विभाजन के दो हफ्ते बाद, मरी के रिसॉर्ट शहर में एक औपनिवेशिक बंगले में बैठे कर्नल मुहम्मद अकबर खान — बर्मा में द्वितीय विश्व युद्ध के एक सम्मानित नायक और वजीरिस्तान में अपने ही पश्तून लोगों के खिलाफ 1937-1938 के जानलेवा अभियान के नायक — अपने नए राष्ट्र की किस्मत के बारे में सोच रहे थे. उन्होंने बाद में लिखा, “हमारी कृषि अर्थव्यवस्था विशेष रूप से कश्मीर से निकलने वाली नदियों पर निर्भर थी. मंगला हेडवर्क्स वास्तव में कश्मीर में थे और मारला हेडवर्क्स सीमा से एक मील या उससे भी कम दूरी पर थे. अगर कश्मीर भारतीय हाथों में होता तो हमारी स्थिति क्या होती?”
पिछले हफ्ते, जब भारत ने पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद प्रतिशोधी कदमों के तहत सिंधु जल संधि (IWT) को स्थगित कर दिया, तो विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने इसका जवाब दिया: “सिंधु हमारी है और हमारी ही रहेगी — या तो हमारा पानी इसमें बहेगा, या उनका खून.” हालांकि, कोई पानी नहीं रोका गया है और ऐसा होने का कोई खतरा भी नहीं है, लेकिन उनका वाद-विवाद उन भावनाओं को रेखांकित करता है जो आगे चलकर सामने आ सकती हैं.
लगभग यही शब्द लाहौर की सड़कों पर भी सुनाई दे रहे थे, जहां लश्कर-ए-तैयबा का एक कैडर जिहादी नेता हाफिज़ मुहम्मद सईद के पुराने भाषणों को बजाते हुए घूम रहा था. 2002 की गर्मियों में जब नई दिल्ली में संसद भवन पर आतंकवादी हमले के बाद लाखों भारतीय और पाकिस्तानी सैनिक आमने-सामने थे, तब भारत ने IWT को समाप्त करने पर विचार किया था. आतंकी कमांडर ने गरजते हुए कहा, “अगर आप हमारे पानी को रोकेंगे, तो हम आपकी सांस रोक देंगे और इन नदियों में खून बहेगा.”
भले ही ये शब्द कल्पना से थोड़े ज्यादा थे, लेकिन वह लश्कर के रैंक और फाइल को संबोधित करते थे, जो सूखे दक्षिणी पंजाब के भूमिहीन किसानों और क्षेत्र के निम्न-मध्यम वर्ग के व्यापारियों से आते हैं. सईद ने उनसे कहा, “हिंदू हमारा दुष्ट दुश्मन है और उससे निपटने का सही तरीका वही है जो हमारे पूर्वजों ने अपनाया था, जिन्होंने उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया था.”
करगिल युद्ध के बाद से ही यह संदेश अपनी ताकत खो रहा था — सईद के भाषण के समय भी — क्योंकि पाकिस्तान के मध्यम वर्ग ने देखा कि जिस भारत को बुरा-भला कहना सिखाया गया था, वह तेज़ी से समृद्ध और विश्वव्यापी होता जा रहा है. हालांकि, सिंधु जल संधि से हटने का फैसला अपने जनरलों और जिहादी छद्मों के पीछे एक राष्ट्र को फिर से एकजुट कर सकता है.
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जल हथियार
लगभग दस साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार सिंधु जल संधि से हटने पर विचार कर रही है, इसे युद्ध से कम खतरनाक हथियार के रूप में देख रही है. उरी में 12 ब्रिगेड मुख्यालय पर लश्कर-ए-तैयबा के हमले के बाद — जिसका जश्न आतंकवादी समूह ने गुजरांवाला में अपने मारे गए जिहादियों के पोस्टर लगाकर मनाया था — प्रधानमंत्री ने इस बात पर विचार करने के लिए एक उच्च स्तरीय बैठक की अध्यक्षता की कि क्या सिंधु जल नदी समझौता रद्द करना प्रतिशोध के रूप में काम कर सकता है. बैठक के बाद मोदी ने हाफिज़ सईद की ही बात दोहराते हुए कहा, “खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते.”
हालांकि, बैठक में सिंधु प्रणाली पर चल रही तीन जलविद्युत परियोजनाओं पर काम को गति देने का फैसला लिया गया, लेकिन पानी को दबाव के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की व्यावहारिक समस्याएं स्पष्ट थीं. जैसा कि शोधकर्ता और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हसन खान ने डॉन में एक लेख में बताया है, भारत के पास मई से सितंबर तक बर्फ पिघलने के दौरान इन नदियों में बहने वाले अरबों क्यूबिक मीटर पानी को रोकने के लिए बुनियादी ढांचा नहीं है.
