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Tuesday, 26 November, 2024
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वंचितों-पिछड़ों के पक्ष में खड़े होने की कीमत चुकाते तेजस्वी यादव

प्रभावशाली जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने का जो जोख़िम मायावती या अखिलेश नहीं उठाते, वह जोख़िम ये युवा नेता उठा रहा है और उसकी कीमत भी चुका रहा है.

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पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार ने अन्य वैचारिक राजनीति की धार को काफी हद तक कुंद कर दिया है. इन्हीं में से एक है सामाजिक न्याय और सेक्युलरिज्म की विचारधारा. पिछले दिनों जब केंद्र सरकार ने सवर्ण आरक्षण से संबंधित बिल को संसद से पारित करवा लिया और इस बिल पर सपा और बसपा का भी समर्थन हासिल कर लिया तो यह सवाल फिर से उठा कि क्या अब सामाजिक न्याय की राजनीति हाशिये पर पहुंच गयी है? ये सवाल यूनिवर्सिटी रोस्टर के सवाल पर भी उठ रहा है, जिसके लागू होने से नियुक्तियों में आरक्षण व्यावहारिक रूप से खत्म हो जाएगा.

लेकिन इसी पेंच व खम के माहौल में सब की नजरें राष्ट्रीय जनता दल और उसके नेता, बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की तरफ गयीं. तेजस्वी और उनकी पार्टी ने अपनी पूरी ताकत से सवर्ण आरक्षण का विरोध दर्ज कर और यूनिवर्सिटी में आरक्षण के पक्ष में खड़े होकर साबित कर दिया कि वे ऐसे नेता के रूप में उभर रहे हैं जिन पर सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वालों की उम्मीदें बढ़ेंगी.

सामाजिक न्याय, आरक्षण, सेकुलरिज्म जैसे सवालों पर तेजस्वी यादव एक सीधी लाइन खींचते हैं और वंचितों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. ऐसी स्पष्टता न अखिलेश यादव में है और न ही मायावती में. कम से कम हाल के वर्षों में तो इन दोनों ने अपनी वैचारिक प्रखरता खोई है.

सुबह-शाम खुद को समाजवादी-लोहियावादी कहते नहीं थकने वाले अखिलेश यादव की पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी. सबने सवर्ण आरक्षण के मुद्दे पर एक स्वर में भाजपा को समर्थन की घोषणा कर दी. इस मामले में ‘समाजवादी’ अखिलेश यादव का अपना तर्क है कि वह सवर्णों के एक हिस्से की नाराजगी मोल लेने का जोख़िम नहीं उठा सकते. हालांकि समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव ने यूनिवर्सिटी रोस्टर विवाद में सरकार की आलोचना की ही और कानून बनाकर आरक्षण बचाने की मांग की है, लेकिन पार्टी ने अब तक इस मामले में चुप्पी साध रखी है.


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यही हाल उन मायावती का भी है जिनकी राजनीति ही सवर्णों की वर्चस्ववादी सियासत के विरोध में बहुजन भारत बनाने की कल्पना से शुरू हुई थी. बसपा भी रोस्टर विवाद पर पूरी तरह खामोश है. लेकिन इस मामले में तेजस्वी ने किसी जोख़िम, किसी चुनौती की परवाह नहीं की. उनकी पार्टी ने सवर्ण आरक्षण बिल का विरोध किया और रोस्टर विवाद में सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया.

इस मामले में राष्ट्रीय जनता दल लोहिया विचारधारा का बेहतर वारिस साबित हुआ है.

तेजस्वी कहते हैं- ‘बिना किसी दस्तावेजी सुबूत, बिना किसी सर्वे और प्रामाणिक रिकार्ड को आधार बनाये, किसी वर्ग को कैसे आरक्षण दिया जा सकता है. और वह भी तब जब आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति को बनाया गया है. जिसके तहत आरक्षण लेने के लिए आठ लाख रुपये आमदनी को आधार बनाया गया यानी प्रति माह अगर किसी व्यक्ति की आमदनी 66 हजार रुपये है तो वह आरक्षण की श्रेणी में आ सकता है.’

यूं तो संसद में राजद के अलावा एमआईएम और डीएमके ने भी इस बिल का विरोध किया. लेकिन अब राजद ने जिस तरह की तैयारियां शुरू कर दी हैं उससे साफ हो गया है कि वह इसे चुनावी मुद्दा भी बनाने वाला है. इसके लिए राजद ने आंदोलन की तैयारी शुरू कर दी है. तेज प्रताप यादव का कहना है कि ‘जेपी आंदोलन की तर्ज पर एलपी यानी लालू प्रसाद मूवमेंट के तहत इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया जायेगा.’

