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Thursday, 21 November, 2024
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बिहार में तेजस्वी की हार तो तय ही थी और उन्हें हार ही मिली

दो महीने का चुनाव प्रचार जमीनी स्तर पर तेजस्वी यादव के लगातार नदारद रहने की भरपाई नहीं कर पाया.

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बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों ने तेजस्वी यादव को लेकर किए जा रहे तमाम दावों की हवा निकाल दी है. यदि आप उनके राष्ट्रीय जनता दल के इन दावों को सही मान लें कि कुछ सीटें मतगणना में गड़बड़ी या धांधली के कारण जीती नहीं जा सकीं या फिर यहां तक मान लें कि बेहद कम अंतर से हार वाली सीटें ‘वोटकटवा प्रत्याशियों’ के कारण हाथ से फिसल गईं, तब भी एक बात तो साफ है कि चुनाव में नीतीश के खिलाफ माहौल था लेकिन तेजस्वी-समर्थक कोई लहर नहीं थी.

सीधे शब्दों में कहें तो तेजस्वी यादव राज्य में नीतीश कुमार के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता-विरोधी लहर को भुनाने में नाकाम रहे.

प्रचार के दौरान राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के एक वरिष्ठ नेता ने मुझसे कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस 20 सीटें जीतेगी. उनके आकलन के मुताबिक वामपंथी, 10-12 सीटें जीतेंगे. उन्हें उम्मीद थी कि राजद 90 सीटें जीतने में सफल होगी. इस तरह उन्हें 122 का आंकड़ा छू लेने का भरोसा था.

नतीजे हमें दिखाते हैं कि कांग्रेस ने अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन किया और वामदल उम्मीद से ज्यादा सीटें ले आए लेकिन राजद का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा.

तब, कांग्रेस को चुनाव लड़ने के लिए 70 सीटें क्यों दी गईं? दरअसल, कांग्रेस केवल 45 सीटों पर ही लड़ रही थी. बाकी 25 सीटों को तो महागठबंधन के सभी घटक पहले से ही हारी जा चुकी मान रहे थे. इनमें से कई भाजपा के गढ़ थे. कांग्रेस ने सोचा कि आगे आने वाले समय में पार्टी के विस्तार को ध्यान में रखते हुए उसे अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए. कांग्रेस का तर्क हमेशा यही रहता है कि अगला चुनाव जीतना है न कि मौजूदा. राजद के एक नेता ने मुझे बताया कि कांग्रेस ने ये सभी 25 सीटें लेकर राजद को धोखे में रखा और फिर बेहद खराब तरीके से उम्मीदवारों का चयन किया.

लेकिन राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को यह पता था और उसने कांग्रेस की स्थिति को भांप करके ही आकलन किया था. वह राजद ही है जिसने उम्मीद से 15 कम सीटें जीतीं. महागठबंधन के नुकसान की जिम्मेदारी अंततः उस वरिष्ठ साथी को लेनी होगी, जिसने महागठबंधन का नेतृत्व किया, यानी राजद और उसका चेहरा तेजस्वी यादव.

2015 के विधानसभा चुनाव में राजद जिन 100 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 80 पर जीता था, जब उसका नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन था. इस बार यह 144 में से 75 सीटों पर जीता. राजद ने वास्तव में कम संख्या में सीटें हासिल करने के साथ अपना स्ट्राइक रेट भी बिगाड़ लिया है. आंकड़े झूठ नहीं बोलते—कोई तेजस्वी लहर नहीं थी.

जदयू तमाम सीटों पर बेहद कम अंतर से हारी क्योंकि लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने उसके वोट काटे. ऐसे में यह मान लेना कि लोजपा खेल न बिगाड़ती तो जदयू का प्रदर्शन और भी बेहतर होता, एक बार फिर साबित करता है कि तेजस्वी लहर का नितांत अभाव था.

हां, जातीय समीकरणों को काफी हद तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पक्ष में भुनाया गया. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने राजद के सत्ता में आने से जंगलराज 2.0 की परिकल्पना को लेकर लोगों को डरा दिया. यह सब तो पहले से ही पता था. तेजस्वी तब भी यह चुनाव जीत सकते थे.


