जुलाई महीने की शुरुआत से ही यूनाइटेड किंगडम (यूके) में एक पाकिस्तानी व्यक्ति का इंतजार हो रहा है. भले ही इस दौरे के कार्यक्रम को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है लेकिन लंदन और रावलपिंडी दोनों ही अफगानिस्तान में मौजूदा स्थिति के बारे में आपस में मिल-बैठकर बात करने के लिए बेताब हैं.
पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा, जो लंदन की आधिकारिक/व्यक्तिगत यात्रा की योजना बना रहे हैं, इस शहर में वो पसंदीदा शख्स भी हैं. यहां वाशिंगटन की तुलना में उनकी बातों को ध्यान से सुनने और चीजों में बदलाव लाने के उनके इरादे और काबिलियत में यकीन करने वाले भी काफी अधिक संख्या में हैं. और फिर उनके पास अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के अंतिम दिनों में चर्चा करने के लिए बहुत कुछ और भी है.
लंदन में बैठे सूत्रों का मानना है कि ब्रिटेन के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल निकोलस कार्टर के द्वारा इस्लामाबाद के लगातार दौरे के बावजूद, ऐसे कई सारे मुद्दे हैं जिन पर जनरल बाजवा चर्चा करना चाहते हैं और वह कई अन्य लोगों से भी मिलना चाहते हैं. अफगानिस्तान के संदर्भ में, ब्रिटेन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि जो बाइडन प्रशासन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और जनरल बाजवा और दोनों के लिए बातचीत के लिए कोई खास भाव नहीं दे रहा है.
शुरुआत में ब्रिटेन ने पाकिस्तान की विदेश नीति को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद के सालों में खासकर 1980 के दशक के बाद से वाशिंगटन इस मामले में उससे काफी आगे निकल गया. पर अब ब्रिटेन फिर से इस्लामाबाद में सबसे अधिक महत्व वाला ‘खिलाड़ी’ बन गया है.
इस सबसे हमें 1954 में हुई उस खास बातचीत के वाकये की याद आती है, जब पंजाब के एक प्रमुख राजनेता मलिक खिजर हयात तिवाना ने तत्कालीन-ब्रिटिश उच्चायुक्त गेराल्ड लैथवेट को यह समझाने की कोशिश की थी कि अंग्रेजों की तुलना में पाकिस्तान में अमेरिकी प्रभाव की तुलनात्मक रूप से कितनी बढ़ोतरी हुई है. उस वक्त तिवाना का कहना था, ‘अमेरिकियों को अब वह साख विरासत में मिल रही है जिसपर दरअसल ब्रिटेन का अधिकार है … मेरे हमवतन अंग्रेजों को देखना ज़्यादा पसंद करते हैं लेकिन उनका कहना है ‘अगर मेरे पास अपना सगा भाई है पर वह मेरी मदद नहीं कर सकता, तो मेरे लिए चचेरा भाई भी है.‘
ऐसा लगता है कि पिछले छह दशकों से भी अधिक समय में, ‘चचेरा भाई’ ही असली भाई बन गया है और सगे भाई को अब अपने ही भाई के साथ ‘बातचीत करने की ज़रूरत है. यही अमेरिका द्वारा यूके का स्थान ले लेने की असल अहमियत है.
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पाकिस्तान का गलत विश्वास
ब्रिटेन के साथ यह अनौपचारिक बातचीत कई कारणों से ज़रूरी है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण कारण है पाकिस्तान के लिए तत्काल पैसा जुटाने की ज़रूरत. अब चाहे भले ही वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज़ के रूप में ही क्यों न हो और इसके लिए वाशिंगटन के साथ बेहतर संबंधों की दरकार है. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण मसला यह है कि पाकिस्तान के रणनीतिक चिंतकों का मानना यह है कि वे (यूके) दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय प्रभाव के लिए अमेरिका-चीन के बीच लगी दौड़ की रफ्तार को धीमा करने में मदद कर सकते हैं.
आखिरकार इस्लामाबाद के लिए पहले शीत युद्ध से सीखा गया ज़रूरी ‘सबक’ यह है कि वह बीजिंग और वाशिंगटन दोनों के साथ रिश्ते बनाए रख सकता है. जैसा कि इतिहासकार इयान टैलबोट ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश डिप्लोमेसी इन पाकिस्तान ‘ में इशारा किया है, उस समय के अमेरिकी राजनयिक इस बात से चिंतित थे कि पाकिस्तान किसके पाले मे जाएगा.
उदाहरण के लिए, 1963 में पूर्वी एशियाई और प्रशांत मामलों के तत्कालीन सहायक विदेश मंत्री विलियम एवरेल हरिमन ने पाकिस्तान के बारे में चुटकी लेते हुए यह कहा था कि वह वाशिंगटन को ब्लैकमेल करने के लिए पुर्तगाल की तरह पेश आने लगा है और उसकी धमकी है कि अगर अमेरिका ने उसे हथियार नहीं दिए या भारत को समर्थन देना कम नहीं किया तो वह चीनी/कम्युनिस्ट गुट में शामिल हो जायगा.