समझा जाता है कि लालू प्रसाद सवर्ण आरक्षण से बैकवर्ड क्लास को होने वाले संभावित नुकसान से पार्टी नेताओं को सचेत कर चुके हैं. पिछले दिनों उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा प्रोफेसरों समेत विभिन्न पदों की नियुक्ति के लिए निकाले गये विज्ञापन की कापी फेसबुक पर शेयर की. लालू ने लिखा कि ‘उच्च शिक्षा में एससी, एसटी, ओबीसी रिजर्वेशन खत्म होने और 13 प्वायंट रोस्टर लागू होने के बाद नौकरियों का पहला विज्ञापन आ गया है। इसमें एक भी पद एससी, एसटी, ओबीसी के लिए नहीं है. संविधान के साथ दिनदहाड़े छेड़छाड़ कर मनुवादियों ने चोर दरवाज़े से आरक्षण समाप्त कर दिया.’


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लालू प्रसाद आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण दिये जाने को, दरअसल दलितों-पिछड़ों के आरक्षण को समाप्त करने की शुरुआत मानते हैं. इसलिए वह जेल के अंदर से इसके खिलाफ दहाड़ लगाते हैं. लालू ने 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण विरोधी बयान को चुनावी मुद्दा बना डाला था. तब लालू प्रसाद चुनावी सभाओं में एमएस गोलवलकर की पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स लिये घूमते थे और वोटरों को बताते थे कि आरएसएस वाले पिछड़े-दलितों का आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं. वह चुनावी सभाओं में खुलेआम चुनौती देते थे कि ‘कोई माई का लाल आरक्षण खत्म करके दिखाये’.

विश्लेषकों का मानना है कि लालू प्रसाद के इस निर्णायक विरोध का ही नतीजा था कि उस चुनाव में राजद को भारी सफलता मिली और उनकी पार्टी ने अपने तत्कालीन गठबंधन सहयोगी जदयू से भी ज्यादा सीटें जीत लीं. जबकि राजद व जदयू ने बराबर सीटों पर गठबंधन करके चुनाव लड़ा था. आरजेडी आज भी बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है. लालू की इस राजनीतिक दृष्टि को तेजस्वी ने मजबूती से पकड़ा है. यही कारण है कि वह सवर्ण आरक्षण को चुनावी मुद्दा बनाने की तैयारी में हैं.

दलितों-पिछड़ों के आरक्षण को खत्म करने की उम्मीद पालने वाले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का विरोध करना और सवर्णों के गरीब लोगों को मिल चुके आरक्षण के खिलाफ मुखर आवाज उठाना दो बातें हैं. सवर्ण आरक्षण के खिलाफ आंदोलन करने का साफ मतलब हुआ कि सवर्ण वोटर की नाराजगी मोल लेना. जाहिर है कि राजद को भी इसका पता है. उसे यह भी पता है कि सवर्ण आरक्षण के खिलाफ मुखर होना दोधारी तलवार पर चलने जैसा है. ऐसे में राजद इस रास्ता पर क्यों चलना चाहता है?

तेजस्वी के करीबी और पार्टी के एक महत्वपूर्ण रणनीतिकार संजय यादव का कहना है कि ‘वोट के नफा-नुकसान से ज्यादा हमारे लिए विचारधारा महत्वपूर्ण है. इसलिए हम इसका विरोध जारी रखेंगे क्योंकि हमारा संविधान यह कहता है कि आरक्षण का आधार सामाजिक पिछड़ापन है, न कि गरीबी.’

तेजस्वी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल ने सवर्ण आरक्षण का खुला विरोध करने का जोखिम उठा कर एक बात जता दी है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई की धार को वह और मजबूत करना चाहते हैं. इस मामले को चुनावी मुद्दा बनाने का अंजाम जो भी हो पर यह तय हो चुका है कि तेजस्वी ने सामाजिक न्याय की लड़ाई में खुद को अखिलेश यादव सरीखे नेताओं के सामने एक नयी चुनौती की तरह पेश कर दी है.

तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय के ऐसे योद्धा साबित हुए हैं जो केंद्र सरकार और जांच एजेंसियों को नाराज करने का जोखिम लेकर भी विचारधारा पर अडिग हैं. यही बात अखिलेश यादव या मायावती के बारे में नहीं कही जा सकती.

(लेखक नौकरशाही डॉट कॉम के संपादक हैं.)

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