भारत को हमेशा से ही यह डर रहा है कि संविधान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आरएसएस से खतरा है. ऐसा शायद आज भी है. ऐसा इसलिए, क्योंकि माना जाता है कि उनकी जड़ें सनातन ब्राह्मण वाली धार्मिक व्यवस्था से है. आरएसएस के सिद्धांत को तैयार करने वाले और संस्थापकों ने संवैधानिक सभा, ड्राफ्टिंग कमेटी और उसके प्रमुख बीआर आम्बेडकर का बहिष्कार किया था. केबी हेडगेवार और एमएस गोलवलकर ने संविधान को गैर-भारतीय बताते हुए उसके खिलाफ बयान दिए थे और लेख लिखे थे. उनके विचार से संविधान में भारतीयता का मतलब, जातिगत व्यवस्था को बरकरार रखना था. यह वर्ण व्यवस्था को खत्म करने वाली सोच न थी जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को समानता की ओर ले जाती.
भारतीय कम्युनिस्टों ने भी संवैधानिक सभा का बहिष्कार किया था और लोकतांत्रिक संविधान के निर्माण का विरोध, उसे बुर्जुआ प्रयास बताते हुए किया था. लेकिन, सौभाग्य से वे भी असफल रहे और वर्तमान संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार ने 22 फरवरी, 2000 को जस्टिस एमएन वेंकटचेल्लइया के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था. पूरे संविधान की समीक्षा करने की जिम्मेदारी इस आयोग की थी, न कि उसके कुछ हिस्सों की. यह विचार बदलते हुए समाज के हिसाब से परिवर्तन करने से कुछ अलग ही था. लेकिन भारत के एक बड़े तबके ने इस विचार को एक सिरे से खारिज कर दिया. इसी के साथ, समीक्षा समिति की स्वाभाविक मौत हो गई.
जब साल 2014 में आरएसएस-भाजपा सत्ता में आई तो उन्होंने संविधान में बदलाव की बात न करते हुए, सिर्फ उन हिस्सों को निकालने की बात की जो संघ की व्यवस्था को स्वीकार करते हैं. हालांकि, ज्यादातर लोग इस खतरे की अनदेखी कर रहे हैं.
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केसीआर का नया संविधान
कुछ दिनों पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के अध्यक्ष और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने एक प्रेस कान्फ्रेंस में कहा था कि वे वर्तमान संविधान का विरोध करते हैं और इसको बदलने के लिए एक आंदोलन शुरू करेंगे. बजट के संबंध में 1 फरवरी 2022 को बोलते हुए उन्होंने मीडिया से जोर देकर कहा कि वे लिखें कि मैं भाजपा और कांग्रेस शासन के साथ ही, वर्तमान संविधान का भी विरोध करता हूं.
जब मीडिया के कुछ लोगों ने इसकी अनदेखी करनी चाही तो उन्होंने कहा कि वे इसे लेकर काफी गंभीर हैः पूरे संविधान में परिवर्तन होना चाहिए और हमें एक नए संविधान की जरूरत है. इस काम को हम दो तरह से कर सकते हैः या तो एक छोटे क्षेत्रीय दल के नेता के भारत जैसे देश के नए संविधान के विचार की अनदेखी कर दें या इसे आरएसएस को संतुष्ट करने के गंभीर प्रयास और मोदी के विरोध के रूप में देखें. आप इसे किसी भी रूप में देखें, लेकिन एक बात तय हैः एक राज्य के मुख्यमंत्री की यह बात सबको परेशान करती है, क्योंकि किसी अन्य मुख्यमंत्री ने इस तरह का प्रस्ताव कभी नहीं दिया है.
केसीआर के भीतर, खुद ही हिंदूवादी चिंतन के कई लक्षण हैं. वे बहुत ज्यादा धार्मिक हैं और यज्ञ, यज और कृतुस और मंदिरों पर खूब खर्च करते हैं. वे वैष्णव पीठाधिपति (वैष्णव मठ के प्रमुख) चिन्ना जीवर के कट्टर भक्त हैं. हालांकि, वे खुद वेलामा जमींदार (शूद्र के प्रभुत्व वाली जाति) परिवार से आते हैं. लेकिन, सिर्फ ब्राह्मणों के पैर छूते हैं, कभी-कभी तो सार्वजनिक तौर पर दंडवत प्रणाम भी करते हैं. उन्होंने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और तत्कालीन तेलंगाना के गवर्नर ईएसएल नरसिंहन दोनों के चरण, ब्राह्मण होने के कारण ही छुए थे.
यह काम उन्होंने सार्वजनिक तौर पर एयरपोर्ट, मंचों और दूसरे स्थानों पर किया था. हालांकि, उन्होंने कभी भी दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद या तेलंगाना की पिछड़ी जाति से आने वाले वर्तमान महिला गवर्नर के पैर नहीं छुए. वे लगभग 130 करोड़ रुपये की सरकारी पूंजी यदाद्रि मंदिर के जीर्णोद्धार पर खर्च कर रहे हैं. उनके व्यक्तित्व से जुड़ी ये बातें संविधान पर प्रश्नचिन्ह लगाने का काम कर रही हैं. वे अपने सामंती व्यवहार के लिए भी मशहूर हैं जिसकी झलक सार्वजनिक आयोजनों में देखने को मिलती है.