ऐसा लगता है कि इस्लामाबाद अभी भी उसी पुरानी रणनीति पर कायम है, जिसका इरादा अमेरिका को पाकिस्तान की मदद जारी रखने- उसकी नज़र में यही एक कामकाजी रिश्ते का सबसे बड़ा संकेत है और इसे दोनों शक्तिशाली देशों के साथ रिश्ते बनाए रखने की रजामंदी के लिए तैयार करना है.
लेकिन इस तरह के विचार में दो कमियां हैं. सबसे पहले तो सोवियत-अमेरिकी शीत युद्ध के दौरान बीजिंग और वाशिंगटन के बीच तालमेल कुछ हद तक संभव था. पर इसके उलट यूएस-चीन के बीच के मौजूदा मुकाबले में उस तरह की तिकड़मबाजी के लिए बहुत कम जगह है, जिसकी उम्मीद पाकिस्तान कर रहा है. दूसरा मसला यह है कि वाशिंगटन के पास अब पाकिस्तान की बातें सुनने के लिए काफी कम इच्छा बची है.
कोविड-19 महामारी ने पाकिस्तान में और अधिक ‘निवेश’ करने की उसकी इच्छा को काफी कम कर दिया है. हालांकि वाशिंगटन अब भी उससे जुड़ा रहेगा लेकिन एक रणनीतिक साझेदार के रूप में नहीं. पाकिस्तान की सीमित क्षमता और देश में मौजूद संरचनात्मक और ढांचागत कमियों को दूर करने के लिए ज़रूरी फैसलों के साथ जुड़ी कई समस्याओं को देखते हुए अमेरिका एक नया भू-आर्थिक केंद्र बनने के पाकिस्तान के नए रोडमैप के प्रति बहुत अधिक उत्सुक नहीं होगा.
पाकिस्तान के दिमाग में काबुल में एक दोस्ताना रुख रखने वाली सरकार को बढ़ावा देकर अफगानिस्तान की राजनीति पर अपना दबदबा बनाए रखना उसकी उस रणनीतिक दृष्टि का हिस्सा है जिसके तहत वह दक्षिण एशिया के इस उत्तरी सिरे में अमेरिका और चीन दोनों के हितों को सहेजना चाहता है. तालिबान मौजूदा अफगान नेतृत्व को पंगु बनाएगा और शायद यह रणनीतिक रूप से बीजिंग के प्रभाव को भी नियंत्रित करेगा. पाकिस्तान ने भले ही यह दावा किया हो कि वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में अफगानिस्तान की भागीदारी का समर्थन करता है, लेकिन उसका इरादा मुख्य रूप से अपनी सौदेबाज़ी की शक्ति को बढ़ाने पर केंद्रित है.
इस्लामाबाद पिछले एक दशक में मॉस्को और बीजिंग दोनों को यह समझाने के लिए संघर्ष करता रहा है कि ये नया तालिबान है. अब इस बारे में मौजूद काफी सीमित सबूतों के बावजूद वह पश्चिमी देशों को भी यही यकीन दिलाता चाहता है.
इंटीरियर मिनिस्टर शेख रशीद से लेकर विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी तक, सभी तालिबान की ‘मार्केटिंग’ में लगे हैं ताकि इस लड़ाका समूह को व्यापक स्वीकृति मिल सके जबकि वह (तालिबान) अभी भी लड़ाई के जरिए ही अपने इलाकाई कब्ज़े को बढ़ाता जा रहा है. चीन के साथ तो इस तरह की कोई मार्केटिंग काम भी नहीं करेगी क्योंकि वह हाल ही में गिलगित-बाल्टिस्तान में हुए उस हमले से आग-बबूला है जिसमें उसके नौ नागरिक मारे गए थे और संभवत: उसने कुरैशी और इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (डीजी-आईएसआई) के डायरेक्टर-जनरल लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को बीजिंग तलब भी किया है.
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जनरल बाजवा का ‘मिशन इम्पॉसिबल’
जनरल बाजवा की टीम वाशिंगटन से मिल रहे संकेतों को पढ़ ही नहीं पा रही है. तालिबान के साथ शांति समझौता करने की योजना इस आधार पर बनी थी कि इन आतंकी तत्वों को अफगानिस्तान के प्रशासनिक ढांचे में शामिल किया जाएगा भले ही उन्हें इस पर पूरी तरह से कब्जा करने की अनुमति ना दी जाए. अपने इन दावों के बावजूद कि तालिबान द्वारा सत्ता पर काबिज होने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है, पाकिस्तान अशरफ गनी सरकार के बजाय अफगान आतंकवादियों को कहीं अधिक तरजीह देता है.