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लगातार मेहनत करने वालों को सफलता मिलती है

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले तीन दलों भाजपा, भाकपा (माले) एआईएमआईएम में एक ही समानता है, चुनाव हो या न हो ये सभी पार्टियां पूरे पांच साल जमीनी स्तर पर कड़ी मेहनत करने में भरोसा रखती हैं.

हैदराबाद के सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलीमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कई सालों की मेहनत से सीमांचल में मुस्लिम वोट तैयार किया है. जब नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को लेकर आंदोलन चल रहा था, तब उनकी पार्टी लोगों के बीच सक्रिय थी. राजद नेतृत्व ने चुप्पी साध रखी थी. प्रियंका गांधी जब अयोध्या में राम मंदिर का समर्थन कर रही थीं, तब ओवैसी की पार्टी सीमांचल में मुसलमानों को इसके बारे में बता रही थी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन या भाकपा (माले) दशकों से बिहार के कुछ हिस्सों में गरीबों के लिए काम करने में लगी है. जीत हो या हार, वे बिहार के लोगों के दैनिक जीवन के संघर्षों का हिस्सा हैं. वे बड़ी जीत हासिल करने में सक्षम नहीं लेकिन गठबंधन में जगह मिले तो वे शानदार नतीजे लाकर दिखाते हैं.

इसी तरह, भाजपा कैडर पार्टी के संदेश फैलाने के लिए साल भर काम करता है. इसलिए, इसे मेहनत का फल मिलता है. भाजपा अपने अभियान को हर एक मतदाता तक पहुंचाने के लिए इतनी उत्साहित होती है कि बिहार में पार्टी कार्यकर्ता अपने स्मार्टफोन का इस्तेमाल ऐसे लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण लाइव सुनाने के लिए कर रहे थे जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है.

इन दलों का नेतृत्व अक्सर जमीनी स्तर पर सक्रिय और चुनाव प्रचार करता दिखाई देता है. वे नीतीश कुमार की तरह हफ्तों तक अपने बंगलों में ही बने रहने के लिए नहीं जाने जाते थे. और वह तेजस्वी यादव की तरह दिल्ली या किसी अन्य जगह जाकर हफ्तों गायब भी नहीं रहते. नतीजा, जदयू और राजद दोनों ने अपने तौर-तरीकों के कारण खराब प्रदर्शन किया.

जदयू पहली बार बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन में छोटा भाई बन गया है. जदयू के वोट कटने के चिराग पासवान की लोजपा को दोष देना आसान होगा. लेकिन यह ऐसा केवल इसलिए कर सकी क्योंकि नीतीश कुमार बेहद अलोकप्रिय हो गए थे. और उनकी पार्टी जमीनी स्तर पर सबसे कमजोर है. चाहे बाढ़ हो या कोविड या आर्थिक संकट नीतीश कुमार एक ऐसे नेता बन गए जिन्होंने लोगों के बीच जाने के बजाये अपने बंगले में ज्यादा समय बिताया. इससे वह घमंडी और मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहने वाले के रूप में सामने आए.

यह तो समझ आता है कि 15 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद नीतीश कुमार अहंकारी हो सकते हैं. लेकिन 31 वर्षीय तेजस्वी यादव ने ऐसा कैसे सोच लिया कि वह दो महीने से भी कम समय तक प्रचार करके वह राज्य को जीत सकते हैं? एक दिन में 19 रैलियां कोई मायने नहीं रखतीं जब आप उस समय लोगों के साथ खड़े न हों जब वे बाढ़ की आपदा झेल रहे हों.

भावनाएं भुनाने का समय था

नीतीश कुमार के खिलाफ इतना गुस्सा था जिसे इस बिहार चुनाव में भुनाया जा सकता था. चिराग पासवान के साथ एनडीए के गठबंधन में कुछ दिक्कतें थीं, जिससे बहुत भ्रम की स्थिति थी. जनभावना सामान्य तौर पर नीतीश कुमार को हटाने के पक्ष में थी. लोगों के यह कहने कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, को छोड़ दें तो यही भावना सर्वेक्षणों में सामने आ रही थी.

