बिहार के मौजूदा विधानसभा चुनावों में प्रचार और मुद्दों के मामले में अभी तक तो यही दिख रहा है कि तेजस्वी यादव और महागठबंधन ने काफी बढ़त बना ली है. बेशक, महागठबंधन को अभी इस बढ़त को वोटों में बदलना बाकी है, लेकिन फिर भी नीतीश कुमार का इस तरह से पिछड़ते दिखना कुछ हैरत भी पैदा करता है.
मुद्दों की लड़ाई में नीतीश के पिछड़ते दिखने और युवा तेजस्वी के आगे दिखने के पीछे के कारणों का विश्लेषण करें, तो मोटे तौर पर केवल बेरोजगारी के मुद्दे ने ही तेजस्वी को बहुत ज्यादा बढ़त दिला दी है, और ये मुद्दा बिहार से भी आगे निकलकर पूरे देश की सियासत का रुख बदल सकता है.
रोजगार के मुद्दे ने बदल दी बिहार की चुनावी हवा
तेजस्वी यादव ने चुनाव अभियान की शुरुआत में ही जिस तरह से बेरोजगारी को मुद्दा बनाया, उससे नीतीश ही क्या, खुद भाजपा तक चकरा गई. केंद्र सरकार जिस तरह से निजीकरण करने और सरकारी नौकरियां खत्म करने, जबरन रिटायर करने की नीति पर चल रही थी, और पूरे देश में कोई तेज विरोध का स्वर न दिखाई देने के बीच, तेजस्वी ने बेरोजगारी को न केवल मुद्दा बनाया बल्कि साफ-साफ कह भी दिया कि वे दस लाख तो केवल सरकारी नौकरियां ही देंगे, और बाकी रोजगार जो होंगे, वो अलग.
रोजगार के मामले में इतनी स्पष्टता से दावा देश की राजनीति में अभी तक किसी ने नहीं किया था. साल में करोड़-दो करोड़ रोजगार देने के वादे तो अटल बिहारी वाजपेयी के दौर से ही किए जाते रहे लेकिन उनमें इतनी स्पष्टता कभी नहीं रहती थी कि ये रोजगार सरकारी होंगे या निजी क्षेत्र के या स्वरोजगारों की बात की जा रही है.
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इसी अस्पष्टता का फायदा उठाकर बाद में कह दिया जाता था कि रोजगार पैदा करने की बात थी, सरकारी नौकरियां देने की बात नहीं थी. संगठित, असंगठित क्षेत्र में निजी क्षेत्र के रोजगारों और स्वरोजगारों के आंकड़े भी इस कदर स्पष्ट नहीं होते कि उन दावों की भी परख की जा सके.
बिहार में सरकारी नौकरियों का आकर्षण सबसे ज्यादा है
केंद्र द्वारा सरकारी कंपनियो को लगातार बेचे जाने, निजीकरण करने और सेवारत कर्मचारियों को अक्षमता के नाम पर निकालने, लेटरल एंट्री से मनचाहे लोगों को डिप्टी सेक्रेटरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी बनाने के फैसलों का देश में कोई कड़ा विरोध देखने में नहीं आया. इस मुद्दे पर देशव्यापी आंदोलन हो सकता था, लेकिन ऐसा कुछ न होने से केंद्र की भाजपा नीत सरकार लगातार इस पर आगे बढ़ती गई.
भाजपा को ऐसा लगने लगा कि देश की जनता सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ है, और इसलिए सब उसका साथ देंगे, लेकिन इस सबके बीच वह यह नहीं भांप पाई कि अगर कोई आंदोलन या धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ तो इसका कारण कोरोना और लॉकडाउन का असर ही था और इस खामोशी को भाजपा अपना समर्थन मान बैठी.
उम्मीद से ज्यादा मिला समर्थन तो उत्साहित हुए तेजस्वी
हालांकि चुनाव अभियान की शुरुआत में जब तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया था, तब उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी कि ये अकेला मुद्दा ही गेम चेंजर साबित हो सकता है, लेकिन बाद में जिस तरह से उन्हें इस मसले पर सभी समुदायों का समर्थन मिला, उससे निश्चित ही वे बेहद उत्साहित हुए हैं.
यही कारण रहा कि तेजस्वी ने फिर हर जनसभा और साक्षात्कार में 10 लाख सरकारी नौकरियों के वादे को बार-बार दोहराकर जन-जन तक पहुंचा दिया. इस जन समर्थन को देखते ही तेजस्वी ने अपने वादे में बेरोजगारों को नौकरी नहीं तो बेरोजगारी भत्ते को भी शामिल कर लिया, और नौकरियों के लिए परीक्षा शुल्क में छूट का वादा भी कर लिया.
