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Sunday, 22 December, 2024
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‘मोदी-बाइडेन के ‘मूल्यों’ की बात करने का एक ही लक्ष्य है, लोकतंत्र के उद्देश्यों को मजबूत करना’, है न?

जब मोदी और जो बाइडेन लोकतंत्र के  और वैश्विक स्थिरता के नेता के रूप में एक-दूसरे की सराहना करेंगे, तो वे अर्थ और सार से रहित सुने-सुनाए औपचारिक वाक्यों को दोहरा रहे होंगे.

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इस हफ्ते नरेंद्र मोदी के संयुक्त राज्य अमेरिका के दौरे से उत्पन्न होने वाली “लोकतंत्र” और “साझा मूल्यों” की तारीफ को पचाने के लिए सौम्य एवं शांत भारतीयों को उल्टी की दवा (एंटी-एमेटिक) की एक स्ट्रॉन्ग डोज़ की ज़रूरत होगी. प्रधानमंत्री का अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करने और व्हाइट हाउस में भोजन करने का कार्यक्रम है.

चूंकि वह राज्य के प्रमुख (देश के मुखिया नहीं हैं) नहीं हैं, इसलिए यह यात्रा, अगर थोड़ा सख्त लहज़े में कहें तो, राजकीय यात्रा नहीं कही जा सकती. अमेरिकी ऐसी चीज़ों को वर्गीकृत करने में सावधानी बरतते रहे हैं.

जब 2005 में मनमोहन सिंह वॉशिंगटन गए, तो जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अपने अतिथि के लिए “एक राजकीय रात्रिभोज” जैसी मेजबानी की व्यवस्था की. लेकिन शब्दों के अर्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं. और यह राजकीय यात्रा उस सच्चाई को ही दिखाएगी.

जब मोदी और जो बाइडेन लोकतंत्र के  और वैश्विक स्थिरता के नेता के रूप में एक-दूसरे की सराहना करेंगे, तो वे अर्थ और सार से रहित सुने-सुनाए औपचारिक वाक्यों को दोहरा रहे होंगे.

मोदी के शासनकाल में भारतीय लोकतंत्र काफी हद तक वोट डालने और गिनती करने की प्रक्रिया तक सीमित रह गया है. प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व अपने तरह का इतना अनूठा है कि दुनिया में उनके समकक्ष किसी शख्सियत में देखने को नहीं मिलता.

राष्ट्रीय स्तर पर विरोधियों के दरवाजे पर दस्तक, विपक्षियों को घेरना, विदेशी और राष्ट्रीय मीडिया को परेशान करना, पत्रकारों और प्रदर्शनकारियों को जेल में डालना और क्षेत्रीय स्तर पर, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और कानून-व्यवस्था का कमज़ोर होना इसका पूरक है.

कहीं हम भूल न जाएं कि मोदी ने मणिपुर में नरसंहार के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला है, जो डेलावेयर से तीन गुना बड़ा राज्य है. इसके बजाय, प्रधानमंत्री का ध्यान उस चमक-दमक पर केंद्रित है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में उनका इंतजार कर रहा है.

देश में उनकी पूजा करने वाले, उनके उन समर्थकों के साथ, जो वास्तव में मानते हैं कि दुनिया “न्यू इंडिया” के पिता द्वारा दिए गए ज्ञान से चलती है, साझा करने के लिए हाथ मिलाने और गले मिलने की तस्वीरें और वीडियो हैं.

प्रधानमंत्री की आत्म-मुग्धता उनके सबसे सक्रिय आलोचकों की मूर्खता से मेल खाती है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति से लोकतांत्रिक पथ से भटकने के लिए मोदी को फटकार लगाने का अनुरोध करते हैं.

ऐसे में उन्हें इस बात का भदेसपन समझ नहीं आता कि वे अनावश्यक विदेशी युद्धों की लत से ग्रस्त एक साम्राज्य के मुखिया को सही लोकतांत्रिक आचरण के निर्णायक के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.

उनके दिमाग में उनके विचार इतने गहरे तक पैठ बना चुके हैं कि वे एक ऐसे देश को, जो अभी भी क्यूबा में यातना केंद्र बनाए हुए है – और पिछले दो दशकों में अलग-अलग देशों में 3.7 करोड़ लोगों के विस्थापन के लिए जिम्मेदार है – उसे भारत के आंतरिक मामलों में उसे समझाने के लिए कहने जैसे बेतुकी बात पर भी ध्यान नहीं दे पाते.

भारतीय पत्रकारों द्वारा भारतीय लोकतंत्र के दुरुपयोगों को बार-बार इंगित किया जा रहा है, और हर जगह आम भारतीय नागरिक अपने देश को फिर से वैसा बनाने के लिए अपनी स्वतंत्रता को दांव पर लगा रहे हैं.


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मैं कल्पना करता हूं कि वे ऐसे देश के साथ भाईचारे के दिखावे के बिना भी, ऐसा कर सकते हैं जिसका इतिहास अपने ही पड़ोस में लोकतंत्र की संभावनाओं को खत्म करने, पश्चिम एशिया में सिर काटने वाले शासनों को बढ़ावा देने, 20वीं सदी में जापान पर परमाणु बम बरसाने, इस सदी में इराकियों के खिलाफ रासायनिक हथियारों का उपयोग करने, पाकिस्तान को हथियार देकर बंगालियों और भारतीयों की हत्या किए जाे को बढ़ावा देने और 2001 के बाद से आसमान से अनगिनत संख्या में असहाय एशियाई नागरिकों का नरसंहार करने का रहा है.