तेजस्वी यादव को वह विकल्प बनना चाहिए था. उन्हें ‘नीतीश हटाओ’ की भावना को भुनाकर इसे ‘तेजस्वी लाओ’ की बयार में बदलना चाहिए था. द इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार के तौर पर वंदिता मिश्रा ने बिहार के जमीनी हालात पर गहन विश्लेषण किया, ‘यादव समेत सभी जातियों के बीच नीतीश विरोधी भावना को देखा-सुना जा सकता है लेकिन यह पूरे जोर-शोर से तेजस्वी के समर्थन में बदलती नहीं दिखती है.

राजद नेता तो शायद इतने भर से बिहार का चुनाव जीत जाते अगर वह दिल्ली से पटना लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के साथ घर चल दिए होते और नतीजे और शानदार हो जाते अगर कहीं मोदी सरकार उन्हें रोकने की गलती कर देती. लेकिन ऐसा कुछ करने के बजाये उन्होंने दिल्ली में घर पर रहना बेहतर समझा.

तेजस्वी यादव इस चुनाव में एकतरफा जीत हासिल कर सकते थे बशर्ते वह इन कुछ महीनों में बिहार के लोगों के बीच होते और उनके दुख, गुस्से और पीड़ा को साझा कर रहे होते. यह किसी भी विपक्षी नेता के लिए एक आदर्श चुनाव था. किसी भी चैलेंजर को अलोकप्रिय व्यवस्था के अलावा क्या चाहिए होता है? यह चुनाव खुद को साबित करने का अच्छा मौका था लेकिन तेजस्वी यादव ऐसे छात्र के रूप में सामने आए, जो सोचता है कि सिर्फ दो महीने पढ़कर परीक्षा पास कर सकता है.

हां, शुरुआत उन्होंने काफी अच्छी की थी. चुनावी पिच पर उनका आगाज एकदम ठीक था. उन्होंने अगर एक गलती की तो नीतीश कुमार और एनडीए ने और तमाम गलतियां की. उनका संदेश एकदम स्पष्ट था. उन्होंने जातीय समीकरण से इतर युवाओं की अपेक्षाओं पर फोकस किया. उन्होंने सबसे बड़े मुद्दे-बेरोजगारी-को पूरे जोरशोर से उठाया और लोगों में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया भी हुई. उनके अभियान को लिबरल टिप्पणीकारों और विपक्षी समर्थकों की तरफ से भी सिर्फ इसलिए सराहना मिली क्योंकि वह राहुल गांधी नहीं थे. अगर तेजस्वी की जगह पर राहुल गांधी होते तो वह रोजगार के वादे जैसे सकारात्मक प्रचार अभियान के बजाये सृजन घोटाले के लिए भ्रष्टाचार को लेकर नीतीश कुमार पर हमला करते.

राहुल गांधी न बनें

राहुल गांधी से बेहतर दिखना भर ही कोई बेहतर मानक नहीं है. केवल यही काफी नहीं है कि तेजस्वी यादव जानते हैं कि क्या बोलना है और कैसे बोलना है. वह एक बात में एकदम राहुल गांधी के नक्शेकदम पर हैं, वह 24x7x365 राजनेता नहीं हैं. इस चुनाव में तेजस्वी लहर होनी चाहिए थी. और यह हो सकती थी अगर उन्होंने थोड़ा पहले शुरुआत की होती.

हम चुनाव-दर-चुनाव इसे देखते भी आ रहे हैं. वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में दो साल की लंबी यात्रा के साथ अजेय चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ जीत हासिल की. हेमंत सोरेन ने झारखंड में दिसंबर में चुनाव जीतने के लिए अगस्त 2019 में ही ‘बदलाव यात्रा’ शुरू कर दी थी. नई दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का अभियान कम से कम छह महीने पहले शुरू हुआ था. इसमें कम से कम छह महीने तो लगते ही हैं.

एक अन्य नेता जो इसी गलती को दोहरा रहे हैं, वह हैं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव. हम स्थायी चुनाव प्रचार के युग में जी रहे हैं. यदि आप हर दिन मतदाता के दिमाग पर अपनी छाप नहीं छोड़ेंगे तो कभी भी भाजपा जैसे सशक्त प्रतिद्वंद्वी को हराने में सक्षम नहीं हो पाएंगे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर है. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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