भाजपा और नीतीश नहीं समझ पाए मुद्दे को
जब तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया तो भाजपा और जेडीयू ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि चुनावी वादों को जनता बहुत गंभीरता से नहीं लेती रही है. स्थिति यहां तक रही कि नीतीश कुमार और भाजपा नेताओं ने तेजस्वी के वादे का मजाक तक उड़ाना शुरू कर दिया कि इतनी नौकरियों के लिए धन कहां से आएगा.
एनडीए कहना चाह रहा था कि ये दस लाख सरकारी नौकरियों का वादा अविश्वसनीय और अतिरंजना से भरपूर है और एक अनुभवहीन नेता के रूप में तेजस्वी को सरकारी खर्च के बारे में जानकारी ही नहीं है.
उधर, तेजस्वी ने अपने वादे में और ज्यादा स्पष्टता लाने का सिलसिला जारी रखा. उन्होंने यह भी कह दिया कि पहली ही कैबिनेट मीटिंग में 10 लाख सरकारी नौकरियों का वादा पूरा किया जाएगा. इससे उनके वादे को आम चुनावी वादों से अलग विश्वसनीयता मिली.
इसके बाद तो स्थिति ये हो गई कि बिहार सरकार के कई मंत्रियों को जनता ने प्रचार और सभाओं के दौरान ही हूट करना शुरू कर दिया. केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय तक को हूट किया गया और यूपी से स्टार प्रचारक के रूप में गए योगी आदित्यनाथ को भी सुनने में जनता ने दिलचस्पी नहीं ली.
भाजपा को भी आना पड़ा बेरोजगारी के मुद्दे पर
एनडीए ने तो पहले 10 लाख सरकारी नौकरियों के मुद्दे को हवा में उड़ान की कोशिश की, और सफलता न मिलने पर, निर्मला सीतारमण से बिहारियों को फ्री वैक्सीन का लालच दिखाया और तब भी बात नहीं बनी तो फिर उसे खुद ही 19 लाख नौकरियां देने का वादा करना पड़ा.
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भाजपा के 19 लाख नौकरियों या रोजगार के वादे में भी दम था, लेकिन इसका असर नहीं हुआ क्योंकि केंद्र सरकार की नीतियां नौकरियां देने नहीं,खत्म करने वाली साफ दिख रही हैं. दूसरा, बिहार में 2015 से 2017 तक की अवधि छोड़ दें तो तकरीबन 15 साल से भाजपा-जेडीयू की ही सरकार है.
भाजपा के भी 19 लाख नौकरियां देने का वादा करने से, एनडीए को तो फायदा नहीं हुआ, बल्कि तेजस्वी यादव के वादे की विश्वसनीयता बढ़ गई. जनता के बीच में यह धारणा पुष्ट हो गई कि जब एनडीए 19 लाख नौकरियां देने का वादा कर सकता है तो तेजस्वी 10 लाख नौकरियां तो दे ही सकते हैं और इसमें धन या संसाधनों की कमी आड़े नहीं आएगी.
प्रधानमंत्री मोदी भी नहीं बदल पाए बिहार की हवा
भाजपा और नीतीश कुमार को उम्मीद रही होगी कि अभी प्रचार में जितना भी तेजस्वी आगे दिख रहे हों, लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी की बिहार में जनसभाएं होंगी तो सारा माहौल एनडी के पक्ष में हो जाएगा.
हालांकि प्रधानमंत्री की 23 अक्टूबर की गया, सासाराम और भागलपुर की सभाएं चुनावी हवा बदलने में कामयाब नहीं दिखीं. खुद नरेंद्र मोदी भी बेरोजगारी के मुद्दे का जवाब देने के बजाय, पंद्रह साल पुराने लालू-राज में कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति को याद दिलाकर वोट मांगते दिखे.
देशव्यापी बन सकता है बेरोजगारी का मुद्दा
बिहार में चुनावों में तो बेरोजगारी अहम मुद्दा बन ही चुका है, लेकिन अब ऐसा भी लग रहा है कि अगर परिणाम भाजपा के खिलाफ गए तो ये मुद्दा विकराल रूप लेकर अन्य राज्यों और पूरे देश में भी फैल सकता है.
बिहार के बाद पश्चिम बंगाल में भी चुनाव होने हैं, जहां भाजपा हर हाल में अपना परचम लहराना चाहती है, लेकिन अगर रोजगार और निजीकरण के मुद्दे पर आक्रोश गैरभाजपा दलों ने सही तरह से भुनाना सीख लिया तो निश्चित ही भाजपा के विजय रथ पर रोक लगेगी. ऐसी स्थिति में केंद्र में मजबूती से जमी, और अन्य राज्यों में किसी न किसी तरह से फैलती जा रही भाजपा के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति हो सकती है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)