भारतीय संविधान का मतलब ऐसे नेताओं और व्यक्तियों में सुधार लाना है
ऐसा नहीं है कि केसीआर को ऐसी बातें निजी रूप से करने का अधिकार नहीं है. लेकिन, एक मुख्यमंत्री जिसने संविधान की शपथ ली हो उसे बदलने के लिए आंदोलन नहीं कर सकता. संविधान के निर्माताओं ने आजादी की लड़ाई में कई वर्ष जेल में गुजारे थे. वे सभी उस संविधान सभा का हिस्सा थे जिन्होंने देश की हर गंभीर समस्याओं पर बहस करके संविधान का निर्माण किया था.
अगर हर मुख्यमंत्री या मंत्री उसी संविधान को खत्म करने की बात करे जिसने उसे ताकत दी है, तो भारत में उथल-पुथल मच जाएगी. आने वाले समय में प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्री, संविधान को समाप्त करने की बहस में लग जाएं, जिसका निर्माण एक ऐतिहासिक घटना है. यह लोकतांत्रिक भारत के लिए खतरा है. वर्तमान युग के नेता, स्वतंत्रता सेनानियों और उनके बलिदानों के सामने कहीं नहीं टिकते.
आरएसएस के गणराज्य व्यवस्था का मुद्दा
जो आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अच्छे लोकतंत्र के लिए प्राचीन गणराज्य व्यवस्था का सुझाव दे डाला. यह एक नया मिथक है जो कथित राष्ट्रवादी प्रोपेगेंडा के तहत चलाया जा रहा है. अप्रत्यक्ष तौर पर इस औपनिवेशिक मॉडल वाले संविधान को लेकर टिप्पणी की जा रही है. गणराज्य वे छोटी-छोटी प्राचीन इकाइयां थीं जो स्थानीय स्तर पर कार्यरत थीं और समान अधिकार के सिद्धांत पर आधारित थीं. इसका श्रेष्ठ उदाहरण बुद्ध के जीवनकाल में वज्जि राज्य के गणतंत्र में देखा जा सकता है. इसने मगध राज्य के अधिग्रहण से सुरक्षा प्रदान की थी. इसकी तुलना किसी भी तरह से आधुनिक भारतीय संविधान से नहीं की जा सकती. (मैंने इसकी चर्चा पहले भी अपनी पुस्तक, गॉड ऐज पॉलिटिकल फिलास्फर बुद्धास चैलेंज टू ब्राह्मिनज्म में की थी).
हमारा संवैधानिक लोकतंत्र भारत और दुनिया में सबसे खूबसूरत प्रयोग है, जिसकी आबादी 1.3 बिलियन है. इसे नष्ट करने का कोई भी प्रयास खतरनाक हो सकता है. जिन लोक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ, दमित, शोषित जनता को मिल रहा है वह नष्ट हो जाएगा. जातिवादी, अछूत और जनजातीय व्यवस्था की वजह से भारत में साल 1950 से पहले सबको शिक्षा पाने का अधिकार नहीं था. संविधान के लागू होने के बाद शोषित समाजों को वह सुविधाएं मिलीं जो उन्हें कभी न मिली थीं. हम भाग्यशाली हैं कि आम्बेडकर ने संविधान को बनाया और दूसरे संस्थापकों ने उसे स्वीकार किया. छोटे, केसीआर जैसे सत्तालोलुप नेताओं या दूसरी हिंदूवादी ताकतों और विचारधारा वाले लोगों को संविधान से छेड़छाड़ करने की छूट नहीं दी जा सकती.
जीवन के एक पड़ाव पर, मैं खुद ही वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर संवैधानिक लोकतंत्र को नष्ट करने में लगा था. मैं भाग्यशाली रहा कि यह बात मुझे जल्द ही समझ में आ गई और मैंने जब 1990 की शुरुआत में ‘वाई आई एम नॉट हिन्दू’ लिखी, तो समझ में आया कि इस तरह के विचार कितने खतरनाक और राजनीतिक रूप से आत्मघाती हैं.
भारत को इस संविधान की हमेशा ही जरूरत रहेगी जैसा कि अमेरिकी संविधान कई सौ साल से लागू हो रहा है. मुझे खुशी है कि तेलंगाना में सभी जगह केसीआर के इस विचार का विरोध हो रहा है. साथ ही, विरोधी दल और सामाजिक संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं. उन्हें यह बात खुद भी अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि यह विचार उनके लिए भी आत्मघाती सिद्ध होगा.
(कांचा इलैया शेफर्ड एक राजनीतिक विचारक, सामाजिक एक्टिविस्ट और लेखक हैं. उनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं—‘व्हाइ आइ ऐम नॉट अ हिंदू : अ शूद्र क्रिटिक ऑफ हिंदुत्व फ़िलॉसफ़ी, कल्चर, ऐंड पॉलिटिकल इकोनॉमी’, और ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया : अ डिस्कोर्स इन दलित-बहुजन सोशियो-स्पीरिचुअल ऐंड साइंटिफिक रिवोलुशन’. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं)
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