एनएसए युसूफ से लेकर राजदूत असद मजीद खान तक, सभी ज़लमय खलीलज़ाद- जो अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं- की तरह ही लग रहे हैं और वे केवल काबुल पर ही इस अपेक्षा के साथ दबाव डाल रहे हैं कि वह तालिबान को सरकार में शामिल करे. कई मामलों में पाकिस्तान वही सब कर रहा है जो पहले अमेरिका ने किया था.
इस लेखिका और अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी का सोचना है कि तालिबान का समर्थन करना एक त्रुटिपूर्ण रणनीति है और यह भी कि तालिबान की सफलता आगे चलकर पाकिस्तान के लिए एक बेकाबू समस्या बन जाएगी. लेकिन पाकिस्तानी जनरल उनसे कोई सबक नहीं सीखेंगे. हक्कानी के तर्क के विपरीत, जनरल बाजवा भी पश्चिमी देशों को यह यकीन दिलाने के लिए बराबर रूप से दोषी हैं कि तालिबान अब एकदम से नया ग्रुप है जिसके साथ मिलकर काम किया जा सकता है.
अब, जनरल बाजवा खुद को तालिबान को संभालने सहित कई चीजों में बदलाव ला सकने वाले व्यक्ति के रूप में पेश करने के लिए ब्रिटेन के साथ पूरे जोशो-खरोश से जुड़े हुए हैं. जुलाई 2007 में लंदन में हुए आतंकी हमले के बाद से ही ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों ने पाकिस्तान के साथ बहुत निकटता के साथ काम किया है. उनका आईएसआई के साथ अमेरिका की तुलना मे कहीं बेहतर तालमेल है.
हाल ही में, ब्रिटन के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर डिफेन्स बेन वैलेस ने तालिबान के सत्ता में आने पर उनके साथ काम करने की अपनी इच्छा का संकेत दिया था. यह रावलपिंडी को बातचीत में व्यस्त रखने और उन्हें तालिबान के साथ उनके प्रभाव का इस्तेमाल करने के लिए राज़ी करने के अलावा और कुछ नहीं है.
अमेरिका ब्रिटेन को शांति समझौते के बाद के अफगानिस्तान में कोई भूमिका निभाने के लिए कह सकता है लेकिन असलियत यह है कि इस बारे में लंदन की क्षमता अति सीमित है और अन्य यूरोपीय राज्यों की तरह वह भी अफगानिस्तान से बिल्कुल बाहर निकल जाएगा. यहां तक कि तुर्की, जिसने वहां अपने कुछ सुरक्षा बलों को तैनात किया है- वो भी कुछ सीमित कार्य करने के लिए वहां मौजूद है.
ब्रिटेन की अपनी आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं के कारण वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में कुछ हद तक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए कई समूहों के साथ जुड़ना चाहता है. इस क्षेत्र की शांति के लिए योगदान देने से ब्रिटेन के भू-रणनीतिक प्रभाव को भी बरकरार रखा जा सकता है, खासकर ब्रेग्जिट के बाद. हालांकि, जैसा कि इतिहासकार टैलबोट ने अपनी किताब में सुझाव दिया है, वाशिंगटन की तुलना में अपना अलग राग अलापते हुए भी लंदन वास्तव में पाकिस्तान से निपटने के लिए अमेरिका द्वारा अपनाए गये रवैये पर ही चल रहा है. लंदन पाकिस्तान की बात इसलिए भी सुनना चाहता है क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत है कि काबुल की भी अपनी कुछ समस्याएं हैं जैसे खराब शासन और भ्रष्टाचार, जो तालिबान को बनाए रखने में मदद करते हैं.
जैसा कि रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट के डैन जार्विस बताते हैं, ब्रिटेन की इस योजना के महत्वपूर्ण बिंदुओं में से एक यह सुनिश्चित करना भी है कि अमेरिका और तालिबान के बीच का शांति समझौता कायम रहे और इसके सभी हितधारक एक साथ काम करें, भले ही यह काम कितने ही अनमने तरीके से क्यों ना हो. अगर तालिबान अफगानी सत्ता के ढांचे का हिस्सा बनने ही जा रहा है, तो क्यों न उसके साथ बातचीत की जाए, खासकर पाकिस्तान से उसके लंबे समय से जुड़ाव का लाभ उठाकर.
यदि काबुल में सरकार बदल जाती है तो पाकिस्तान के जरिए तालिबान से संपर्क साधने में ब्रिटेन की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. अफसोस की बात तो यह है कि वह केवल पाकिस्तान ही है जिसे अपने पड़ोसी देश में सीमित या लंबे समय के तालिबानी बोलबाले के दुष्परिणाम भुगतने होंगे. उम्मीद है कि इस्लामाबाद इस पर अपनी आंखें नहीं मुंदेगा.
(आयशा सिद्दीका एसओएएस., लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं और ‘मिलिट्री इंक इनसाइड पाकिस्तान्स मिलिट्री इकोनॉमी’ की लेखिका भी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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