हालांकि, अनुभव से, भारतीय योजनाकारों ने सीखा था कि उनके पास एक टूल है. अगस्त 2008 के अंत में, भारत पर आरोप लगाया गया था कि उसने नवनिर्मित बगलिहार बांध के जलाशय को भरने के लिए पाकिस्तान को पानी के प्रवाह को 20,000 क्यूबिक फीट प्रति सेकंड तक कम कर दिया था, जिससे पाकिस्तानी पंजाब में खेत सूख गए थे. तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के डिक्लासिफाइड डिप्लोमैटिक केबल से पता चलता है, ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से गुस्से में विरोध किया क्योंकि उन्हें पता था कि पानी की कमी ने उनके घरेलू राजनीतिक दुश्मनों को सशक्त बना दिया है.
इस्लामाबाद में अमेरिकी राजदूत ऐनी पैटरसन ने एक डिक्लासिफाइड केबल में कहा, “जैसे-जैसे पाकिस्तान में आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है, खाद्य सुरक्षा के लिए घरेलू कृषि उत्पादन ज़रूरी होता जा रहा है और नियंत्रण रेखा के पार पानी एक अधिक मांग वाली वस्तु बन जाएगा.” इस बीच, दक्षिणी पंजाब के अपने गढ़ के एक तूफानी दौरे पर, लश्कर प्रमुख ने दावा किया कि भारतीय “जल आतंकवाद” के कारण पंजाब भर में खेत धूल में बदल रहे हैं.
उसने कहा कि हिंदू भारत, पाकिस्तान की जल आपूर्ति को रोकने और उसकी कृषि को पंगु बनाने के लिए कश्मीर में बांध बना रहा है. उसने भविष्यवाणी की कि पाकिस्तान के लिए फैसले की घड़ी है: “पूर्व और पश्चिम के योद्धा मुसलमानों के खिलाफ एक सुसंगत हमले में एकजुट हो गए हैं”.
26/11 का नरसंहार — जैसा कि हम अब पाकिस्तानी-अमेरिकी आतंकवादी डेविड हेडली की गवाही से जानते हैं — उस भाषण के पांच हफ्ते बाद ही अंजाम दिया गया था. इस वक्त प्रशंसनीय परिकल्पना यह है कि जल मुद्दे पर जनता के गुस्से ने लश्कर को नरसंहार करने का बहाना दिया जो युद्ध को भड़का सकता था और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ कयानी को उनके पूर्ववर्ती द्वारा भारत के साथ शुरू की गई गुप्त शांति प्रक्रिया को बंद करने का एक कारण दिया.
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युद्ध की आहट
संभवतः इसी एहसास के कारण, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यकाल के दौरान आए संकटों के दौरान फिर से जल हथियार का इस्तेमाल नहीं किया — भले ही नई दिल्ली में कुछ विश्लेषक इस विचार को आगे बढ़ाते रहे. इसके बजाय, प्रधानमंत्री ने पारंपरिक बल का इस्तेमाल किया, 2016 में नियंत्रण रेखा के पार छापे और 2019 में हवाई हमले किए. 2016 के हमलों के बाद, कश्मीर के बाहर जिहादी हमले समाप्त हो गए. 2019 के हवाई हमलों के बाद, कश्मीर में हिंसा का स्तर कम हो गया, जिससे नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान-भारत युद्धविराम का नवीनीकरण हुआ.
इस बात पर बहस जारी है कि क्या जवाबी हमलों ने पाकिस्तान को रोका, या पश्चिमी वित्तीय प्रतिबंधों का खतरा वास्तव में महत्वपूर्ण था, लेकिन किसी भी तरह से, प्रधानमंत्री मोदी के उद्देश्य पूरे हुए. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद, पाकिस्तानी सेना ने अपने जिहादी प्रॉक्सी को नियंत्रण में रखा, जिससे हिंसा में लगातार कमी आई. चीन के साथ संकट के दौरान भारत द्वारा नियंत्रण रेखा से सैनिकों को वापस बुलाने के बाद भी शांति बनी रही.
फिर पहलगाम आया — और वही विकल्प फिर से उभरे जो 1947 के बाद से हर प्रधानमंत्री के सामने थे. क्या पाकिस्तान को उसके जिहादी छद्मों का इस्तेमाल करने से रोकने के लिए गतिज सैन्य साधनों का इस्तेमाल ज़रूरी था? अगर ऐसा था, तो एक पूर्ण पैमाने पर युद्ध में बढ़ने की क्या संभावना थी जिसमें आर्थिक लागत लाभ से ज़्यादा हो सकती थी? और क्या पाकिस्तान पर दबाव डालने के लिए युद्ध के अलावा कोई और रास्ता था?
