीं; 2019 में यह घटकर एक प्रतिशत से भी कम हो गया. ज़ाहिर है, बीजेपी के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेले उतरने का मतलब आंध्र की चुनावी दौड़ से हटना होता.
क्या आंध्र में भाजपा जिन दो, तीन या चार लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर सकती है, क्या वे जगन जैसे दोस्त की कुर्बानी देने लायक है? शायद नहीं, लेकिन बात ये है कि अगर जगन हार गए तो क्या होगा? उस परिदृश्य के बारे में सोचिए. आंध्र में एक और शत्रुतापूर्ण विपक्ष के नेतृत्व वाली सरकार क्यों ? खासतौर पर तब जब टीडीपी और जेएसपी स्वेच्छा से लंबे समय के लिए अपनी कीमत पर भाजपा को अधिक राजनीतिक स्थान दे रहे हैं. अगर भाजपा के सहयोगी बुरी तरह विफल भी हो जाएं, तो क्या!
जगन कहीं नहीं जाएंगे. यह सिर्फ एजेंसियों के पास लंबित सभी मामलों के बारे में नहीं है. वे एक दशक से अधिक समय से आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत द्वारा दी गई ज़मानत पर हैं. उनके विरोधी इसे रद्द कराने के लिए उच्च अदालतों में गए हैं. जरा सोचिए उनकी मदद कौन कर सकता है.
गांधी परिवार से कड़वाहट के साथ अलग होने वाले जगन की बीजेपी एक स्वाभाविक सहयोगी है.
जगन को बीजेपी के फैसले पर आपत्ति क्यों नहीं होगी?
जगन इस बात से थोड़े निराश हो सकते हैं कि भाजपा उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के साथ चली गई है. पीएम मोदी के विपक्ष के साथ खड़े होने से केमिस्ट्री और अंकगणित दोनों ही लिहाज़ से उनके लिए मुश्किल खड़ी हो गई है. 2019 में वाईएसआरसीपी को लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में लगभग 50 प्रतिशत वोट मिले. अलग-अलग चुनाव लड़ते हुए टीडीपी को 40 प्रतिशत वोट मिले, जेएसपी को लगभग 6 प्रतिशत और बीजेपी को 1 प्रतिशत के करीब यानी कुल 47 प्रतिशत वोट मिले. बहुत करीब, है ना? विधानसभा चुनावों में भी इन तीनों पार्टियों का वोट शेयर लगभग 46 प्रतिशत था.
आइए उन आंकड़ों पर नज़र डालते हैं जब जगन के विरोधी एक साथ थे. 2014 में जब भाजपा और टीडीपी ने गठबंधन में चुनाव लड़ा और नवगठित जेएसपी ने उनका समर्थन किया, तो उनका कुल वोट लगभग 48 प्रतिशत था. टीडीपी और वाईएसआरसीपी को 41 और 46 फीसदी वोट मिले. टीडीपी को 15 लोकसभा सीटें और वाईएसआरसीपी को 8 सीटें मिलीं. विधानसभा चुनाव में वोट शेयर में शायद ही कोई अंतर था, दोनों पार्टियों को 45 प्रतिशत वोट मिले.
अब जब भाजपा, टीडीपी और जेएसपी आधिकारिक तौर पर एक साथ हैं, तो जगन को चिंता करने की ज़रूरत है. वाईएसआरसीपी के एक सांसद ने पिछले महीने मुझे बताया था, “आधिकारिक तौर पर आंध्र की आबादी में मुस्लिम और ईसाई बमुश्किल 11 प्रतिशत हैं. तथ्य यह है कि राज्य में कुल अल्पसंख्यक आबादी 20 प्रतिशत से अधिक है क्योंकि कई दलित जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है, वे इसे आधिकारिक तौर पर नहीं दिखाते हैं. अगर बीजेपी विपक्ष के साथ मिल जाती है, तो यह बड़ा हिस्सा पूरी तरह से हमारी पार्टी के पास आ जाएगा.” 2019 में सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव बाद सर्वे से पता चला कि आंध्र में मुसलमान टीडीपी और वाईएसआरसीपी के बीच लगभग समान रूप से विभाजित थे — क्रमशः 46 और 49 प्रतिशत.
इससे यह भी पता चला कि किसान, दलित और आदिवासी वाईएसआरसीपी के पक्ष में हैं. वाईएसआरसीपी के एक अन्य नेता ने मुझे बताया कि जगन ने उस ग्रामीण वोटबैंक को बरकरार रखा है जबकि मध्यम वर्ग असहज है. वाईएसआरसीपी के कई नेता भी मानते हैं कि कौशल विकास घोटाले में नायडू को गिरफ्तार करना एक “गलती” थी.
ज़ाहिर तौर पर, इससे टीडीपी कैडर उत्साहित हो गए और सत्ता विरोधी लहर बढ़ गई.
ऐसा लगता है कि जगन ने तेलंगाना में के.चंद्रशेखर राव से सबक सीखा है. केसीआर और जगन एक ही चीज़ के लिए जाने जाते हैं — आम लोगों से उनका कट जाना. उनके मुख्यमंत्री आवास एक ऐसा किला बन गए जिन्हें उनकी मंडली से बाहर के कुछ ही लोग तोड़ सकते थे.
लेकिन ऐसा लगता है कि यहीं पर जगन ने केसीआर से सबक सीखा है. तेलंगाना के सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने विधानसभा चुनाव से पहले मुझे बताया था कि लोग उनके कम से कम एक तिहाई विधायकों से नाराज़ हैं. केसीआर “अति आत्मविश्वासी” थे. उन्होंने विपक्ष को स्थापित नेताओं को “खरीदने” का मौका नहीं देने के चक्कर में विधायकों का टिकट नहीं काटा. जगन ने विधायकों और सांसदों के बारे में फीडबैक को अधिक गंभीरता से लिया उन्होंने करीब 50 प्रतिशत सांसदों का और 25 प्रतिशत विधायकों का टिकट काटा है. कल्याणकारी योजनाओं को ज़मीन पर लागू करने और उन्हें लागू करने के मामले में भी उनकी सरकार केसीआर से काफी बेहतर रही है.
मोदी-शाह के दोस्त से दुश्मन बन जाने से जगन निराश होंगे, लेकिन वे एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं. वे उम्मीद की किरण नहीं छोड़ेंगे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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