आत्म-सम्मान से चाटुकारिता तक

संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रति भारत का रवैया सम्मान और आत्म-आश्वासन से संचालित होता था. नेहरू ने अपनी मेज पर कांस्य का बना हुआ अबे लिंकन का हाथ रखा हुआ था और जब भी उन्हें अपना संकल्प कमजोर होता हुआ महसूस होता तो वह उसे रगड़ देते.

भारतीय विचारकों, कार्यकर्ताओं और स्वतंत्रता सेनानियों ने, जैसा कि अमेरिकी इतिहासकार निको स्लेट ने अपनी उत्कृष्ट पुस्तक कलर्ड कॉस्मोपॉलिटनिज़्म (2017) में विवरण दिया है, ने मुक्ति के लिए अफ्रीकी अमेरिकी संघर्ष को प्रेरित किया और समान अधिकारों के लिए उनके आंदोलन में मदद की. भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद वह आत्मविश्वास आत्म-हनन में बदलने लगा.

भारत के व्यवसायिक और शासक वर्ग अमेरिकी अनुमोदन के लिए तरसने लगे, और अमेरिकियों द्वारा भारतीय लोकतंत्र की थोड़ी सी भी प्रशंसा को भारतीय टिप्पणीकारों द्वारा मान्यता के लिए उत्सुकता से लपक लिया गया.

2003 में, नई दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी सहित मंत्रियों ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश के “इच्छुकों के गठबंधन” के हिस्से के रूप में इराक में भारतीय सैनिकों को तैनात करने की बात कही थी.

इस विचार को कुचलने के लिए और अखिल एशियाई एकजुटता जगाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की जरूरत पड़ी. युद्ध की निंदा करते हुए संसद में एक प्रस्ताव लाने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने मंत्रिमंडल से कहा, “भारतीय सैनिकों को उनके इराकी भाइयों को मारने के लिए कभी नहीं भेजा जाएगा.”

स्वायत्तता की वह लकीर मनमोहन सिंह की चाटुकारिता के बोझ तले दब गई. सिंह ने मुंबई की 26/11 के हमले की पहली बरसी 21वीं सदी में भारतीय धरती पर सबसे भयानक आतंकवादी कृत्य के पीड़ितों के साथ नहीं, बल्कि अमेरिका में अपने प्रशंसकों के बीच बिताई.

एक स्वाभिमानी नेता को ऐसे दुःखद अवसर पर अपने देश से दूर रहने के लिए कहने मात्र से अपमानित महसूस हुआ होगा. पर, सिंह आमंत्रित किये जाने के लिए आभारी दिखे. अमेरिकियों ने, मित्रता की अपनी सभी स्पष्ट घोषणाओं के बावजूद, न तो पाकिस्तान को हथियारों की बिक्री रोकी और न ही भारत को उनकी हिरासत में पाकिस्तानी-अमेरिकी डबल-एजेंट डेविड हेडली तक व्यापक पहुंच प्रदान की, जिसकी जानकारी मुंबई हमलों के पीछे की योजना को बनाने में सहायक थी. कोई भी उन्हें दोष नहीं दे सकता था: वे अपने हितों की पूर्ति कर रहे थे – और दुर्भाग्य से भारत के प्रधानमंत्री भी यही कर रहे थे.

मोदी और भी आगे बढ़ गए. 2015 में, उन्होंने अपने अधिकारियों को बराक ओबामा के साथ उनकी बातचीत की एक पुस्तक प्रकाशित करने का निर्देश दिया. चार साल बाद, उन्होंने डोनाल्ड ट्रम्प को संतुष्ट करने के लिए एक बड़ी कॉर्पोरेट टैक्स कटौती की घोषणा की: “उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया के लिए बहुत कुछ हासिल किया है,” प्रधानमंत्री ने टेक्सास में एक कार्यक्रम में ट्रम्प के बारे में कहा था.

हाथ में हाथ डाले चलते दो व्यक्तियों की तस्वीरें हर प्रमुख भारतीय अखबार के पहले पन्ने पर छपीं. ठीक एक दिन बाद, ट्रम्प इमरान खान के बगल में दिखाई दिए और कश्मीर विवाद पर मध्यस्थता करने की पेशकश की – यह पेशकश भारत की स्थिति के लिए इतना प्रतिकूल था कि इसने ट्रम्प के अहंकार को तुष्ट करने के लिए मोदी द्वारा खर्च की गई ऊर्जा के हर कतरे को बेकार साबित कर दिया.

चार साल बाद, मोदी को फिर से रात्रि भोज में वही गीत गाने के लिए कहा जा रहा है. अमेरिका का क्लाइंट बनने के लिए अमेरिकी दिल्ली पर जबरदस्त दबाव बना रहे हैं. इस सप्ताह वॉशिंगटन में “मूल्यों” की तारीफ में गाए गए सभी गीतों का एक लक्ष्य और लोकतंत्र के उद्देश्य को मजबूत करना है, है न?

(कपिल कोमिरेड्डि ‘मेलवोलेंट रिपब्लिक: ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द न्यू इंडिया’ के लेखक हैं, जिसे अगले महीने एक संशोधित और अद्यतन संस्करण के साथ प्रकाशित किया जाएगा. उन्हें टेलीग्राम और ट्विटर पर फॉलो करें. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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