बर्फीले सवाल
कानूनी तौर पर, सिंधु जल संधि को स्थगित करने का भारत का फैसला अनिश्चित आधार पर टिका हुआ है, लेकिन किसी न किसी स्तर पर, उसे या तो अपना फैसला वापस लेना होगा या निरस्तीकरण की दिशा में आगे बढ़ना होगा. फील्ड मार्शल अयूब खान और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का स्पष्ट रूप से यह इरादा नहीं था कि कोई भी देश सिंधु जल संधि से एकतरफा बाहर निकल जाए. ऐसी कोई भी धारा नहीं है जिसमें ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख हो जिसके तहत भारत या पाकिस्तान अपने आप इसे अस्वीकार कर सकते हैं. इसके बजाय, संधि में केवल इतना कहा गया है कि इसके प्रावधानों को संशोधित किया जा सकता है या “दोनों सरकारों के बीच उस उद्देश्य के लिए संपन्न एक विधिवत अनुसमर्थित संधि” द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है.
1969 के वियना संधि कानून पर संधियों की परिस्थितियों का उल्लेख करता है जिसमें स्पष्ट प्रावधान के बिना संधियों को अस्वीकार किया जा सकता है. अनुच्छेद 56 में जेल से बाहर निकलने के सिर्फ दो ही रास्ते बताए गए हैं: अगर यह “स्थापित हो जाए कि पक्षकार निंदा या वापसी की संभावना को स्वीकार करना चाहते हैं,” या अगर “संधि की प्रकृति से निंदा या वापसी का अधिकार निहित हो सकता है.”
कम से कम 1949 से अंतर्राष्ट्रीय कानून ने माना है कि बिना किसी सक्षम खंड के संधियों को अस्वीकार करने के लिए पक्षों की सहमति की ज़रूरत होती है. कानूनी विद्वान लॉरेंस हेल्फर इसे इस प्रकार कहते हैं, कानून “एक मौलिक सिद्धांत पर आधारित है: पैक्टा संट सर्वंडा यानी की संधियों का पालन किया जाना चाहिए.”
बेशक, अन्य शक्तियों की तरह, भारत भी अंतर्राष्ट्रीय कानून की अनदेखी करना चुन सकता है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा के बंदरगाहों पर बारूदी सुरंगें लगाईं और निकारागुआ के विद्रोहियों को हथियार दिए. चीन ने हाल ही में दक्षिण चीन सागर पर एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें समुद्र के कानून पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नियमों को खारिज कर दिया गया. इज़रायल ने गाज़ा, फिलिस्तीन में युद्ध के कानूनों की अनदेखी की है, जिसके कोई परिणाम नहीं हुए हैं.
फिर भी, दुनिया की राय मायने रखती है. उदाहरण के लिए 1999 में, कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिकी दबाव ने भारत की मदद की और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (FATF) प्रतिबंधों ने पाकिस्तान को अपने जिहादियों पर लगाम लगाने के लिए मजबूर करने में भूमिका निभाई.
स्पष्ट कारणों से, अगर भारत को जानबूझकर लाखों लोगों पर सूखा डालने वाला माना जाता है, तो अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करना मुश्किल होगा. बहुत कम देश — जिसमें भारत भी शामिल है — पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों के प्रवाह और राज्य प्राधिकरण के कमजोर होने का स्वागत करेंगे. अगर पाकिस्तानी राज्य को शत्रुतापूर्ण पड़ोसी द्वारा लगाए गए सूखे से अपने लोगों की रक्षा करने में असमर्थ माना जाता है, तो इसकी वैधता खत्म हो सकती है, जिसके खतरनाक परिणाम हो सकते हैं. इस्लामी समूह संभवतः इतने मजबूत हो सकते हैं कि वह दक्षिणी पंजाब के बड़े हिस्से पर शासन कर सकें.
इस तरह, भारत को कम नहीं बल्कि अधिक हिंसा का सामना करना पड़ सकता है — इस जोखिम के साथ कि जानबूझकर प्यास लगाने के प्रतिशोध में की गई हिंसा, स्पष्ट कारणों से, धर्म द्वारा प्रेरित हिंसा की तुलना में बहुत कम नैतिक अपमान लाएगी.
कुंठा खराब नीति बनाती है. भारत को अपने अगले कदमों पर बर्फ की तरह साफगोई की जरूरत है — क्रोध की गर्मी से रंगी हुई सोच की नहीं.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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