तमिलनाडु में हाल के स्थानीय निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के गजब के प्रदर्शन से चुनाव पंडितों से लेकर हर कोई चौंक उठा. सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कडगम (डीएमके) के नेताओं के तो होश फाख्ता हो गए.
सत्तारूढ़ गठजोड़ सभी 21 नगर निगमों में जीता. अकेले डीएमके 17 में जीती. गठजोड़ ने 138 म्युुनिसिपालिटी और 489 टाउन पंचायतों में ज्यादातर जीत दर्ज की. जाहिर है, उसकी प्रतिद्वंद्वी एआइएडीएमके ऐसी भारी जीत अपने लिए नहीं हासिल कर पाई थी.
लेकिन चौंकाने वाला पहलू बीजेपी का प्रदर्शन है. बीजेपी 1374 निगम वार्डों में से 22, 20843 म्युनिसिपल वार्डों में 56 और 7621 टाउन पंचायत सीटों में 230 जीत गई. यानी 308 सीटें और 3 फीसदी वोट उसे मिले. ऐसी जीत की उम्मीद न बीजेपी को थी और न उसके विरोधियों को. मतलब यह कि बीजेपी के पांव तमिलनाडु में आखिरकार पड़ गए, जिससे द्रविड़ ताकतों के माथे पर बल पड़ जाना चाहिए.
बीजेपी का एकला चलो
इस प्रदर्शन का सबसे चुनौतीपूर्ण और दिलचस्प तथ्य यह है कि बीजेपी स्थानीय निकाय के चुनाव अकेले लड़ी. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए) में सहयोगी एआइएडीएमके से उसकी बातचीत चल रही थी. जयललिता की मौत के बाद राज्य में एआइएडीएमके की सरकार केंद्र में बीजेपी सरकार की मदद से चल रही थी. लेकिन बीजेपी विधानसभा चुनावों में तो कुछ खास नहीं कर पाई और एआइएडीएमके अपने प्रतिद्वंद्वी डीएमके से हार गई.
दो अस्वाभाविक सहयोगियों बीजेपी और एआइएडीएमके ने साझा प्रतिद्वंद्वी डीएमके ने लड़ाई में एकजुटता दिखाने की पूरी कोशिश की. बीजेपी ने एआइएडीएमके से बराबर सीटें मांगने की बेमानी का एहसास किया, जो बीजेपी को उसकी ‘उत्तर, हिंदी क्षेत्र और हिंदू समर्थक पार्टी’ की छवि की वजह से बोझ समझती थी. एआइएडीएमके ने शायद सोचा कि बीजेपी को जूनियर पार्टनर बनाए रखना ही बेहतर है, बस कुछ खास क्षेत्रों में ही उसका फायदा लिया जा सकता है. गठजोड़ की बातचीत में सबसे बुरा यह था कि एआइएडीएमके ने बीजेपी की कोई भी मांग न मानने का फैसला कर लिया. उसके बाद बीजेपी ने नामांकन दाखिल करने के सिर्फ चार दिन पहले अकेले मैंदान में उतरने का बड़ा जोखिम उठाया.
अगले चार दिन में बीजेपी ने राज्य भर में 5,480 उम्मीदवार उतारने में कामयाब हुई और उसके बाद 18 दिनों तक जोरदार प्रचार अभियान चलाया. राष्ट्रीय नेतृत्व के दिग्गज पंचार करने नहीं आए, जो समझ में भी आता है क्योंकि उनका जमीन से जुड़ाव थोड़ा है या फिर राज्य में स्थानीय निकाय के चुनावों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे. यहां पार्टी को सियासी ताकत भी नहीं मानी जाती.
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बीजेपी का दांव और चुनौती
समूचे तमिलनाडु में बीजेपी के अप्रत्याशित प्रदर्शन के बारे में शायद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व नहीं सोच पाया, लेकिन डीएमके अब बीजेपी के उभार को चुनौती के रूप में देख सकती है. जयललिता-करुणानिधी का दौर 2016-17 में खत्म हुआ तो क्षेत्रीय पार्टियों का सियासी भविष्य धुंधला नजर आया. लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों की पूरी तरह गैर-मौजूदगी से राजनैतिक वापसी और राज्य को कांग्रेस और बीजेपी के असर से दूर रखने की उम्मीद जगी.
इस बीच कांग्रेस ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना बेहतर पाया. कई कांग्रेस दिग्गज घाव सहलाते रह गए क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व ने तय किया कि डीएमके की पिछलग्गू ही बनकर रहना है. बीजेपा के पास दो विकल्प थे. अपने स्थानीय नेताओं को आगे बढ़ाए या फिल्मी परदे के सुपर स्टार रजनीकांत की पीठ पर सवार हो. रजनीकांत ने एक पार्टी बनाई और बीजेपी को चुनावी सहयोगी बनाने की उम्मीद जगाई. लेकिन रजनीकांत पलट गए और राजनीति में न जाने का फैसला कर लिया. इस तरह बीजेपी के पास अपने नेताओं को आगे बढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा.
केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य इकाई का जिम्मा नवागंतुक पूर्व आइपीएस के. अन्नामलै के हाथों सौंपने का जोखिम उठाया. दांव चल गया और अन्नामलै ने बीजेपी काडर में ऐसा उत्साह भर दिया कि हर कोई उसके प्रदर्शन, कार्यशैली, सादगी और लड़ाई जीतने के जज्बे का कायल हो गया.
बीजेपी के लिए मजबूत नेता का मिलना ऐसे वक्त में काफी मौका जुटा देता है, जब तमिलनाडु में नेतृत्व की शून्यता है. चह भी ऐसा नेता जो पार्टी को मजबूत करे, अच्छी टीम बनाए और द्रविड विचारधारा तथा जाति आधारित राजनीति का कारगर राजनैतिक विकल्प मुहैया कराए.
डीएमके के उत्तराधिकारी करुणानिधि के बेटे एम.के. स्टालीन 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनावों में एआइएडीएमके को धूल चटाने में कामयाब हो गए. इस बार भी स्थानीय निकाय चुनाव में भारी जीत से उनके नेतृत्व की साख मजबूत हुई है. लेकिन युवाओं और महिला वोटरों के बदलते मूड की वजह से यह विजय जारी नहीं रही सकती क्योंकि वोटर अब आर्थिक अवसरों, नौकरियां और विकास मांगने लगे हैं.
तमिलनाडु में अव्वल राज्य बनने की काफी संभावनाएं हैं. बीजेपी के लिए भी राजनीति का एक ध्रुव बनने और राज्य को जाति आधारित राजनीति तथा फिल्मी शख्सियतों के आकर्षण से दूर ले जाने का मौका है. लेकिन यह आसान नहीं है. इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व को राज्य की आंतरिक संरचना को समझने और स्वीकार करने की जरूरत है.
(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ पत्रिका के पूर्व संपादक हैं. वे @seshadrichari से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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